परमाणु दायित्व कानून से खिलवाड़

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nuclear power plantअरविंद जयतिलक

केंद्र की यूपीए सरकार देश की सुरक्षा के साथ किस तरह खिलवाड़ करती है परमाणु दायित्व कानून पर उसके लचर रुख से स्वत: स्पष्ट हो जाता है। अगर यह सच है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अमेरिकी दौरे में अमेरिका के साथ परमाणु करार तय भारतीय कानून के अनुरुप नहीं होगा तो यह देश की सुरक्षा और गरिमा के साथ खिलवाड़ होगा। हालांकि सरकार भरोसा दे रही है कि वह संसद में पारित परमाणु दायित्व कानून से इतर कोर्इ समझौता नहीं करेगी। लेकिन परमाणु दायित्व कानून की धारा 17 पर जिस तरह अटार्नी जनरल जीर्इ वाहनवती ने अपना एकांगी दृष्टिकोण पेश कर सरकार की मंशा जाहिर की है उससे साफ हो जाता है कि सरकार परमाणु तकनीकी प्रदान करने वाली अमेरिकी कंपनियों को रियायत देने का मन बना ली है। अगर सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती है तो फिर ये अमेरिकी कंपनियां परमाणु जिम्मेदारी वाले उस कानून के दायरे मुक्त होंगी जो उन्हें दुर्घटना की स्थिति में दंड का भागीदार बनाता है और मुआवजा देने को बाध्य करता है। परमाणु दायित्व कानून की धारा 17 में स्पष्ट उल्लेख है कि परमाणु बिजली घरों में लगाए गए रिएक्टरों में अगर खराबी के कारण दुर्घटना होती है तो इसके लिए सप्लायर कंपनियां जिम्मेदार होंगी। वेसिटंगहाउस और जीइ जैसी अमेरिकी कंपनियां इस कानून के खिलाफ मोर्चा खोल रखी हैं। दरअसल उन्हें लग रहा है कि इस कानून के चलते उनके उत्पादों के बीमा का खर्चा बढ़ जाएगा और वे मनमाफिक मुनाफा हासिल नहीं कर सकेंगी। वेसिटंगहाउस कंपनी जो गुजरात के मिठीविर्दी में 1000 मेगावाट के 6 परमाणु बिजलीघर लगाने की योजना पर काम कर रही है वह चाहती है कि अंतिम समझौता से पहले भारतीय संसद में पारित परमाणु दायित्व कानून उस पर न थोपा जाए। गौरतलब है कि इस नाभिकीय संयंत्र के लिए भारत को 1 करोड़ 51 लाख 60 हजार डालर खर्च करने होंगे। चूंकि सितंबर के अंतिम सप्ताह में वॉशिंगटन में मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की मुलाकात तय है इससे पहले अमेरिका चाहता है कि भारत परमाणु दायित्व कानून की धारा 17 पर ढिलार्इ बरते। वह अपनी कंपनियों के हितों को ध्यान में रख पहले भी राग अलाप चुका है कि परमाणु रिएक्टर बेचने की दिशा में सिविल न्यूकिलयर लायबिलिटी कानून अवरोध है। गौरतलब है कि 2008 में हुए भारत-अमेरिका नाभिकीय सहयोग समझौते के बाद अभी तक दोनों देशो के बीच खरीद का सौदा नहीं हो सका है। दरअसल अमेरिकी कंपनियां 2010 में भारत की संसद में पारित नाभिकीय उत्तरदायित्व कानून से डर रही हैं। यह कानून विदेशी आपूर्तिकर्ता की जवाबदेही तय करता है। अमेरिका से परमाणु करार के दौरान यूपीए सरकार ने दावा किया था कि इस समझौते से भारत की उर्जा जरुरतें पूरी होंगी। लेकिन सच्चार्इ है कि पांच साल बाद भी भारत के कर्इ परमाणु आवश्यक उर्जा तथा नवीन टेक्नालाजी की अनुपलब्धता के चलते बंद पड़े हैं। अब जब सरकार के कार्यकाल के गिने-चुने दिन रह गए हैं ऐसे में परमाणु करार पर उसकी हड़बड़ी कर्इ तरह का सवाल खड़ा करती है। समझ से परे है कि वे कौन से कारण हैं जिसकी वजह से वह अमेरिका के आगे बिछी जा रही है। सरकार को देश को बताना चाहिए कि वह अमेरिकी कंपनियों को उन्हीं की शर्तो पर नाभिकीय रिएक्टर लगाने की छूट क्यों देना चाहती है? देश को इससे क्या लाभ होगा? अगर सरकार की मंशा साफ है तो फिर वेसिटंगहाउस कंपनी को भारतीय कानून के दायरे से बाहर रखने के लिए कैबिनेट मसौदा तैयार क्यों किया गया? इस मसौदे में यह प्रावधान क्यों रखा गया कि परमाणु बिजलीघर चलाने वाली भारतीय कंपनी नाभिकीय उर्जा निगम (एनपीसीआइएल) की इच्छा पर निर्भर करेगा कि वह दुर्घटना की हालत में रिएक्टर सप्लार्इ करने वाली कंपनी पर जिम्मेदारी डाले या नहीं? सवाल यह भी कि इस मसौदे को परमाणु उर्जा आयोग की सलाह के बिना ही तैयार क्यों किया गया? सरकार के पास इन सवालों का कोर्इ स्पष्ट जवाब नहीं है। ऐसे में विपक्ष सरकार पर आरोप मढ़ता है कि वह अमेरिका और उसकी कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए हड़बड़ी दिखा रही है तो यह गलत नहीं है। सवाल सिर्फ अमेरिकी कंपनियों को लाभ पहुंचाने तक ही सीमित नहीं है। सच यह भी है कि इस परियोजना पर अधिक लागत आएगी और बिजली महंगी होगी। सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि इस महंगी बिजली का खरीददार कौन होगा? यह तथ्य है कि मिठीविर्दी में लगने वाले रिएक्टर पर 1 मेगावाट बिजली के उत्पादन पर तकरीबन 40 करोड़ रुपए खर्च आएगा। यानी रिएक्टर की प्रतिवाट कीमत 12 रुपए से अधिक होगी। जबकि दूसरी ओर कुडनकुलम में लगने वाले तीसरे और चौथे रिएक्टरों पर 1 मेगावाट बिजली के उत्पादन पर तकरीबन 22 करोड़ रुपए खर्च आएगा। परमाणु उर्जा विभाग की दलील है कि इसकी लागत और बिजली पैदा करने की कीमत का दूसरे उर्जा स्रोतों से तुलनात्मक अध्ययन होगा और फिर रुस, फ्रांस और अमेरिका के सहयोग से लगने वाले सभी प्रोजेक्टों पर समान रुप से लागू होगा। लेकिन यह दलील संतोषजनक नहीं है। सरकार के रवैए से ऐसा लगता है कि वह मान बैठी है कि इन कंपनियों को रियायत नहीं दी गयी तो वे भारत से मुंह मोड़ लेंगी। लेकिन ऐसा नहीं है। सच यह है कि भारत परमाणु बिजली घरों का विशाल बाजार बन चुका है और कोर्इ भी विदेशी कंपनी खुद को इस बाजार से अलग नहीं रख सकती। रुस और फ्रांस के मैदान में होने से प्रतिद्वंदिता बढ़नी तय है। बेहतर होता कि सरकार इसका अधिकाधिक लाभ उठाती? लेकिन वह आश्चर्यजनक रुप से भारतीय हितों को किनारे रख विदेशी कंपनियों पर मेहरबान दिख रही है। सरकार को समझना होगा कि परमाणु दायित्व कानून की धारा 17 पर झुककर समझौता करने से देश की सुरक्षा प्रभावित होगी। जानमाल के खतरे बढ़ेंगे। दशकों पहले  भोपाल गैस कांड की त्रासदी देश भुगत चुका है। हादसे में जान गंवा चुके लोगों के परिजन आज भी मुआवजे से वंचित हैं। 25 साल पहले यूक्रेन में हुए चेरनोबिल न्यूकिलयर विघटन से भी सरकार को सबक लेने की जरुरत है। इस दुर्घटना के बाद यूरोप में एक भी नया परमाणु रिएक्टर नहीं लगा है। पुराने रिएक्टर ही मुसीबत बने हुए हैं। जापान का फुकुशिमा रिएक्टर तबाही के कगार पर है। यह रिएक्टर अमेरिकी डिजायन का है। भारत खुद भी परमाणु दुर्घटना का शिकार हुआ है। 1987 में तमिलनाडु के कलपक्कम रिएक्टर का हादसा, 1989 में तारापुर में रेडियोधर्मी आयोडीन का रिसाव, 1993 के नरौरा के रिएक्टर में आग, 1994 में कैगा रिएक्टर से विकिरण किसी से छिपा नहीं है। उचित होगा कि सरकार परमाणु दायित्व पर हड़बड़ी दिखाने के बजाए स्वदेशी और विदेशी परमाणु रिएक्टरों की सुरक्षा और जवाबदेही पर ध्यान टिकाए। अगर वह विदेशी कंपनियों की जवाबदेही घटाने की दिशा में कदम बढ़ाती है तो इससे देश की सुरक्षा प्रभावित होगी। यह सच है कि भारत के कर्इ परमाणु रिएक्टर आवश्यक उर्जा और नवीन टेक्नालाजी की अनुपलब्धता के चलते बंद पड़े हैं और धीमी गति से काम कर रहे हैं। यह भी सही है कि उर्जा जरुरतों की पूर्ति तथा आधुनिक तकनीकी के इस्तेमाल के लिए भारत को अमेरिका तथा अन्य परमाणु आपूर्तिकर्ता देशो के साथ तालमेल रखना जरुरी है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि सरकार परमाणु रिएक्टर हासिल करने के लिए राश्ट्रीय हितों को ही ताक पर रख दे। परमाणु रिएक्टर उर्जा के एकमात्र स्रोत नहीं हैं। अन्य स्रोतों से भी उर्जा हासिल की जा सकती है। पवन उर्जा में अपार संभावनाएं हैं। मसलन अकेले पवन उर्जा से ही 48500 मेगावाट बिजली बनायी जा सकती है। उर्जा मंत्रालय की मानें तो देश में तकरीबन 6000 स्थानों पर लघु पनबिजली परियोजनाएं स्थापित की जा सकती हैं। इसी तरह सौर उर्जा से 5000 खरब यूनिट बिजली पैदा की जा सकती है। लेकिन विडंबना है कि केंद्र की यूपीए सरकार इस दिशा में ठोस पहल करने के बजाए परमाणु रिएक्टरों को ही उर्जा का एकमात्र स्रोत मान इसे हासिल करने के लिए राश्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने और विदेशी कंपनियों को लाभ पहुंचाने से हिचक नहीं रही है। उचित होगा कि सरकार कोर्इ भी समझौता करने से पहले देश की सुरक्षा और असिमता का ख्याल रखे।

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