शादाब जफर ‘‘शादाब’’
मेट्रो, आधुनिक एयरपोर्ट, बेहतरीन परिवहन व्यवस्था, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति कर 15 सालो में शीला दीक्षित की अगुवाई में दिल्ली ने खूब विकास किया, दिल्ली में 130 फ्लाई ओवर और ओवरब्रिज बनाए गए, विश्वविद्यालयों में युवाओं के लिए 50 हज़ार सीटें उपलब्ध कराई गई, सैकड़ों अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित किया गया और 45 पुनर्वास कॉलोनियों को मालिकाना हक़ दिया गया। इस सब के बावजूद दिल्ली की जनता ने शीला दीक्षित को नकार दिया आखिर क्यो?।
इस की एक नही बल्कि कई वजह है, दिल्ली में फैले भ्रष्टाचार के साथ ही हाल ही में प्याज़ को लेकर सबसे ज्यादा परेशान दिल्ली सरकार ही थी, जिसने जनता को सस्ता प्याज़ उपलब्ध कराने की कोशिश करने के घडियाली खूब आंसू तो बहाऐ पर कई न्यूज चैनलो के दिखाने के बावजूद प्याज माफियाओ के गोदामे पर छापे मारने की जहमत गवारा नही कि। साल 2009 में एक वकील ने उन पर आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने राजीव रतन आवास योजना के लिए जो 3.5 करोड़ रुपए दिए थे उनका उन्होंने व्यक्तिगत प्रचार के लिए उपयोग किया। यह मामला इस वक्त अदालत विचाराधीन है और उनके खि़लाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने के आदेश हुए हैं। जेसिका लाल हत्याकांड के आरोपी मनु शर्मा को पैरोल पर एक महीने के लिए रिहा किए जाने पर भी उनके फ़ैसले को लेकर आलोचना हुई थी। राष्ट्रमंडल खेलों में धन के अनुचित इस्तेमाल को लेकर भी वो सवालों के घेरे में थी। पिछले दिनो कॉमनवेल्थ घोटाले को लेकर शोरगुल होने के बाद शीला दीक्षित को हटाने के लिए भी दबाव बना था लेकिन विपक्षी दल और ख़ुद उनकी अपनी पार्टी के भीतर बैठे उनके विरोधी सफल हो नहीं पाए थे। शीला दीक्षित को इस बात का श्रेय जाता है कि जब कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी पूरी नहीं हो पा रही थी और खेल गाँव का काम पूरा कराने की ज़िम्मेदारी उन्होंने ख़ुद ली और तकरीबन हर रोज़ मौके पर जाकर काम कराया। सोनिया के साफ समर्थन के अलावा दिल्ली की कांग्रेस पार्टी में शीला दीक्षित के विरोधियों के बीच से ऐसा नाम उभर कर नहीं आया जो उनके कद के बराबर का हो या उनकी जगह ले पाता। उस वक्त न तो जेपी अग्रवाल और न अजय माकन इस स्थिति में थे कि उनकी जगह ले पाते। कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान कुछ बातों पर उनके और उप राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना के बीच मतभेद दिखाई पड़े. अंततः उप राज्यपाल बदल दिए गए।
दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों के लिए मतदान के बाद विभिन्न एक्जिट पोल के अनुमानों के बाद अगली सरकार का स्वरुप कैसा होगा, इसे लेकर मंथन का दौर जारी था और राजनीतिक पंडित अपने.अपने हिसाब से नई सरकार का खाका खींचने में लगे हुए थें। राजनीतिक पंडितों को शुरू से ही ये उम्मीद थी कि भाजपा दिल्ली सहित देश के चारो राज्यो में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। यू तो चारो राज्यो में राजनीतिक पंडित की भविष्यवाणी पूरी हो गई। पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने भाजपा के सपने पर पानी फेर दिया और 32 सीटे जीतने के बाद भी बता दिया कि भाजपा के हाथो से अभी दिल्ली दूर है। कहने को तो राजनीतिक हल्को में ये चर्चा जोरो पर है कि भाजपा दिल्ली कि गद्दी किसी भी हाल में छोडने वाली नही। पर दिल्ली की सत्ता भाजपा को मिल जाये इस की भी कोई सूरत नजर नही आ रही। भाजपा यदि अन्य दलों के साथ सरकार गठित करने में कामयाब नहीं होती है तो दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। राष्ट्रपति शासन लगाये जाने की स्थिति में छह माह के भीतर दोबारा चुनाव कराने होंगे। मौजूदा दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल 17 दिसम्बर को खत्म हो रहा है और यदि इस तिथि तक नई सरकार का गठन नहीं होता है तो 18 दिसम्बर के बाद से दिल्ली में फिर से चुनाव कराने की जरूरत पड़ेगी।
दिल्ली में इस बार चुनाव मैदान में पूरे दमखम के साथ 24 सीटे जीत कर ताल ठोंक चुकी अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पहले ही कह चुकी है कि वह न तो किसी का समर्थन लेगी और न ही किसी को अपना समर्थन देगी। वह समर्थन लेने,देने की बजाय नये सिरे से चुनाव में जाना पसंद करेगी। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि चुनाव परिणाम में त्रिशंकु विधानसभा सामने आने से उपराज्यपाल नजीब जंग को सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरने वाली पार्टी को न्यौता देना चाहिये और वह उससे नयी सरकार के गठन की संभावनाओं को तलाशने के लिए कहें। गौरतलब है कि त्रिशंकु नतीजों की स्थिति में सबसे अधिक सीट जीतने वाली पार्टी को सरकार बनाने के लिए पहले मौका दिया जाता है। व्रिटिश पंरपरा है कि सत्तारूढ दल यदि चुनाव में बहुमत हासिल नहीं कर पाता है, तो विपक्षी दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। स्वर्गीय राष्ट्रपति के आर नारायण ने 1990 में सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने की परंपरा की शुरुआत की थी। जहां तक त्रिशंकु विधानसभा आने की स्थिति में भाजपा और आम आदमी पार्टी या कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के किसी प्रकार के तालमेल की बात है तो दोनों तीनो राजनीतिक दल चिर प्रतिद्वदंवी हैं और इनके बीच किसी प्रकार के सहयोग का सवाल ही नहीं पैदा होता है। चुनाव के बाद वर्तमान में जो परिदृश्य उभरा है उसमें तो दिल्ली में किसी गठबंधन सरकार के गठित होने के आसार नहीं हैं और राष्ट्रपति शासन संभावनाएं ही प्रबल प्रतीत हो रही हैं। राष्ट्रपति शासन भी छह माह से अधिक नहीं चलाया जा सकता, इसलिए त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में ऐसी भी संभावनाएं हो सकती हैं कि अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव के साथ एक बार फिर दिल्ली विधानसभा के चुनाव कराने पड जायें।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली कानून 1991 के नियमनुसार पांच वर्ष पूरा होने के बाद विधानसभा को भंग किया जाना जरुरी है। ऐसी स्थिति में 17 दिसम्बर तक नई सरकार बनना जरुरी है। वर्तमान सरकार 18 दिसम्बर 2008 को अस्तित्व में आई थी। ऐसी स्थिति में नयी सरकार के गठन के लिए राजनीतिक दलों के पास नयी सरकार के गठन के लिए नौ दिन का समय है। सरकार नहीं बनने पर 18 दिसम्बर से राष्ट्रपति शासन लागू करना अनिवार्य हो जायेगा। दिल्ली में राष्ट्रपति शासन की स्थिति में उपराज्यपाल के पास सरकार के मुखिया का जिम्मा होगा, जो वह सलाहकारों के एक समूह का गठन कर सकेंगे, जो मंत्रिपरिषद के रुप में काम करेगा। ऐसी स्थिति में विधानसभा को निलंबित रखा जायेगा। राजनीतिक दलों के पास यह विकल्प होगा कि यदि वे बहुमत के आधार पर गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में आते हैं तो उन्हें मौका दिया जायेगा।
एक ज़माने में दिल्ली भाजपा का गढ़ होता था, पर कुछ अंदरूनी कलह ने और कुछ वक््त ने इस पार्टी के साथ धोखा किया। दिल्ली को दोबारा विधान सभा मिलने के बाद साल 1993 में जब चुनाव हुए तो भारतीय जनता पार्टी को ज़बरदस्त जीत मिली थी। भाजपा 70 में से 49 और कांग्रेस को 14 सीटें मिलीं। मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने लेकिन हवाला मामले में नाम आने पर उन्हें पद छोड़ना पड़ा उनकी जगह साहिब सिंह वर्मा आए प्याज़ की कीमतों और अंदरूनी झगड़ों ने उन्हें भी नहीं चलने दिया। साल 1997 में सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन 1998 के चुनाव में पार्टी बुरी तरह हारी। कांग्रेस को 51 और भाजपा को 15 सीटें मिलीं। प्याज़ की क़ीमतों ने सुषमा के नेतृत्व में खड़ी भाजपा को भी हराया।
मेट्रो, आधुनिक एयरपोर्ट, बेहतरीन परिवहन व्यवस्था, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा के क्षेत्र में शीला सरकार में दिल्ली ने तरक्की जरूर की पर आम आदमी को 15 सालो में दो वक्त की रोटी के लिये कितनी जिद्दोजहद करनी पडी कितना पसीना बहाना पडा। इन पंद्रह सालो में कांग्रेस आम आदमी और उस की जरूरतो से पूरी तरह अंजान रही जिस का नतीजा ये हुआ कि दिल्ली सहित देश के चारो राज्यो में आम आदमी की नजर अंदाजी और भ्रष्टाचार कांग्रेस को ले डूबा।
सही मूलयांकन., पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत.ठहरा पानी बदबू मरने लगता है, पंद्रह साल से जनता देख देख कर तंग आ चुकी थी, अब कुछ केजरीवाल से उमीद जगी थी, यह भी सोचाकि शायद बी जे पी ने भी इतने साल बाहर बैठ कुछ सबक लिया होगा, और परेशानियों से मुक्ति मिलेगी पर बात बनी नहीं.