जब सो गयी है मेरे आंगन की तुलसी खूंटे में बंधी गाय सुनाई नहीं देती मुझे चिड़ियों की चहचहाट । इतनी रात गये कई शोर उठते हैं तब दिखते हैं धू-धू जलती झोपड़ियाँ जबकि सामने पक्का मकान हंस रहे होते हैं और कान के परदे फटने लगते हैं बम बिस्फोटों के स्वरों से । तब मन सुकून चाहता है घर में हो या घाट में हाट में हो या श्मशान में ही सही । और जब नहीं मिलती नींद तब जागने की लौ दपदपाने लगती है मन के संचित शब्द चिंघाड़ने लगते हैं और तब टूटने लगते हैं धीरे-धीरे सारे तटबंध तब कुछ भी नहीं बचता भीतर मन के आंगन में शेष भी नहीं । मोतीलाल