कहो कौन्तेय-३५

(अर्जुन की सदेह स्वर्ग-यात्रा)

विपिन किशोर सिन्हा

– क्या खोया की गणना कर ही रहा था कि देवराज के रथ की घरघराहट सुनाई पड़ी। जैसे-जैसे रथ समीपआंखें बंद करके, दुर्दिनों में क्या पाया आ रहा था, भीषण ध्वनि से दिशाएं प्रतिध्वनित हो रही थीं। कुछ ही पल में रथ मेरे सामने था। सारथि मातलि ने देवराज इन्द्र की आज्ञानुसार मुझसे रथ में आरूढ़ हो अमरावती चलने का आग्रह किया। आग्रह स्वीकार कर मैं रथ में सवार हुआ। वायुवेग से चलता हुआ रथ, बादल, चन्द्रमा, तारों को लांघता हुआ शीघ्र ही स्वर्ग में प्रविष्ट हुआ।

स्वर्ग की शोभा, सुगन्धि, दिव्यता और दृश्य अनुपम थे। दृष्टि जिधर भी उठती थी, ठहर जाती थी। मातलि ने बताया –

“यह लोक बड़े-बड़े पुण्यात्मा पुरुषों को ही प्राप्त होता है। जिसने तप नहीं किया, अग्निहोत्र नहीं किया, युद्ध से पीठ दिखाकर भाग गया, वह इस लोक का दर्शन नहीं कर सकता। जो यज्ञ नहीं करते, वेदमंत्र नहीं जानते, तीर्थों में स्नान नहीं करते, यज्ञ और दान में रुचि नहीं लेते, यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करते हैं, क्षुद्र हैं, मद्यप हैं, परस्त्रीगामी हैं, दुरात्मा हैं, उन्हें किसी प्रकार स्वर्ग का दर्शन नहीं हो सकता है।”

मेरे स्वर्ग पहुंचते ही अप्सराएं और गंधर्व स्तुतिगान करने लगे। देवता, गंधर्व, सिद्ध और महर्षि प्रसन्न होकर, मेरे मना करने के बाद भी, मेरे पूजन में लग गए। मैंने स्वागत में बैठे हुए साध्य देवता, विश्वदेवता, पवन, अश्विनीकुमार, आदित्य, वसु, ब्रह्मर्षि, राजर्षि, तुम्बुरु, नारद तथा गंधर्वों के दर्शन किए। देवराज इन्द्र अपने स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान थे। उनके पास पहुंचकर, सिर झुकाकर, मैंने उनके चरणों में अपना प्रणाम निवेदित किया। मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब उन्होंने मुझे उठाकर अपने पवित्र देवासन पर बैठा लिया, बड़े स्नेह और प्रेम से मेरा सिर सूंघा और देर तक मेरे मस्तक को सहलाते रहे। सामने सामगान के कुशल गायक, तुम्बुरु आदि गंधर्व प्रेम के साथ मनोहर गाथाएं गाने लगे और अन्तःकरण तथा बुद्धि को लुभानेवाली मेनका, रंभा, उर्वशी, पूर्वचित्ति, स्वयंप्रभा, घृताची, मिश्रकेशी, दण्डगौरी, वरुथिनी, गोपाली, सहजन्या, प्रजागरा, चित्रसेना, सहा, मधुस्वरा आदि अप्सराएं नृत्य करने लगीं।

स्वागत समारोह के पश्चात विश्राम हेतु मुझे इन्द्रभवन में ले जाया गया। देवराज इन्द्र ने धीरे-धीरे अपने सभी दिव्यास्त्रों का ज्ञान मुझे दिया। अपने परम प्रिय अस्त्र वज्र के संचालन और उपसंहार की विधि में मुझे निपुण किया। निरन्तर अभ्यास के बल पर मैं समस्त दिव्यास्त्रों के संचालन और उपसंहार में दक्ष हो गया। देवराज कहते थे कि तीनों लोकों में कोई देवता, असुर, गंधर्व या मनुष्य नहीं है जिसके पास इतने दिव्यास्त्रों का भंडार हो। दिव्यास्त्र प्ताप्त करने के पश्चात मैंने अपने भ्राताओं के पास लौटने की इच्छा प्रकट की लेकिन देवराज ने अनुमति नहीं दी। उन्होंने मुझे चित्रसेन गंधर्व के पास भेजा – नृत्य और संगीत की शिक्षा प्राप्त करने हेतु। चित्रसेन ने बड़े मनोयोग से मुझे शिक्षा दी, परिणामस्वरूप अल्प काल में ही मैं ललित कलाओं में भी पारंगत हो गया।

साहित्य और संगीत मनुष्य का परिष्कार करते हैं। विशेषकर संगीत आध्यात्म की प्राप्ति का उत्कृष्ट साधन है। गायन और वादन मनुष्य को आध्यात्मिक उदात्तता प्रदान करते हैं। नृत्य शारिरिक पुष्टि के साथ मानसिक संसार को व्यापक बनाता है। स्वर्ग में आने के पूर्व मैं इसे राजाओं के महलों की शोभा और धनकुबेरों क मनोरंजन मानता था। नृत्य-संगीत आदि ललित कलाओं के ज्ञान एवं सामीप्य ने मेरी दृष्टि बदल दी। मुझमें नवीन रुचि का संचार हुआ। मुझे ही कहां पता था कि मुझमें नृत्य प्रदर्शन की प्रवृति विद्यमान है। मनुष्य की प्रकृति भी कितनी विचित्र है कि वह जानती ही नहीं कि उसके अवचेतन में कैसे गुण सुप्त हैं। मैंने शीघ्र ही शास्त्रीय नृत्यों में दक्षता प्राप्त कर ली। वीणा वादन में तो मेरी उंगलियां ऐसी चपल थीं, मानो वे इसी कार्य के लिए निर्मित हुई हों। जीवन में कितना ज्ञान बिखरा होता है – जब तक हम नहीं जानते, अपने सीमित विश्व में संतुष्ट रहते हैं – ज्ञान असंतुष्टि देता है – और-और सीखने की लालसा विश्वसुन्दरी के विविधरूपी सौन्दर्य से परिचित कराती है, ब्रह्म प्राप्ति का भी माध्यम बनती हैं। नृत्य, गायन, वादन में मेरी प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही थी।

 

वह पूर्णिमा की रात थी। वातावरण समशीतोष्ण था। सुगन्धित पवन मंद गति से चल रहा था। पूर्ण विकसित चन्द्रमा में मुझे द्रौपदी की छवि दिखाई पड़ रही थी। लगभग पांच वर्ष बीत गए थे – उसको देखे हुए। जब-जब द्रौपदी की याद आती थी, स्वर्ग के सुख अपरिचित हो उठते थे। चन्द्रमा तो गंधमादन पर्वत पर भी उगा ही होगा। कृष्णा निश्चित रूप से उसे निहार रही होगी, मुझे स्मरण कर रही होगी। मैं उसके स्मृति सागर में डूबता जा रहा था कि घुंघरुओं की लयबद्ध संगीतमय ध्वनि ने मेरा ध्यान भंग किया। पीछे मुड़कर देखा – शृंगार के समस्त उपादानों से युक्त रहस्यमय स्मितबदन लिए खड़ी थी – उर्वशी।

मैंने उसके चरणों में प्रणाम कर गुरुजनोचित सत्कार करते हुए पूछा –

“देवि! अप्सराओं में तुम्हारा स्थान सबसे ऊंचा है। मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करता हूं। मैं तुम्हारा सेवक हूं, बताओ, मेरे लिए क्या आज्ञा है?”

मेरी बातें सुन उर्वशी अवाक रह गई – मानो घड़ों जल मस्तक पर गिर गया हो। शीघ्र ही स्वयं को व्यवस्थित कर बोली –

“अनघ! शत्रुदमन! चित्रसेन और तुम्हारे पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर, तुम्हारी सेवा में उपस्थित हुई हूं। तुम्हारे पुरुषत्व, सौन्दर्य और देवदुर्लभ गुणों ने मुझे तुम्हारे प्रति आसक्त कर दिया है। मैं कामदेव के वश में हो गई हूं। मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार करो।”

उर्वशी की बात सुन मैं लज्जा से गड़ गया। देवराज इन्द्र मेरे पिता थे और वह उनकी प्रेयसी। मैंने दोनों कानों में उंगलियां डाल दीं। विनयपूर्वक उससे कहा –

“सौभाग्यशालिनी! भाविनी! तुम जो कह रही हो, उसे सुनना भी मेरे लिए पाप है। मेरी दृष्टि में तुम गुरुपत्नी की तरह पूजनीया हो। मेरे समक्ष जो स्थान महाभागा कुन्ती और इन्द्राणी शची का है, वही तुम्हारा भी है।”

उर्वशी ने भांति-भांति के तर्क और भावभंगिमाओं से मुझे अपने प्रति अनुरक्त करने के प्रयास किए लेकिन मैं अटल रहा। मैं उसे माता कहकर संबोधित करता रहा। उर्वशी क्रोध से व्याकुल हो उठी। उसका शरीर कांपने लगा और भौंहें वक्र हो गईं। मुझे धिक्कारते हुए शाप दिया –

“तुमने एक स्त्री के सच्चे आमंत्रण को ठुकराया है। कामबाण से आहत अप्सरा का अपमान किया है। स्वर्ग के नियमों के अनुसार यह अपराध है जिसके लिए तुम्हें दण्ड भुगतना होगा – तुम एक वर्ष तक पुरुषत्व से वंचित रहोगे, स्त्रियों के बीच सम्मानरहित होकर नर्तक का काम करना होगा तुम्हें, तुम्हारा आचार-व्यवहार नपुंसक जैसा होगा।”

मैंने सिर झुकाकर उसका शाप स्वीकार किया। स्वर्ग में मुझे भांति-भांति की सिद्धियां, सुख और दिव्यास्त्र प्राप्त हुए थे। अब शायद शाप की बारी थी। संघर्ष पथ पर जो मिला – यह भी सही, वह भी सही।

मैंने चित्रसेन गंधर्व और देवराज इन्द्र को घटना निवेदित की। देवराज ने सांत्वना दी –

“तात! तुम सत्पुरुषों के शिरोमणि हो। तुम जैसे श्रेष्ठ पुत्र को पाकर कुन्ती निश्चित रूप से धन्य हो रही होगी। तुमने अपने इन्द्रिय संयम द्वारा ऋषियों को भी पराजित कर दिया है। हे जितेन्द्रिय! उर्वशी ने तुम्हें जो शाप दिया है, वह तुम्हारे अभीष्ट कार्य में साधक होगा। तुम्हें भूतल पर तेरहवें वर्ष अज्ञातवास करना है। वीर शिरोमणि! यह शाप तुम उसी वर्ष में पूर्ण करोगे। नर्तक वेश और नपुंसक भाव से एक वर्ष तक इच्छानुसार विचरण करने के उपरान्त, तुम फिर अपना पुरुषत्व प्राप्त कर लोगे।”

स्वर्ग में पांच वर्ष कैसे व्यतीत हो गए, इस अवधि का ज्ञान ही नहीं हुआ। मुझे अपने भ्राताओं, द्रौपदी और श्रीकृष्ण की स्मृति विद्ध कर रही थी। मनुष्य को सुखासन भी तब मोहता है जब वह बन्धु-बान्धवों के निकट हो। मैंने देवराज इन्द्र से भ्राताओं के पास लौटने का आग्रह किया। उन्होंने मेरे आग्रह का समर्थन करते हुए अर्थपूर्ण वाणी में कहा –

“वत्स! अब तुम्हें युद्ध में देवता भी परास्त नहीं कर सकते, फिर मर्त्यलोक में निवास करने वाले मनुष्यों की तो बात ही क्या है? तुम युद्ध में अतुलनीय, अजेय और अनुपम सिद्ध होवोगे। तुम सर्वदा सावधान रहते हो, व्यवहार कुशल हो, जितेन्द्रिय हो, ब्राह्मणसेवी हो शूरवीर हो। तुमने मुझसे पन्द्रह अस्त्र प्राप्त किए हैं। तुम इनका प्रयोग, उपसंहार, आवृति, प्रायश्चित और प्रतिघात – इन पांच विधियों को अच्छी तरह जानते हो। हे शत्रुदमन! अब गुरुदक्षिणा देने का समय आ गया है। भूतल पर लौटने के पूर्व, तुमसे गुरुदक्षिणा अभीष्ट है। निवातकवच दानव मेरे शत्रु हैं। उनकी संख्या तीन करोड़ है। वे समुद्र के भीतर दुर्गम स्थान में रहते हैं। मैंने कई आक्रमण किए लेकिन उनको पराजित नहीं कर सका। तुम अनेक दिव्यास्त्रों से संपन्न हो और इस कार्य को करने में पूर्ण समर्थ भी हो। तुम मेरी आज्ञा से उनका विनाश कर डालो। यही मेरी गुरुदक्षिणा है।”

क्रमशः

 

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