औल
कल मेरी
औल
कट जायेगी
इतने बरसों बाद।
जब मिट्टी
से टूटता
है कोई
तो औल
कटती है
बार बार।
कल मै बनूँगी
नागरिक
इस देश की
जिस को
पाया मैने
सायास
पर खोया है
सब कुछ आज
अनायास़।
कल मेरी
औल कटेगी
भटकन
इतना
मायावी
तांत्रिक जाल
इतना भक भक
उजाला
इतना भास्कर
देय तेज
इतनी भयावह
हरियाली
इतना ताम – झाम
इतने मुहँ बाये
खडे सगे संबधी
पहले से ही
तय रास्ते
पगडडियां
और छोड देता
है वह नियन्ता
हमें सूरदास
की तरह
राह टटोलने।
भय
अक्सर
जिंदगी में
कट पिट
कर
छिटपुट
खुशियां आती हैं
जो किसी उम्र के
छोर पर
हमारा तन मन
हुलसा देती हैं ।
पर उम्र भर
उन को
न पा सकने का
भय
या पाकर खो जाने
का डर
पा लेने के
सुख से
ज्यादा डस लेता है ।
बर्फ
बर्फ पर बर्फ़
कोहरे पर कोहरा
जमता ही जाता है
यहॉ धूप के लिए
दरीचो़ं के बीच भी
कहीं सुराख नही है।
जब अपने ही ताप से
सन्तप्त हो
यह कोहरा पिघलेगा
तो अपने आस पास
कितनी दरारें
कितने खङङे खोद देगा
जो कभी भरने का
नाम नही लेगे ।
यह हृदय म्युनिसिपैलिटी की
सङ़क नही कि
मौसम के बाद
अपने डैटूयूर के
बोड लगा कर
सङ़कों के
पैबंद भर देगी ।
यहॉ तो लगी हुई
एक भी खरोंच
उम भर का दर्द
उम भर की सीलन
बन कर
अन्दर ही अन्दर
खा जायेगी ।
धीरे धीरे
धीरे धीरे
घर करती
जाती हैं
सम्पदायें
पौर पौर
रग रग और
स्पन्दन में भी़।
भूल जाता है
रिश्ते आदमी
नही रह पाता
वह अपनी
मां की कांख से
बंधा शिशु
बालक होने के
बाद़।
– सुर्दशन ‘प्रियदर्शिनी’