ये न्याय नही निर्णय है

arushi justiceआरूषि-प्रकरण में न्यायालय ने आरूषि और नौकर हेमराज की हत्या के आरोप में तलवार दंपत्ति को दोषसिद्घ करार देते हुए आजन्म कारावास का दण्ड है। तलवार-दंपत्ति ने न्यायालय के इस निर्णय को चुनौती देने की घोषणा करते हुए कहा है कि वह दिये गये निर्णय से न्याय से वंचित किये गये हैं, इसलिए सक्षम न्यायालय में चुनौती देंगे।

माननीय न्यायालय ने जो भी निर्णय दिया है, उसके प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए और न्यायालय की गरिमा का पूरा ध्यान रखते हुए दिये गये निर्णय पर ‘मंथन’ किया जाना आवश्यक है कि दिया गया निर्णय न्याय की श्रेणी में भी आता है कि नही? वास्तव में न्याय करना और निर्णय करना दोनों अलग-अलग हैं। न्याय में तो निर्णय भी समाहित होता है, पर आवश्यक नही कि निर्णय में न्याय भी समाहित हो। निर्णय तो किसी भी समस्या, वाद या परिस्थिति के अवलोकन के उपरांत व्यक्ति के मन में उपजी धारणा या मानसिक अवस्था से उदभूत होता है, पर न्याय के लिए ऐसा नही कहा जा सकता। निर्णय एक पक्षीय भी हो सकता है, एकांगी भी हो सकता है, पूर्वाग्रहग्रस्त भी हो सकता है और न्यायाधीश की बौद्घिक प्रतिभा से प्रभावित हो सकता है, परंतु न्याय कभी एकपक्षीय नही होता, एकांगी या पूर्वाग्रह ग्रस्त नही होता है। क्योंकि वह न्यायाधीश की बौद्घिक प्रतिभा से नही अपितु विवेकशक्ति से प्रभावित होता है।

प्रत्येक वाद में सामान्यत: दो या दो से अधिक पक्ष अपने-अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं। एक सामान्यत बुद्घि के व्यक्ति के लिए ये दो या दो से अधिक पक्ष केवल व्यक्ति विशेष या राज्य होते हैं। अंग्रेजी शासन काल में हमें ये ही पक्षकार बताये गये थे। अंग्रेजों ने दो पक्ष (वादी-प्रतिवादी) के साथ राज्य को भी कई विषयों में अनिवार्यत: जोड़ा। कुछ विषय तो इनमें ऐसे हैं, जिनमें राज्य हमारे पक्ष में खड़ा दिखायी देता है, जबकि कुछ ऐसे हैं, जिनमें राज्य केवल अंग्रेजी शासन व्यवस्था का पक्ष लेता प्रतीत होता था। राज्य का उद्देश्य कहीं भारतीय समाज की मान मर्यादा का अथवा भारतीय धर्म का सम्मान करना प्रतीत नही होता। हमारे यहां प्राचीन काल में प्रचलित रही न्यायप्रणाली में दो या दो से अधिक पक्षकारों में एक समाज और दूसरा धर्म भी निहित या समाहित होते थे। इन पर सूचना दी नही जाती थी, अपितु इनसे सूचना (दिशा-दर्शन) ली जाती थी। न्यायाधीश समाज और धर्म की मान मर्यादा का, समाज के नैतिक नियमों और नैतिक व्यवस्था का रक्षक होता था। इसलिए न्याय करते समय न्यायाधीश का हर संभव प्रयास होता था कि मेरे द्वारा दिये गये दण्ड से समाज और धर्म के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव नही पड़ना चाहिए। वह प्रयास करता था कि दिये गये न्याय से समाज और धर्म की व्यवस्था अथवा उनकी मान्य नैतिक परंपराएं बलशाली हों, कहीं ऐसा ना हो कि दिये गये निर्णय से समाज और धर्म की मान्य नैतिक परंपराएं छिन्न भिन्न हो जायें।

हमारे यहां न्यायाधीश के न्यायालय को विदथ कहा जाता था, विदथ का अभिप्राय सत्य को जानना या सत्यान्वेषण करना है, पूर्ण विवेकशीलता से दिये गये न्याय से है। अत: न्यायाधीश न्याय करते समय स्वयं को सत्यान्वेषी ही सिद्घ करता था। इसीलिए वह कहीं कहीं अग्निदेव के नाम से भी पुकारा गया है। अग्नि का धर्म है मर्यादा का उल्लंघन करने वाले को जला डालना, प्रकाश देना और जहां अंधकार है-अन्याय का, वहां न्याय का उजाला फेेलाना। यज्ञ करने वाले के भी हाथ जल जाते हैं, यदि वह अपने मर्यादा पथ का उल्लंघन करता है। अग्नि मर्यादा का पाठ पढ़ाती है, इसलिए पूजनीय है। न्यायाधीश मर्यादाओं की स्थापना कराते हैं-इसलिए अग्निदेव कहे जाते थे। हमारी न्याय की देवी सूर्य से भी अधिक तेजोमयी है, उसकी आंखों पर पट्टी नही बंधी है, अपितु उसके तेज को देखकर पापी अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेते थे। न्यायालय होता भी वही है, जिसके नाम स्मरण मात्र से ही पापी को पसीना आने लगे। यदि आंखों पर पट्टी बांधे न्याय की देवी खड़ी दीखेगी तो अपराधी स्वयं को अपराध मुक्त कराने के लिए उसके सामने खड़े होकर निस्संकोच तर्क वितर्क करेगा और स्वयं को बचा लाने में सफल हो जाएगा।

हर वाद या केस की भांति आरूषि हेमराज हत्याकाण्ड में भी ‘दंपत्ति तलवार’ ही पक्षकार नही थे, अपितु इसमें समाज भी पक्षकार रहा है, और धर्म भी पक्षकार रहा है। समाज दो प्रकार से पक्षकार है, एक तो समाज की मर्यादाएं टूटीं इसलिए, और दूसरे वह टूटी मर्यादाओं को जोड़ने की कामना रखता था इसलिए पक्षकार था। आरूषि-हेमराज के विषय में न्यायालय ने स्वीकार किया है कि उनके कृत्य उचित नही थे। वह आपत्तिजनक अवस्था में तलवार दंपत्ति द्वारा देखे गये। यह आपत्तिजनक अवस्था समाज की टूटी हुई मर्यादा की ओर संकेत करती है, जिस पर समाज न्यायालय से न्याय चाहता था, जो उसे मिला नही। समाज की मर्यादा नही कहती कि बेटी को मां-बाप किसी नौकर के कमरे में इसलिए सोने दें कि इससे उनकी कामलिप्सा में कोई व्यवधान नही होगा। समाज कहता है कि स्वयं पर नियंत्रण करो, तब संतान सुयोग्य बनेगी। पूरे निर्णय में समाज अपने लिए ‘न्याय’ ढूंढ़ता रह गया। कहीं भी ये नही स्पष्टï किया गया कि समाज की मर्यादाएं और धर्म की नैतिक व्यवस्था कैसे स्थापित रह सकती है?ï यद्यपि निर्णय में गीता, बाइबिल और कुरान के उद्घरण दिये गये हैँ, परंतु भारत की प्राचीन सामाजिक और न्यायव्यवस्था का कोई उद्घरण नही दिया गया, जिसमें बच्चों के निर्माण में माता-पिता के दायित्व और बच्चों का केवल अपने जीवन निर्माण के प्रति समर्पण प्रमुखता से निहित होता था। इस निर्णय के पश्चात ऐसी घटनाएं और बढ़ेंगी, जिसका कारण होगा बच्चों को अपनी जीवनी शक्ति (वीर्य) के संचय के प्रति जागरूक न करना। जब तक इस शक्ति को समय आने पर यूं ही बहाने की बातें की जाती रहेंगी और बालिग के नाम पर यौन अपराध किये जाने को प्रोत्साहन दिया जाता रहेगा तब तक नारी रक्षा नही हो सकेगी और हम कितनी ही आरूषियों को यूं ही मरते देखेंगे। महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं को प्रयास करना चाहिए कि समाज और धर्म जैसी संस्थाओं को प्रबल बनाया जाए। इनके प्रबल और सक्षम होते ही देश में बन रहे अल्पसंख्यक आयोग, महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग आदि स्वयं ही समाप्त हो जाएंगे।

वेद एक नैतिक व्यवस्था का नाम है। उसे ही धर्म की व्यवस्था भी कहा जाता है। जिन लोगों को वेद के नाम से चिढ़ है वो समाज में नैतिक व्यवस्था को लागू कराने हेतु किसी भी प्रकार से एक ऐसी सर्वस्वीकृत नैतिक व्यवस्था स्थापित करायें जो बच्चों को नैतिकता और आध्यात्मिकता का पाठ पढ़ाये और वो अपने जीवन निर्माण पर अधिक ध्यान दें। इसके लिए उन्हें प्रेरित कर सकें।

वैदिक व्यवस्था में विवाह का उद्देश्य संतान प्राप्ति था। राम और सीता ने वन में रहते हुए 14 वर्ष तक पूर्ण संयमित जीवन यापन किया। मैथिलशरण गुप्त ने चाहे भले ही उर्मिला (लक्ष्मण की पत्नी) के विरह का वर्णन कर उसे सीता से भी उच्च मान लिया हो, लेकिन सच ये ही है कि राम और सीता का जीवन ही आदर्श था, जो साथ रहकर भी आदर्श जीवन जीते रहे। कृष्ण जी की विवाह के समय आयु 36 वर्ष थी तो 48 वर्ष के आदित्य ब्रह्मïचारी बनकर तब संतानोत्पत्ति की। वाचस्पति मिश्र जैसे आदर्श गृहस्थी भी इस देश में अनेकों हुए हैं। जिन्होंने जीवन भर पत्नी के साथ रहकर भी संतानोत्पत्ति हेतु भी समागम नही किया। हमारा समाज जनहित में इन आदर्श स्थितियों को स्थापित रखने हेतु सजग रहता था। समाज मर्यादाओं का रक्षक था। मर्यादा का उल्लंघन शांतनु ने सत्यवती से विवाह करके किया तो महाभारत का भयंकर युद्घ हुआ। पृथ्वीराज चौहान जीवन में केवल रूपसियों के लिए लड़ता रहा तो भारत का बहुत अहित हुआ। मुहम्मदशाह रंगीला रंगरलियों में फंसा रहा तो हिंदुस्तान को बेच गया। शिवाजी जैसे चरित्रवान शासक का पुत्र शम्भा जी चरित्रहीन हो गया तो पिता की विरासत की सुरक्षा नही कर पाया।

आज हम उच्छ्रंखल, कामवासनाओं में संलिप्त और दिशाविहीन युवा का निर्माण करते जा रहे हैं। समाज को युवा के विकास में बाधक माना जा रहा है। उसे खुली छूट दी जा रही है, कि वह जैसे चाहे वैसे रहे। इसलिए युवा बड़ी सहजता से सामाजिक मान्यताओं को तोड़ रहा है। हम शांतनु, पृथ्वीराज चौहान, मौहम्मद शाह, रंगीला और शम्भाजी से कुछ सीख नही पाए हैं। इसलिए चारों ओर कामवासनाओं का बाजार गर्म है। शांतनु आदि भी निकृष्टï रूप में हमें समाज में कितने ही भेड़िए घूमते दिखाई देते हैं।

इस स्वच्छंदता के नाम पर क्या आरूषि-हेमराज को क्षमा किया जा सकता है? नही और कदापि नही। इसलिए उनके लिए उनके अनैतिक कार्य की सजा क्या होनी चाहिए थी, यह भी इसी निर्णय में आना चाहिए था। क्योंकि विदथ (न्यायालय) का कार्य नैतिकता की रक्षा और नैतिकता की स्थापनार्थ न्याय देना है। न्याय कई तहों में छिपा होता है, उसे ढूंढना पड़ता है, उस तक पहुंचने के लिए कई आयाम तय करने पड़ते हैं। जबकि निर्णय तक तो एक साधारण बुद्घि का व्यक्ति भी सहजता से पहुंच जाता है। यदि तलवार दंपत्ति ने अपनी बेटी और नौकर को आपत्तिजनक स्थिति में देखा तो उस समय उनकी मानसिक अवस्था कैसी रही होगी? इस पर भी विचार करना आवश्यक है। इस हेतु सारा समाज न्यायाभिलाषी है। हमने शांतनु आदि से शिक्षा नही ली अपितु उन्हीं का अनुकरण करने लग गये। इसलिए समाज की मर्यादाओं को तोड़ना आरंभ कर दिया। गिरते गिरते हम ‘लिव इन रिलेशनशिप’ तक आ गये। अब न्यायालय का निर्णय आ गया है कि ‘लिव इन’ की स्थिति गलत नही है। सरकार ऐसे मिलन से उत्पन्न बच्चों की देखभाल के लिए कानून बनाये। बहुत सी विसंगतियों का परिणाम तो ‘लिव इन’ है और उस महाविसंगति से उत्पन्न बच्चों की देखभाल के लिए विसंगतियों से पूर्ण कानून का निर्देश न्यायालय सरकारों को दे रहे हैं, परिणाम क्या होगा? उस विसंगति से समाज में विवाह जैसी संस्था की अनिवार्यता और मर्यादा भंग होगी। सारे संबंध अपवित्र होंगे-पशुओं से भी गिरी हुई अवस्था को भी क्या ‘न्याय’ कहा जाएगा?

जहां आप पहुंचना नही चाहते जो आपका गंतव्य नही है या जिस अवस्था को आप अपने लिए उचित नही मानते यदि वही अवस्था पुन: आपके सामने लायी जाए तो उसे आप निर्णय तो कह सकते हैं, न्याय नहीं? हत्याओं को रोकने के लिए फांसी एक उपचार है। हत्यारा यदि बार-बार उस अपराध को कर रहा है तो इस विकल्प को न्यायालय सहजता से अपनाते हैं। इसी प्रकार अवैध संबंधों के लिए स्त्री पुरूष दोनों ही दोषी होते हैं। तब उनके लिए भी कड़ा दण्ड निश्चित किया जाना अपेक्षित है।

जो समाज पर थोपा जाए वह निर्णय होता है, आदेश होता है। परंतु जो समाज की विसंगतियों को वैसे ही साफ करे जैसे तेज अंधड़ कस्बों की गलियों की गंदी हवा को बाहर निकालकर वहां ताजा हवा भर देता है वह न्याय होता है। न्याय में थोड़ा कष्टï तो होता है पर वह रोगी के लिए होता है लाभप्रद। क्या हमें आरूषि प्रकरण में ऐसे ही न्याय की अपेक्षा नही थी?

Previous articleआम आदमी पार्टी और गठबंधन सरकार
Next articleन्याय की कसौटी पर आपराधिक जांचें
राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

7 COMMENTS

  1. नमस्कार,

    आपके लेख में कही गयी कुछ बातें कुछ हद तक सही लगी … पर न्यायालय पर प्रतिक्रिया देना मैं अपना अधिकार क्षेत्र नहीं समझता…. हाँ यह ज़रूर कहूंगा कि .. क्या अगर कोई अपने किसी कि हत्या होते देख ले तब भी वो आवेश में नहीं आएगा… या उसकी मानसिक दशा क्या होगी यह भी न्यायालयों को अपना निर्णय देते हुए देखना होगा… फिर तो सभी निर्णय किसी न किसी बात से प्रभावित होंगे… और तकनिकी रूप से गलत होंगे… .. क्या संजय को पेरोल पर दो बार छोड़ना भी उचित है?

    • आर.त्यागी जी नमस्कार,
      माननीय न्यायालय के सम्मान का ध्यान तो हमको रखना ही चाहिए लेख में न्यायप्रणाली और विधिक व्यवस्था पर चिंतन करने का प्रयास किया गया है , जो आज तक भारतीय संस्कृति,धर्म ,समाज को समझ नही पायी हैं इसलिए हम नयी नयी विषंगतियो के शिकार होते जा रहे हैं. आपकी प्रतिक्रिया में गम्भीरता है जो मेरे लेख की उन कमियों की ओर संकेत करती है जो लेख में और स्पष्ट होनी चाहिए थी .में मानता हूँ कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नही हो सकता इसी प्रकार कोई भी लेख एक ही बार में सारी किन्तु-परंतुओं का समाधान नही दे सकता .हाँ,हम किसी चर्चा का सुभारम्भ अवश्य कर सकते है चर्चा बिना किसी पूर्वाग्रह के बिना होनी चाहिए.यही हमारी शाश्त्रार्थ परंपरा है .हमे बीते हुए कल की हर बात की इसलिए नही छोड़ देना चाहिए कि ये तो कल की बात है वर्त्तमान में जीना अच्छी बात है परन्तु जब वर्त्तमान में चारो ओर जब विषंगतिया झांक रही हो तो चिंतन आवयश्यक हो जाता है और तब कई बार बीता हुआ कल भी आज को सुधरने में सहायक हो जाया करता हैं.
      आपकी गम्भीर टिपण्णी के लिए हार्दिक धन्यवाद .

  2. राकेश जी, आलेख गहरा है और तार्किक रूप से विकसित है. न्याय, सामाजिक सम्बन्धों के ऐतिहासिक परिपेक्ष्य को भी तलाशता है. पर मेरी समझ में आपने अपने मत को स्पष्ट रूप से सामने नहीं रखा उसका संकेत भर दिया है. लेख में और प्रभाव पैदा होता अगर आप ऐसा करते .
    शुभकामनाएं
    ललित मोहन जोशी, लंदन

    • आदरणीय जोशी जी,
      नमस्कार
      न्याय का अर्थ सामाजिक मूल्यों की सुरक्षा करना है। हमारे सामाजिक मूल्य पत्नी से अलग प्रत्येक नारी में मां, बहन या पुत्री का स्वरूप देखने जैसी पवित्रता में है। हम नारी को ‘मैडम’ नही मानते, अपितु उपरोक्त स्वरूपों में उसकी पूजा करते हैं। इसीलिए देहात में आज तक भी लड़की को यदि किसी व्यक्ति का भूल से भी पैर लग जाए, तो लोग उस कन्या के प्रायश्चित स्वरूप पैर छूते हैं। कन्याओं को हर समारोह में प्रथम पंक्ति में भोजन कराना और उन्हें कुछ न कुछ दान देना शुभ माना जाता है। बहुत से पर्व हमारे ऐसे हैं जिन पर कन्याओं को भोजन कराना (जिमाना) पुण्यदायी माना जाता है। आज भी समाज में ऐसे ही भले लोगों की संख्या अधिक है, जो नारी के प्रति ऐसा भाव रखते हैं। दुख की बात ये है कि हम इन भले लोगों की और अपने इस सामाजिक मूल्य की अधिक चर्चा नही करते। चर्चा होती है ‘दामिनी’ के साथ ‘पाप’ करने वालों की इसलिए सारा समाज पापमय ही लगता है। अधिकांश ग्रामीण भारत अभी भी अच्छे भावों से भरा पड़ा है।
      आरूषि प्रकरण में समाज के उस मूल्य की रक्षा करना न्याय का उद्देश्य था, जिसमें हेमराज ने मर्यादा तोड़ी और यदि यह सत्य था कि हेमराज और आरूषि आपत्तिजनक अवस्था में थे तो हमारे बच्चे छोटी अवस्था में ये सब क्यों करने लगे हैं? इस पर समाज को कोई ऐसी दिशा मिलनी चाहिए थी कि जिससे बच्चे सुसंस्कारी बनें। आरूषि की भूल के मूल में समाज की वह विसंगति है, जो माता-पिता ने अलग सोने के रूप में विकसित की है। बड़े बच्चे सब समझते हैं, और समझदार बच्चों को माता-पिता अलग अलग साथ लेकर सोयें तो उनके कोमल मन मस्तिष्क में ऐसा विकार घुसना कठिन हो जाएगा कि वे कच्ची उम्र में किसी कुसंगति का शिकार हो जायें। इसके दृष्टिïगत तलवार दंपत्ति का भी दोष रहा कि उन्होंने अपने बच्चे के साथ एक अनजान व्यक्ति को सोने का अवसर दिया। फलस्वरूप नौकर-आरूषि-तलवार दंपत्ति सभी अपने अपने सामाजिक मूल्य की रक्षा करने में असफल रहे। तलवार दंपत्ति ने यदि यह अपराध किया भी होगा तो मैं उनको दी गयी सजा को अनुपात से अधिक मानता हूं। निश्चित ही अपने बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार करके उनकी आत्मा चीख पड़ी होगी और उन्होंने प्रायश्चित भी बहुत किया होगा। अत: दण्ड उन्हें काफी मिल चुका।
      हमें इस निर्णय से भविष्य को देखना होगा। समाज हमारे लिए एक आफत नही है, बल्कि समाज एक व्यवस्था है और उस व्यवस्था में आये दोषों की समीक्षा करते करते भी हमें व्यवस्था की पवित्रता को बनाये रखने के प्रति गंभीर होना पड़ेगा।
      समाज की व्यवस्था को तार-तार करके पश्चिम ने देख लिया है कि उसकी परिणति क्या होती है? हम अपने यहां ऐसा न होने दें। हर बेटी की गरिमा कायम रहे इसके लिए आवश्यक होगा कि समाज के कुछ नियमों में आयी ढील को कड़ा किया जाए। परंतु इसका अभिप्राय किसी की स्वतंत्रता का हनन नही है, अपितु स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए स्वच्छन्दता पर रोक लगाने से है। मर्यादा पुरूष समाज की भी है और नारी की भी है और यह भी सच है कि उन मर्यादाओं की रक्षा के लिए ही मनुष्य ने नारी से अधिक स्वयं को प्रतिबंधित किया है। नारी के साथ सदा कोई पुरूष रहने के पीछे भी आशय यही है कि यदि कोई पुरूष साथ रहेगा तो मनुष्य का भेडिय़ापन नही जागेगा। वह नारी पर प्रतिबंध नही है अपितु नारी की पवित्रता को कायम रखने के लिए पुरूष वर्ग पर प्रतिबंध है।
      इतिहास के परिप्रेक्ष में हमें इन सम्बन्धो की गम्भीरता को देखना होगा और भारत की प्राचीन संस्कृति को समझना होगा.आपने मार्गदर्शन करते हुए प्रतिक्रिया दी है इसके लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.सादर

    • आदरणीय जोशी जी,
      नमस्कार
      न्याय का अर्थ सामाजिक मूल्यों की सुरक्षा करना है। हमारे सामाजिक मूल्य पत्नी से अलग प्रत्येक नारी में मां, बहन या पुत्री का स्वरूप देखने जैसी पवित्रता में है। हम नारी को ‘मैडम’ नही मानते, अपितु उपरोक्त स्वरूपों में उसकी पूजा करते हैं। इसीलिए देहात में आज तक भी लड़की को यदि किसी व्यक्ति का भूल से भी पैर लग जाए, तो लोग उस कन्या के प्रायश्चित स्वरूप पैर छूते हैं। कन्याओं को हर समारोह में प्रथम पंक्ति में भोजन कराना और उन्हें कुछ न कुछ दान देना शुभ माना जाता है। बहुत से पर्व हमारे ऐसे हैं जिन पर कन्याओं को भोजन कराना (जिमाना) पुण्यदायी माना जाता है। आज भी समाज में ऐसे ही भले लोगों की संख्या अधिक है, जो नारी के प्रति ऐसा भाव रखते हैं। दुख की बात ये है कि हम इन भले लोगों की और अपने इस सामाजिक मूल्य की अधिक चर्चा नही करते। चर्चा होती है ‘दामिनी’ के साथ ‘पाप’ करने वालों की इसलिए सारा समाज पापमय ही लगता है। अधिकांश ग्रामीण भारत अभी भी अच्छे भावों से भरा पड़ा है।
      आरूषि प्रकरण में समाज के उस मूल्य की रक्षा करना न्याय का उद्देश्य था, जिसमें हेमराज ने मर्यादा तोड़ी और यदि यह सत्य था कि हेमराज और आरूषि आपत्तिजनक अवस्था में थे तो हमारे बच्चे छोटी अवस्था में ये सब क्यों करने लगे हैं? इस पर समाज को कोई ऐसी दिशा मिलनी चाहिए थी कि जिससे बच्चे सुसंस्कारी बनें। आरूषि जैसे अच्छे बच्चे की भूल के मूल में समाज की वह विसंगति है, जो माता-पिता ने अलग सोने के रूप में विकसित की है। बड़े बच्चे सब समझते हैं, और समझदार बच्चों को माता-पिता अलग अलग साथ लेकर सोयें तो उनके कोमल मन मस्तिष्क में ऐसा विकार घुसना कठिन हो जाएगा कि वे कच्ची उम्र में किसी कुसंगति का शिकार हो जायें। इसके दृष्टिïगत तलवार दंपत्ति का भी दोष रहा कि उन्होंने अपने बच्चे के साथ एक अनजान व्यक्ति को सोने का अवसर दिया। फलस्वरूप नौकर-आरूषि-तलवार दंपत्ति सभी अपने अपने सामाजिक मूल्य की रक्षा करने में असफल रहे। तलवार दंपत्ति ने यदि यह अपराध किया भी होगा तो मैं उनको दी गयी सजा को अनुपात से अधिक मानता हूं। निश्चित ही अपने बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार करके उनकी आत्मा चीख पड़ी होगी और उन्होंने प्रायश्चित भी बहुत किया होगा। अत: दण्ड उन्हें काफी मिल चुका।
      हमें इस निर्णय से भविष्य को देखना होगा। समाज हमारे लिए एक आफत नही है, बल्कि समाज एक व्यवस्था है और उस व्यवस्था में आये दोषों की समीक्षा करते करते भी हमें व्यवस्था की पवित्रता को बनाये रखने के प्रति गंभीर होना पड़ेगा।
      समाज की व्यवस्था को तार-तार करके पश्चिम ने देख लिया है कि उसकी परिणति क्या होती है? हम अपने यहां ऐसा न होने दें। हर बेटी की गरिमा कायम रहे इसके लिए आवश्यक होगा कि समाज के कुछ नियमों में आयी ढील को कड़ा किया जाए। परंतु इसका अभिप्राय किसी की स्वतंत्रता का हनन नही है, अपितु स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए स्वच्छन्दता पर रोक लगाने से है। मर्यादा पुरूष समाज की भी है और नारी की भी है और यह भी सच है कि उन मर्यादाओं की रक्षा के लिए ही मनुष्य ने नारी से अधिक स्वयं को प्रतिबंधित किया है। नारी के साथ सदा कोई पुरूष रहने के पीछे भी आशय यही है कि यदि कोई पुरूष साथ रहेगा तो मनुष्य का भेडिय़ापन नही जागेगा। वह नारी पर प्रतिबंध नही है अपितु नारी की पवित्रता को कायम रखने के लिए पुरूष वर्ग पर प्रतिबंध है।
      इतिहास के परिप्रेक्ष में हमें इन सम्बन्धो की गम्भीरता को देखना होगा और भारत की प्राचीन संस्कृति को समझना होगा.आपने मार्गदर्शन करते हुए प्रतिक्रिया दी है इसके लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.सादर

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here