व्यंग्य बाण : वर्षा प्रचार एवं सर्वेक्षण संस्थान

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विजय कुमार

images (1)पिछले कई महीने से शर्मा जी कष्ट में हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें ? नौकरी करते हुए तो पूरा दिन कार्यालय में फोकट की चाय पीते, मेज के ऊपर और नीचे से कुछ लेते-देते तथा फाइलों को दायें-बायें करते बीत जाता था; पर अवकाश प्राप्ति के बाद से वे परेशान हैं। घर पर रहें, तो पत्नी डांटती है। मित्रों के पास अधिक बैठें, तो वे भी कन्नी काटने लगते हैं। एक बार दिन भर पार्क में बैठे रहे, तो चैकीदार और माली ने भगा दिया। बेचारे शर्मा जी…।

लेकिन पिछले दिनों चुनावी सर्वेक्षणों पर हुए विवाद ने उनके दिमाग की बत्ती जला दी। वे समझ गये कि सरकारी कामों की तरह यहां भी हेरफेर की काफी गुंजाइश है। इसलिए वे इस बारे में अध्ययन करने लगे। इससे उनके ध्यान में आया कि चुनाव के समय प्रायः सभी नेता और राजनीतिक दल सर्वेक्षण कराते हैं। कभी चुनाव घोषित होने से पहले, तो कभी चुनाव घोषित होने के बाद। कभी अपनी जीत, तो कभी दूसरे की हार की संभावना जानने के लिए। कभी चुनावी मुद्दे तलाशने, तो कभी विरोधी के मुद्दे उजाड़ने के लिए। कभी अपनी हवा बनाने, तो कभी दूसरे की हवा बिगाड़ने के लिए। सर्वेक्षण न हुआ ‘हर मर्ज में अमलतास’ की तरह एक ‘रामबाण दवा’ हो गयी।

शर्मा जी ने निश्चय कर लिया कि बस, अब यही काम करना है। कोई नया काम करने के लिए नाम भी धांसू और दमदार सा होना चाहिए। सो अगले ही दिन उन्होंने अपने घर के बाहर ‘वर्षा प्रचार एवं सर्वेक्षण संस्थान’ का बोर्ड लगा लिया।

जब कई दिन हो गये और वे सुबह पार्क में नहीं आये, तो सबको उनके स्वास्थ्य की चिन्ता हो गयी। वैसे भी बुजुर्गों में स्वास्थ्य खराबी की संभावना ही सबसे अधिक होती है। कुछ मित्र तो शोक सभा और श्रद्धांजलि पत्र तक की तैयारी करने लगे; पर इस जबानी जमा खर्च को छोड़कर मैं शाम को उनके घर जा पहुंचा।

शर्मा जी ने घर के बाहर वाले कमरे को ही अपने संस्थान का कार्यालय बना लिया था। बोर्ड पर ‘वर्षा’ नाम देखकर मैं चैंका। उनकी पत्नी, बेटी या बहू में से किसी का नाम वर्षा नहीं है। फिर यह नाम क्यों ? मैंने सोचा, किसी समय उनसे ही पूछ लूंगा।

मैंने देखा कि सामने दीवार पर राजनीतिक दलों के उतार-चढ़ाव प्रदर्शित करते हुए कई ग्राफ लगे थे। कुछ अखबारी कतरनें एक बोर्ड पर चिपकी थीं। गंभीर मुद्रा में बैठे शर्मा जी के सामने कई मोटी फाइलें और एक लेपटाॅप रखा था। कुल मिलाकर माहौल सचमुच किसी सर्वेक्षण संस्था जैसा ही था; पर मैं ठहरा पुराना खिलाड़ी। मैंने आंख के इशारे से इस तमाशे का कारण पूछा, तो वे बोले, ‘‘वर्मा जी, तुम तो जानते ही हो कि ये चुनाव के दिन हैं। कोई देशी और विदेशी चंदे से पेट भर रहा है, तो कोई पोस्टर और बैनर से। मैंने भी सोचा कि इस बहती गंगा में हाथ-मुंह धो लूं। बस इसीलिए…।’’

तभी एक ग्राहक महोदय आ गये। अतः शर्मा जी मुझे छोड़कर उनसे बात करने लगे।

ग्राहक – हम अपनी पार्टी के लिए सर्वेक्षण कराना चाहते हैं ?

शर्मा जी – जरूर कराइये। हम इसी सेवा के लिए तो यहां बैठे हैं।

ग्राहक – हमने कई लोगों से सर्वेक्षण कराये हैं; पर कोई हमें चौथे स्थान पर दिखा रहा है, तो कोई पांचवे पर। क्या कोई ऐसी विधि है, जिससे हम पहले या दूसरे स्थान पर दिखाई दें ?

शर्मा जी – आप चिन्ता न करें। सर्वेक्षण की ‘झूम पद्धति’ से हम दो और दो को चार भी कर सकते हैं और चौदह भी।

ग्राहक – इसका नाम तो मैं पहली बार सुन रहा हूं ?

शर्मा जी – जैसे शराबी झूमते हुए बार-बार नीचे गिरता है और कुछ देर बाद फिर उठकर चल देता है। ऐसे ही ‘झूम सर्वेक्षण’ में नेता और पार्टी का ग्राफ चार से चैदह के बीच झूमता रहता है।

ग्राहक – तो इसके लिए हमें क्या करना होगा ?

शर्मा जी – बस आप हमें खुश करें, तो हम आपको खुश कर देंगे। व्यापार का यही सिद्धांत है। आप चाहें, तो हम सर्वेक्षण का मीडिया में भरपूर प्रचार-प्रसार भी करा देंगे। हमारी पहुंच सब तरफ है।

उसके जाते ही दूसरे ग्राहक आ टपके।

ग्राहक – हम चाहते हैं कि सब और ‘राजुल बाबा’ के नाम का डंका बजता दिखाई दे।

शर्मा जी – हो जाएगा। इसके लिए हमें ‘पटाखा विधि’ से प्रचार करना होगा।

ग्राहक – पटाखा विधि… ?

शर्मा जी – जी हां। जैसे पटाखों की लड़ी में एक-दो पटाखे फुस्स भी हो जाएं, तो पता नहीं लगता। बस ये प्रचार भी ऐसा ही है।

ग्राहक – कुछ ऐसा भी कीजिये कि ‘नमो-नमो’ का शोर कम हो।

शर्मा जी – ये बहुत कठिन है। फिर भी हम ‘गोयबल्स सिद्धांत’ से इसकी कुछ काट कर सकते हैं।

ग्राहक – ये ‘गोयबल्स सिद्धांत’ क्या है ?

शर्मा जी – हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स का सिद्धांत था कि झूठ को इतनी बार, इतना बढ़ा-चढ़ाकर और इतनी जोर से बोलो कि सुनने वाला भ्रमित हो जाए। ऐसे प्रचार के हम विशेषज्ञ हैं। बस पैसा कुछ अधिक खर्च करना होगा।

ग्राहक – उसकी आप चिन्ता न करें। बस काम होना चाहिए।

मैं काफी देर वहां बैठा रहा। इस दौरान कई जाति और प्रजाति के ग्राहक आये। बात छौंकने में माहिर शर्मा जी ने सबको खुश करते हुए भरपूर दक्षिणा ली और जैसा माथा देखा, वैसा तिलक लगा दिया।

लेकिन अब जैसे-जैसे चुनाव परिणामों के दिन पास आ रहे हैं, शर्मा जी के दिल की धुक-धुक रेलगाड़ी की छुक-छुक जैसी तेज होती जा रही है। वे जानते हैं कि किसी न किसी दल के लोग या प्रत्याशी उन्हें जरूर पीटेंगे। इसलिए वे दो महीने के लिए बाहर जा रहे हैं। अब मुझे उनके संस्थान के नाम का रहस्य भी समझ में आ गया। जैसे वर्षा कब और कितनी होगी, इसकी भविष्यवाणी करना बहुत कठिन है। प्रायः मौसम विभाग जो बताता है, उसका उल्टा ही होता है। ऐसे ही शर्मा जी के संस्थान के परिणामों की भी कोई गारंटी नहीं है। सब कुछ भगवान और प्रत्याशी के भाग्य पर निर्भर है।

आपको भी यदि कोई प्रचार या सर्वेक्षण कराना हो, तो यह ‘वर्षा सिद्धांत’ पहले ही समझ लें। और हां, अब दो महीने बाद ही यहां आने की कृपा करें, धन्यवाद।

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