मंगलवार को समाप्त हुए बजट सत्र के बाद अब सरकार के लिए नए राष्ट्रपति का चुनाव कठिन परीक्षा के रूप में सामने आ रहा है जिसमें सरकार के उत्तरीर्ण होने की संभावनाएं आधी-आधी नज़र आती हैं| वह भी ऐसे वक्त में जब सभी राजनीतिक दल राष्ट्रपति चुनाव में प्रत्याशी चयन को लेकर अपनी ढपली-अपना राग की भाषा बोल रहे हैं| राष्ट्रीय दलों की तो बात ही छोडिये; क्षेत्रीय दलों के प्रमुख राष्ट्रपति पद हेतु उम्मीदवारों के नाम आगे कर उनके नाम पर सर्वसम्मति बनाने का प्रयास भी कर रहे हैं| कहीं दबाव की राजनीति तो कहीं जाति, धर्म, वर्ग, संप्रदाय के नाम पर राष्ट्रपति पद हेतु उम्मीदवार के नाम को समर्थन; दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद के चुनाव हेतु ऐसा तो कभी नहीं हुआ| कोई पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम के नाम को आगे कर रहा है ताकि अल्पसंख्यक हित सध सकें तो पीए संगमा ने बतौर आदिवासी नेता; आदिवासियों के हितों की बात कह स्वयं को राष्ट्रपति बनाए जाने की मार्मिक अपील की है| हालांकि जयललिता और बीजद के नवीन बाबू भी संगमा को राष्ट्रपति बनाए जाने के पक्ष में हैं किन्तु उन्हीं की पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने उनकी उम्मीदवारी को तवज्जो ही नहीं दी| फिर संगमा की राह में सबसे बड़ा रोड़ा कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी हैं जिनके विदेशी मूल मुद्दे को उठाकर संगमा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद से हमेशा का लिए दूर कर दिया था| वहीं मुलायम सिंह यादव ने संगमा के नाम का खुला समर्थन तो नहीं किया हाँ उन्होंने यह ज़रूर कहा है कि किसी नौकरशाह के लिए वे या उनकी पार्टी महामहिम का संबोधन नहीं करेगी| यानी एक तस्वीर तो साफ़ है कि नया राष्ट्रपति कोई राजनीतिक व्यक्ति ही होगा जिसे राजनीति की समझ होगी और उसके नाम पर सर्वसम्मति बनाने में सरकार को अधिक मशक्कत भी नहीं करनी होगी|
जहां तक राजनीतिक समीकरणों की बात है तो कांग्रेस उम्मीदवार को सहयोगी दलों की वजह से बल मिलता नज़र आ रहा है| दरअसल संप्रग सरकार के तीन वर्ष पूर्ण होने के जश्न में सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, राहुल गाँधी के साथ शरद पवार, मुलायम सिंह, लालू यादव और पासवान की मौजूदगी ने एक बात तो साफ़ कर दी है कि ममता के विरोधी रुख के बावजूद कांग्रेस प्रत्याशी की जीत लगभग तय है| फिलहाल यूपीए के पास राष्ट्रपति चुनाव के लिए जरूरी मतों का चालीस फीसदी हिस्सा है। मुलायम के छह फ़ीसदी और लालू, पासवान समेत बसपा भी साथ खड़ी रही तो उनके सात फीसदी वोट मिलाकर यूपीए को १३ फ़ीसदी वोट का समर्थन मिलेगा। इससे यूपीए के पास ५३ फीसदी मत हो जाएंगे जो उनके उम्मीदवार को राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाने हेतु काफी होंगे| जहां तक बात राष्ट्रपति पद हेतु उम्मीदवार चयन को लेकर अन्य दलों की पसंद-नापसंद की है तो भारतीय जनता पार्टी, वाम मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस इत्यादि तमाम दल चाहते हैं कि पहले सरकार अपने पत्ते खोले ताकि वे निर्णय ले सकें की सरकार की ओर से प्रस्तावित उम्मीदवार सर्वमान्य है या नहीं| यहाँ यह भी ध्यान देना होगा कि कांग्रेस तो जोड़-तोड़ कर अपने पक्ष के उम्मीदवार हेतु माहौल तैयार कर लेगी किन्तु बिखरे विपक्ष के लिए सामूहिक रूप से किसी उम्मीदवार के नाम का समर्थन दूर की कौड़ी लगता है|
देखा जाए तो वर्तमान में राजनीतिक आसमान में राष्ट्रपति पद हेतु दर्ज़न भर नाम तैर रहे हैं और सभी को किसी न किसी राजनीतिक दल का समर्थन भी प्राप्त है| ऐसे में सरकार की ओर से राष्ट्रपति पद हेतु उम्मीदवार की घोषणा जितनी देर से होगी प्रत्याशियों की संख्या उतनी ही बढ़ती जाएगी| तब जो असंशय की स्थिति पैदा होगी उससे देश को एक अक्षम और रबर स्टाम्प राष्ट्रपति मिलना तय है| खैर यह गुणा-भाग तो राजनीतिक दल ही जानें; देश की जनता तो बस इतना ही चाहती है कि देश का राष्ट्रपति कर्मठ, क्षमाशील, सरकार के बुरे कार्यों में उसे आइना दिखाने वाला तथा दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोच रखने वाला व्यक्ति हो न कि रबर स्टाम्प, सरकार की ढ़ाल बनकर उसे धकाने वाला तथा सरकार के प्रति कृतघ्न भाव लिए उसके प्रति समर्पित होता रहे| अगले हफ्ते तक संभवतः सरकार की ओर से राष्ट्रपति पद हेतु प्रत्याशी की घोषणा हो जाए पर राजनीतिक दलों को राष्ट्रपति पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए जोड़-तोड़ की राजनीति से बचना चाहिए वरना जो थोड़ी बहुत इज्ज़त वर्तमान में राष्ट्रपति पद की है वह भी जनता की नज़रों में उतर जाएगी|