राज-अमिताभ के पास आने के निहितार्थ

Raj Thakreamitabh-bachchan-सिद्धार्थ शंकर गौतम-

२३ दिसम्बर का दिन महाराष्ट्र की राजनीति और बॉलीवुड के लिए काफी अहम था| मौका था मुम्बई में माटुंगा स्थित षणमुखानंद हॉल में महाराष्ट्र नवनिर्माण चित्रपट कर्मचारी सेना (एमएनसीकेएस) की सातवीं सालगिरह का। महाराष्ट्र नवनिर्वाण सेना की फिल्म उद्योग शाखा ने इस अवसर पर १० वरिष्ठ कलाकारों को जीवन बीमा पॉलिसियां सौंपी। कार्यक्रम यदि यहीं तक सीमित रहता तो शायद इतनी सुर्खियां नहीं बटोर पाता किन्तु मनसे प्रमुख राज ठाकरे और बॉलीवुड के महानायक अभिनेता अमिताभ बच्चन का सभी गिले-शिकवे भुलाकर करीब पांच वर्षो बाद मंच साझा करना सियासी हलकों से लेकर फ़िल्म जगत तक को चौंका गया| दरअसल पांच वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश का ब्रांड एंबेसडर बनने और भोजपुरी फिल्मों में अभिनय करने पर राज ने अमिताभ की कड़ी आलोचना की थी, जिसके बाद दोनों के संबंध असहज हो गए थे। वहीं अमिताभ की पत्नी जया को सपा द्वारा उत्तर प्रदेश से राज्यसभा सदस्य बनवाने के बाद दोनों के बीच कड़वाहट और बढ़ गई थी। यहां तक कि अमिताभ की फिल्मों का मुम्बई में बहिष्कार तक मनसे द्वारा किया गया था| उनके घर पर मनसे कार्यकर्ताओं ने पत्थरबाजी भी की| मनसे के कदम की सार्वजनिक आलोचना की गई पर इन सबसे अमिताभ इतने व्यथित हुए कि उन्हें बाल ठाकरे के समक्ष हाजिरी देनी पड़ी थी| खैर मामला कैसे सुलझा होगा इसका अनुमान आप और हम लगा सकते हैं पर तबसे ही अमिताभ और राज ठाकरे एक-दूसरे से कन्नी काटते नज़र आते थे| अमिताभ ने तो उत्तर प्रदेश के बारे में बात तक करना बंद कर दिया था| पर वक़्त बदला और ऐसा बदला कि राज-अमिताभ की जुगलबंदी पक्के दोस्तों सी हो गई| राज ठाकरे ने बाकायदा मंच पर अमिताभ के पैर छुए, वहीं अमिताभ ने भी मराठी में अपना उद्बोधन देकर दुश्मनी की खाई को पाटने का कार्य किया| पुरानी बातों को भुलाने की पहल भी राज ठाकरे की ऒर से हुई| ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राज ठाकरे की राजनीति का केंद्र मराठी मानुष अब उनका वोट बैंक नहीं रहा? क्या राज अमिताभ को करीब लाकर महाराष्ट्र का सियासी परिदृश्य बदलने की कोशिश कर रहे हैं? क्या अमिताभ राज को माफ़ कर एक बार फिर सियासी भूमिका में अवतरित होने का मन बना रहे हैं? या फिर क्या अमिताभ एक सामान्य नागरिक की भूमिका में खुद को सुरक्षित कर राज से हाथ मिला बैठे हैं? ऐसी और भी कई बातें सियासी हवाओं में चल रही हैं जिनके जवाब के लिए थोड़े इंतजार की ज़रूरत है। पर इतना तो साफ़ है कि राज-अमिताभ की दोस्ती महाराष्ट्र की राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता तो रखती ही है|

दरअसल अमिताभ का रुतबा किसी परिचय का मोहताज नहीं है| वे भले ही राजनीति से दूर हो चुके हों किन्तु उसकी बारीकियों से भली-भांति अवगत हैं| राज ठाकरे से मंच साझा करने के परिणामों को भी पूर्व में ही भांप चुके होंगे अतः सपा की महाराष्ट्र इकाई द्वारा उनकी आलोचना पर उन्होंने कोई टिप्पड़ी नहीं की| एक सिनेमाई व्यक्तित्व होने के नाते उनका राज ठाकरे के साथ मंच साझा करना मुम्बई में शान्ति से रहने की उनकी मजबूरी के रूप में हो सकता है| किन्तु राज का उनके पैर छूकर पुरानी बातों को भुला देना विशुद्ध रूप से वोट बैंक की राजनीति ही है| देश में इस वक़्त जिस तरह की सियासी बयार बह रही है उसमें अति सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद इत्यादि के लिए कोई जगह नहीं है| युवा अब घृणित राजनीति को नकारने लगे हैं| मोदी जैसा नेता यदि मंच पर टोपी पहनने से इंकार करता है तो उसकी भरपाई भी वह मुस्लिम युवाओं से असलाम वालेकुम कर पूरी कर लेता है| कुछ इसी मजबूरी और सियासी भरपाई का खेल अब राज ठाकरे भी खेल रहे हैं| युवाओं के आइकॉन अमिताभ को सार्वजनिक मंच से इज्जत नवाजकर राज ने कट्टर मराठी मानुष की अपनी छवि को तोड़ने का प्रयास किया है| राज की मनसे और उद्धव की शिवसेना की राजनीति का आधार एक ही है किन्तु एक ही आधार के भरोसे वे अपनी राजनीतिक पारी को लंबा नहीं खींच सकते| शिवसेना से जुड़े ऐसे सैकड़ों छोटे-बड़े कामगार संगठन हैं जिनमें बड़ी संख्या में हिंदीभाषी वोटर हैं| शिवसेना यदि मराठी मानुष का मुद्दा उठाती भी है तो कामगार संगठनों के ज़रिए उत्तर भारतीयों को साधने का कार्य भी कर लिया जाता है| मनसे के पास ऐसा कोई संगठन फिलहाल तो नहीं है| अगले वर्ष महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होना हैं और बाल ठाकरे के निधन के बाद यह पहला मौका है जब चाचा-भतीजा एक-दूसरे के विरुद्ध ताल ठोंकते नज़र आयेंगे| राज के मुकाबले उद्धव का जलवा यूं भी कम ही है लेकिन शिवसेना की मुम्बई में पैठ के चलते राज अभी उद्धव को खुली चुनौती नहीं दे पाते हैं| हो सकता है उद्धव की इसी पैठ के चलते राज ने अमिताभ को मंच पर बुलाकर उत्तर भारतियों को संदेश देने की कोशिश की हो कि यदि उत्तर प्रदेश के अमिताभ राज के साथ आ सकते हैं तो आप क्यों नहीं? यदि अमिताभ अपने साथ हुए बर्ताव को भुला सकते हैं तो उनके समर्थक क्यों अपने महानायक का अनुसरण नहीं करते? राज ठाकरे ने बड़ी ही नज़ाकत से सियासी सफाई का नज़ारा पेश कर दिया| अब यह मुम्बई में बसे उत्तर भारतियों को तय करना है कि क्या वे भी अमिताभ की तरह अपने अपमान को भुला देते हैं या मुम्बई में ही उत्तर भारत की पहचान को कायम रख पाते हैं? राज-अमिताभ की मुलाक़ात फिलहाल कोई गुल न खिला रही हो; महाराष्ट्र खासकर मुम्बई में इसके दूरगामी सियासी परिणाम देखने को मिलेंगे|
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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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