ऋण कृत्वा घृतं पीबेत ।

0
8880

जावेद उस्मानी

   ‘यावज्जजीवेत सुखं जीवेतcharvak

          ऋण कृत्वा घृतं पीबेत ।

         भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:”।

‘जब तक जियो सुख से जियो कर्ज लेकर घी पियो शरीर भस्म हो जाने के बाद वापस नही आता है।‘– चार्वाक

कर्ज लेकर घी पीने की उकित मशहूर है। सदियो पुराना भोगवादी चार्वाक  दर्शन आज आर्थिक नीतियो की नसो मे लहू बनकर दौड़ रहा है। व्यवस्था बिना श्रम के आये धन दीवानी है। हम अपने तक सीमित सोच व मस्ती में यह भूल चुके है कि इसका असर आने वाले दिनो पर कितना भारी है। आमतौर पर कर्ज की जरुरत तब होती है जब उस काम को करने के लिए जरुरी धन नही हो। महर्षि वृहस्पताचार्य के काल की मान्यताओ मे भी ऋण निकृष्ट माना जाता था। आदि ग्रंथो में कर्इ ऐसे प्रसंग है जहां पुरखो के कर्ज के भार ने भावी पीढी को संकट में डाला था। लेकिन भौतिक सुख की भूख ने मूल्य आधारित नैतिक परपाटी को बदल दिया है। हमारे रहनुमा सुख दर्शन के अनुगामी बन चुके है। अब कर्ज का धन लज्जा का नही सम्मान का विषय है। सरकारे जनसरोकार के लिए इस विधा को अचूक मानती है। आज  कार्य व्यवहार में सर्वत्र है। शासकीय व निजि क्षेत्र दोनो चपेट में है। निजि क्षेत्र की लाभ हानि व्यकित या लधु समूह तक सीमित है। लेकिन सरकारी फायदा नुकसान का प्रभाव व्यापक है। क्योकि इसमें सभी अंशदायी है।

कर्ज एक ही सूरत में फलदायी है जब  इसका उदेश्यानुसार इस्तेमाल व निर्धारित अवधि में लक्ष्य की प्राप्ति सुनिश्चित हो। आचरण में आयी नैतिक गिरावट के कारण सरकारी क्षेत्रो में यह दुलर्भ है। चार्वाक सुत्र का  सरकारी चलन दीर्घकालीन व बुनियादी विकास  लिए कितना नुकसानदेह है। बढ़ती असमानता इसका संकेत है।

कर्ज लेकर जश्न मनाने का फलसफा उनके लिए तो लाभप्रद है जो कर्ज पाने की क्षमता रखते है। शेष तो केवल इस घी का खर्च उठाते है। प्रचलित व्यवस्था में हर सरकारी व्यय का वहन करने की जिम्मेदार आम जनता भी है। अत: ऋण  से जिनकी मौज है उनको छोड़कर बाकी के लिए यह पीड़ादायी हैं। क्योकि उसके राजस्व योगदान का फल कोर्इ और  चखता है। उपरी तौर से कर्ज से हुर्इ प्रगति का लाभ मोटे तौर पर सभी के लिए है। लेकिन साधन सम्पन्न का हिस्सा ज्यदा है क्योकि उसके पास लाभ के लिए संसाधन है। मिसाल के तौर पर आम आदमी को बाजार में किसी सामान्य  खरीद पर बराबर का टेक्स देना होता है। किंतु जन धन से हुए विकास के लाभ में उसकी हिस्सेदारी तुलनात्मक रुप से कम है। विलासिता मे तो उसकी भागेदारी शुन्य है।देश के ज्यादातर राज्य विलासी मानसिकता के संताप से पीड़ित है।  सकल आमदनी का एक बड़ा भाग भोगेच्छा पूर्ण करने में होम होता है। अक्सर इसका परिणाम सुरसा की तरह बढ़ते राज्यकोषीय घाटा, कर वृद्धि और कर्ज के रुप में सामने आता है। कर्ज कितना भारी है इसका अनुमान मध्यप्रदेश को देखकर लगाया जा सकता है 2011 में सरकार पर 69,259.16 करोड़ का कर्ज था  जिसका सूद 5051.83 करोड़ रुपया  है।

मघ्यप्रदेश को विभाजित कर 2000 मे छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुआ था।। तब बड़ी आशाए सजोया गयी थी अति उत्साह में कर्ज व कर मुक्त राज्य का सपना भी  हवा में तैरा था। केन्द्र सरकार की ओर से 1 करोड़ 10 लाख का अनुदान मिला था । और राज्य के हिस्से मे  7000 करोड़ का कर्ज  आया था। शुरुआती चार साल में  प्रदेश सरकार ने कोर्इ ऋण नही लिया न रीर्जव बैक से अर्थोपाय अग्रिम लिया। लेकिन सत्ता बदल के साथ आये राजनैतिक परिवर्तन के कारण बिते सात सालो में कर्ज 13010 करोड़ कर्ज चढ़ चुका है। 2012- 2013 के बजट मे इस भार में 2000 करोड़ की वुद्वि आंकी गयी है जिसके ब्याज के रुप में करोडो की़ अदायगी किया जाना है। सरकार के अनुसार मुख्यतया सड़क निर्माण व धान खरीद के लिए लिया गया कर्ज है। प्रदेश के प्रथम वित्त मंत्री रामचन्द्र सिंह देव  की राय में सड़क निर्माण मे हुए भ्रष्टाचार के कारण लागत से तीन गुणा खर्च और नेता अफसर की महगी गाड़ी तथा भव्य समारोह से व्यय का दायरा बढ़ा है। प्रदेश में 12 साल में 30 हजार करोड़ रुपये सड़क पर खर्च हुए इसके लिए  केन्द्र व राज्य का अधिकांश धन प्रबंध कर्ज आधारित है। राज्य सरकार ने दिसम्बर 2012 में एशियन डवलपमेंट बैक से 990 किलोमीटर सड़क बनाने के लिए 30 करोड़ रुपये का नया कर्ज लिया है। ए डी बी 1 से 7 फीसदी सूद पर उधार देता हैं। कर्ज की अवधि के अनुसार ब्याज की दरे तय होती है। सरकारे ऋण व निर्माण की सार्वजनिक  चर्चा करती है लेकिन इस पर लगने वाले ब्याज और जुर्माने की शर्तो  के बारे में बहुधा मौन रहती है। इस उधार से दो लेन की  सड़के वहां बनेगी जहां उधोग स्थापित है जाहीर है इसका सबसे ज्यादा फायदा इजारेदार या कंपनी को होना हैं। लेकिन इसका खर्च विकास के नाम पर उधोगपति के साथ आम जनता  भी उठायेगी।  सरकार उधोगो को सुविधा दे इससे इंकार किसी को नही है। लेकिन जन धन की समयबद्ध वापसी भी सुनिश्चित करने का दायित्व निभाये। बड़े उधोगो पर बिजली ,पानी,और कर के रुप में अरबो बकाया है। उनकी वसूली उस कड़ार्इ के साथ नही की जाती है जितनी सख्ती के साथ एक सरकारी मुलाजिम से आयकर, वृतिकर की समयबद्ध उगाही की जाती है। अतत: इस राहत का असर भी जनता के जेब पर पड़ना लाजिमी है।

प्रदेश  बनाने के बाद राज्योत्सव मनाये जाने की परंपरा है जो काफी खर्चीली है। सरकार के अनुसार  नवंवर 2012 में सम्पन्न हुए राज्योत्सव में संस्कृति विभाग ने 7 करोड़ 14 लाख 30 हजार 301 रुपये खर्च किये है। इसमे से फिल्म अभिनेत्री करीना कपूर को बतौर पराश्रमिक एक करोड़ 40 लाख 71 हजार भुगतान किया गया है। गायक सोनू निगम को 36 लाख 50 हजार दिया गया है। इन दोनो कलाकारो  के कार्यक्रम का आनंद पास बैठे चंद अति विशिष्ठ जन दूर खड़े बामुशिकल चंद हजार की भीड़ उठा सके। मशहूर अदाकारा की हलकट जवानी का नृत्य की चर्चा सुर्खिया बनी । लेकिन इसका चूना प्रदेश के सवा दो करोड़ लोगो को लगा है। यह केवल एक विभाग का खर्चा है। छोटे बड़े सारे खर्च की जोड़ होश उड़ाने वाली है।  इस समारोह के लिए उतनी बिजली रखी गयी जितना कामनवेल्थ गेम के लिए लगी थी। अन्य व्यय अलग है। मोटे तौर इस समारोह के आयोजन की तैयारी पर इतना धन होम हुआ है जिससे सैकड़ो गांवो की बुनियादी जरुरत पूरी हो सकती थी। राज्य महोत्सव के दरमियां राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने नये रायपुर में बने भव्य सचिवालय का उदघाटन किया। अरबो रुपये से बने इस स्वपिनल नगर  में पंच सितारा सुविधाए है। इसे प्रदेश की प्रगति की दिशा मे बड़ा  कदम माना जा रहा है। इसके निर्माण के लिए राज्य के राजस्व और केन्द्रीय अनुदान कम पड़ने के कारण  अरबो रुपये के कर्ज लिए गये है।  लेकिन इस विलासी निर्माण का बोझ उस 23 फीसदी आबादी  के कंधे पर भी है जो सरकारी सहायता पर जिन्दगी काट रहा है। लेकिन वह यहां कही  नही  है। न यहां के प्रस्तावित गोल्फ मैदान में न पंच सितारा होटल में न माल में न मल्टी सुपरस्पेशलिटी अस्पताल में। समुचे प्रदेश में इस तरह के निर्माण जन सुविधा के नाम पर किये जा रहे है। वित्तीय प्रबंधको की दृषिट में बिना सक्षमता के इस प्रकार के खर्च उत्पादकता या रिर्टन क्या है? यह आम आदमी की समझ से परे है। हमारी कार्य प्रणाली गालिब के उस शेर की तरह है:-

”कर्ज की पीते थे मय और समझते थे ।

रंग लायेगी एक दिन फाकामस्ती हमारी ”।।

लेकिन उधार से अंधेरा बढ़ रहा है। पिछले साल ही परियोजनाओ के समय पर पूरा नही होने के कारण  केन्द्र सरकार को करोड़ो का जुर्माना भरना पड़ा है। और ऐसे कर्ज पर जिसका उपयोग ही नही हो पाया उसके लिए प्रतिबद्धता  की लंबी राशि भी अदा करनी पड़ी है। प्रदेश में भी भ्रष्टाचार के कारण परियोजनाओ की लागत और समय में इजाफा हुआ है ऐसी सिथति ऋण दाताओ के मन माफिक है। अन्तर्राष्टीय व निजि वित्तीय एजेसिया  इसका भरपूर फायदा उठाती है।

यह सिथति दुखद इसलिए भी है कि प्रदेश में प्राकृतिक संसाधनो की कमी नही है। अगर पैसे का इस्तेमाल सही दिशा में होता तो छत्तीसगढ़ का शुमार कर्ज देने वालो में नही बांटने वालो में होता । लेकिन महाजनी साहुकारी के चक्रवर्ती कर्ज के मोहजाल में फंसे  चुके इस प्रदेश का भविष्य भी उन प्रदेशो से अलग नही दिखता है जिनके बजट से ज्यादा घाटा है। हमे नही भूलना चाहिए की कर्ज की घी उन्हे   ताकत दे रही है जो उसे पीते है। बाकी तो अपने नसीब पर रोते है। ऐसा नही कि हमारे रहनुमा अंजान है लेकिन उनके आंखो पर चर्वाक की पट्टी चढ़ी है जबकि जरुरत गांधी वादी नजरिये की है। स्वालंबन के जरिये पहले आत्म निर्भर बनने फिर परवान करने की है।  अगर हम विलासिता के मोह से मुक्त नही हुए तो आने वाले दिनो की बदहाली कर्इ सवाल खड़ेगी जिसकी कीमत भविष्य चुकायेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here