कबीर-तुलसी के काव्यों में स्त्री-विरोध

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2000

सारदा बैनर्जी

81-7055-279-6भक्तिकालीन साहित्य में पाखंड-विरोध के समानांतर स्त्री-विरोध का स्वर भी स्पष्टतः मुखर हुआ है। खासकर कबीर जैसे प्रगतिशील और भक्त कवि ने अपने दोहों में स्त्री को दो रुपों में विभाजित कर उसका चरित्रांकन किया है। ये दो रुप हैं, ‘पातिव्रत्य’ रुप और ‘कामिनी’ रुप। कबीर ने नारी के कामिनी रुप की भरसक निंदा की है और पातिव्रत्य की उँचे कंठ से भूरी-भूरी प्रशंसा की है। ऐसी स्त्रियाँ जो अपने पति के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखती हैं और पति की सेवा को ही परम धर्म के रुप में स्वीकार करती हैं, पति को हर एक विपत्ति से मुक्त कराके स्वयं उन विपत्तियों को गले लगाती हैं, उन्हें ही कबीर एवं तुलसीदास जैसे भक्त कवियों ने नारी का दर्जा दिया है। ये पतिव्रता नारियां भले ही कुरुपा हों, काली हों लेकिन ये उन कामिनियों की तुलना में भली हैं और इन पर कोटि सुंदरियों को न्योछावर किया जा सकता है। कबीर कहते हैं, “पतिबरता मैली भली, काली कुचिल कुरुप/ पतिबरता के रुप पर बारौं कोटि स्वरुप।” इसी तरह तुलसी भी लिखते हैं, “बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई।” यानी जो स्त्री बिना छल-कपट के पातिव्रत्य में मन-प्राण समर्पित करती है वह परम गति(स्वर्ग) को प्राप्त होती है। लेकिन बाकि सब स्त्रियां जो पति की आज्ञा का पालन नहीं करतीं या अपनी इच्छा के अनुरुप ज़िंदगी जीती है, पति के अतिरिक्त किसी दूसरे पुरुष को आकर्षित कर सकती हैं, उनके प्रति प्रेमासक्त हैं, वें सभी स्त्रियां कामिनियां हैं यानी माया हैं, मोहिनियां हैं, निंदनीया हैं और त्यागने की योग्या हैं। ये कामिनी स्त्रियां डेंजरस हैं, केवल पुरुषों को भटकाने का काम करती हैं और इनकी संगति से पुरुष किसी भी क्षण अंधे हो सकते हैं यानी मार्ग से भटक सकते हैं। कबीर कहते हैं, “नारी की झांई परत अन्धा होत भुजंग/ कबिरा तिनकी कौन गति नित नारी को संग।”

सुंदरकांड में तुलसीदास लिखते हैं, “ढोल गंवार शुद्र पशु नारी/ सकल ताड़ना के अधिकारी।” वहीं तुलसी में विरोधाभास की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है जब वे लिखते हैं, “केहि विधि नारी रचि जग मांहि, पराधीन सपनेहु सुख नाहि।” ऐसा नहीं है कि तुलसी स्त्रियों की समस्याओं एवं उनके जीवन की प्रतिकूलताओं से अनभिज्ञ थे लेकिन कहीं न कहीं पुंसवादी मानसिकता से वे मुक्त नहीं हो पाए जिसका प्रमाण उपरोक्त पंक्तियां है।

विचारणीय ये है कि स्त्री पर ‘अच्छी’ और ‘बुरी’ का स्टैंप लगाने और भली-बुरी स्त्री का निर्णय लेने में सदा से पुरुष ही क्यों बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं? ‘कामिनी’, ‘मायावी’, ‘विश्वमोहिनी’, ‘छलिया’ आदि विशेषणों से स्त्रियों को कलंकित और अपमानित करने का काम भी सदा से पुरुष अपनी ज़िम्मेदारी क्यों मानते रहे हैं? अपना मूल्यवान समय स्त्रियों को अपमानित करने में क्यों खर्च करते रहे हैं ये पुरुष? ये पुंसवादी समाज के पुरुष क्यों समझ नहीं पाते कि स्त्रियों ने अपने ऊपर सर्टीफ़िकेट देने की कोई महान ज़िम्मेदारी पुरुषों को नहीं सौंपी। लेकिन देखिए पुरुषों ने तो स्त्रियों पर अपनी राय देने को ही अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया है।

भक्त (पुरुष) कवियों की मानें तो ये कामिनीयाँ यानी स्त्रियां जो कामिनी गुण-संपन्न हैं, वस्तुतः चरित्रहीना हैं। जायज़ है इन्हें स्वर्ग में तो कभी स्थान नहीं मिल सकता क्योंकि स्वर्ग में पुरुषों का अबाध प्रवेश पहले से निर्धारित है चाहे वे हज़ार बुरा कर्म करें, उनके(पुरुषों के) पश्चात स्वर्ग में पतिव्रता स्त्रियां जाती हैं, सो ये जो कामिनियां हैं ये मृत्यु के उपरांत नरक की गामिनी ही बनती हैं। तुलसीदास लिखते हैं, “वृद्ध रोग सब जड़ धन हीना/ अंध बधिर क्रोधी अति दीना/ ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना/ नारि पाव जमपुर दुखनाना।” अर्थात वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी एवं अति-दीन पति का अपमान करने पर स्त्री अपने लिए नर्क का मार्ग प्रशस्त करती है जहां उसे अगणित दुख झेलने पड़ सकते हैं। वैसे सचमुच मृत्यु के उपरांत कामिनी स्त्रियां कहां जाती हैं ये किसी को नहीं पता लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि स्त्रियों के मन में नर्क का दहशत फैलाने और स्त्रियों को पति सेवा में रत कराने के लिए अनादि काल से बड़े एवं सम्मानीय कवियों द्वारा साहित्य और जीवन में पातिव्रत्य का पाठ ज़रुर पढ़ाया और सिखाया जाता रहा है। लेकिन जनाब लंपट, दुश्चरित्र और चरित्रहीन पुरुषों की क्या गति होगी, उन्हें नरक में स्थान मिलेगा या स्वर्ग में, इसका ज़िक्र तो आपने नहीं किया, बल्कि इसका ज़िक्र पूरे के पूरे भक्ति-साहित्य से नदारद है। क्या बात है ! पुरुषों के मामले में कनसेशन है क्या? या भूल गए कि जिन दोषों का आपने स्त्रियों के मामले में ज़िक्र किया है वो पुरुषों के मामले में भी फ़िट हो सकता है।

कबीर की मानें तो ये जो कामिनी स्त्रियां हैं, ये भुवनमोहिनियां हैं, मीठी वाणी बोलने वाली होती हैं, माया-मोह के जाल में पुरुषों को फट फंसा लेने वाली होती हैं। कबीर ने माया का जो रुप वर्णित किया है और उसकी स्त्री से जिस तरह तुलना की है, उससे तो यही स्पष्ट होता है, “माया महाठगिनी हम जानी/ निरगुन फांस लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।” इसलिए भक्तिकाल के कवियों ने इन कामिनियों से दूर रहने का मूल्यवान उपदेश पुरुषों को बारंबार दिया है। अब पुरुष इनके उपदेशों को मानते हैं या नहीं ये दिगर बात है। लेकिन हे पुरुष ! ये तो ज़्यादती है ना, आकर्षित आप हों और दोष मढ़ा जाए स्त्रियों के सिर? मोह-माया के बंधनों से आप निकल न पाएं, बार-बार मनमोहिनी ‘कामिनियों’ के जाल में फंसते चले जाएं और ‘मोहिनी’ टैग स्त्रियां को ढोना पड़े? पत्नी से मन भर जाए और दूसरी स्त्रियों की ओर आप आकृष्ट हो जाएं और फंसाने वाली वही स्त्रियां कहलाए? नरक का द्वार भी सदा स्त्रियों के लिए आप खोल रखें। अरे आप तो ईश्वर की उपासना करने वाले उत्तम कोटि के भक्त हैं, तो आप ये स्वर्ग-नर्क वाला फैसला भी ईश्वर पर ही क्यों नहीं छोड़ दिए? प्लीज़, अब स्त्रियों की इच्छा से होने दीजिए फैसले।

आप लोगों ने बहुत चरित्र-चित्रण किए, फैसले दिए, कामिनियां निर्मित किए। अब नहीं, कतई नहीं। हम भुवन-मोहिनियां, कामिनियां स्वयं डिसाइड करेंगी कि हम क्या हैं? और डिसीशन ये है कि हम स्त्रियां हैं। केवल स्त्रियां, जो कामिनी-धामिनी टाइप अपशब्दों से मुक्ति की आकांक्षी हैं। जिन्हें पुरुषों के फैसले स्वीकार नहीं हैं। वे अपनी अस्मिता स्वयं निर्मित कर रही हैं, आप पुरुष चिंतित न हो, स्त्रियों को डिफ़ाइन करने के लिए शब्द ढ़ूढ़ने की निरर्थक कोशिश न करें। आपके लिखे विशेषणों को अब स्त्रियां नहीं मानतीं।

दूसरी बात, स्त्रियां (चाहे वह भक्त कवियों के शब्दों में कामिनी हो चाहे पतिव्रता) पुरुषों को फंसाने के लिए जन्म नहीं लेती, ज़िदंगी जीने के लिए लेती हैं। ध्यान देने वाली बात है कि ‘कामिनी’ शब्द के पीछे स्त्री-शरीर का संकेत है। कामिनी से दूर रहने का अर्थ स्त्री-शरीर से परहेज़ करना है। दिलचस्प बात ये है कि स्त्री की अस्मिता स्त्री के शरीर से ही निर्मित होती है। स्त्री का मुख, वक्ष-स्थल, हाथ, पैर इत्यादि शरीर का हिस्सा है, सम्मिलित रुप में ये स्त्री है। यही स्त्री-अस्तित्व का निर्माण करती है।

तीसरी बात, पातिव्रत्य पर ज़ोर देना एक खास किस्म के अर्थ को सामने लाता है। पातिव्रत्य में संलग्न होना यानी स्त्रियों को घर में ही कैद करके रखने की प्रवृत्ति। घर ही स्वर्ग हो, पति देवता और पति-सेवा मूल कर्म एवं धर्म। बाकि बाहरी काम घूंघट डालकर। यह मूलतः स्त्रियों को घरबंद करने की मानसिकता को ऊजागर करता है। उस दौरान सार्वजनिक स्थल में स्त्रियों की आवाजाही को रोकने के लिए पातिव्रत्य का पाठ एक कारगर हथियार रहा। ध्यान देने की बात है कि स्त्री जब सार्वजनिक क्षेत्र में पदार्पण करती है तो पितृसत्ताक पुंसवादी मानसिकता को चुनौती देती है। वह केवल घर से ही नहीं सामंती समाज की बेड़ियों से मुक्त होती है। समाज के सामने अपना अस्तित्व दर्ज करती है। अपनी अस्मिता का निर्माण करती है।

गौरतलब है कि जिस भोगवादी दृष्टिकोण से तुलसीदास और कबीर ने स्त्रियों को समझा है, वह स्त्री के मूल्यांकन का सही दृष्टिकोण नहीं है। स्त्री की बुद्धि, उसका विवेक, उसकी अस्मिता को ताक पर रखकर केवल भोगवादी दृष्टिकोण का सहारा लेकर स्त्रियों का मूल्यांकन हुआ है जो गलत है। जहां कामिनी रुप भोगवादी दृष्टिकोण का परिचायक है वहां पतिव्रता रुप शोषिता का जिसका प्रमुख कर्म एवं धर्म पति की नित्यसेवा है। विचारणीय है कि किसी भी पद या दोहे में स्त्री की स्वायत्त इच्छा की बात नहीं कही गई। कहीं भी स्त्री के स्वायत्त निर्णय को प्रधानता नहीं दिया गया। स्त्री की इच्छाएं-आकांक्षाएं पुरुषों के ईर्द-गिर्द घूमती रही है। स्त्री-इच्छा को प्रमुखता न देने के कारण ही पति से ही प्रेम करना स्त्री का मूलभूत कर्तव्य माना गया, उसे निश्चित कर दिया गया। पति के अतिरिक्त किसी और से प्रेम या संपर्क करने वाली स्त्रियों को चरित्रहीन की संज्ञा दी गई और इस तरह की मनोदशा समाज में आज भी बरकरार है।

यह स्त्रियों के लिए अत्यंत दुख की बात है कि कबीर जैसे सांप्रदायिकता-विरोधी, पाखंड-विरोधी एवं प्रगतिशील चेतना-संपन्न कवि ने भी नारी का मूल्यांकन पूर्णतः पुंसवादी दृष्टिकोण से किया। स्त्री-समस्याओं से परिचित एवं संवेदनशील कवि तुलसीदास ने भी स्त्री को स्वर्ग-नर्क की सीमाओं में आबद्ध कर दिया। स्त्री को इन बेड़ियों से मुक्त कराने की कोशिश नहीं की, एक स्वतंत्र फैसले लेने वाली स्त्री का रुप सामने नहीं रख पाए।

3 COMMENTS

  1. जहां नारी की पूजा होती है वहां स्वर्ग ही महसूस होता है।यह भी तो शास्त्रों में लिखा है।आपने कबीर एवं तुलसी का सकारात्मक सोच के साथ विचार नहीं किया।

  2. शरदजी की बात बिलकुल ठीक है पुरुष कभी भी संजीदगी से इस पर नहीं सोचना चाहता .उसे तुरत is पर क्रोध आ जाता है .
    बिपिन कुमार सिन्हा

  3. सारदा जी,
    ये बासी कढी के उबाल कब तक परोसे जाते रहे जायेंगे?
    आपने जिस विषय को चुनकर कुछ लिखने का प्रयास किया है उस पर अब तक टनों कागज़ काला किया जा चुका है.
    लिखने से पहले हमें इस बात पर मंथन कर लेना चाहिए कि सम्बद्ध विषय पर अब तक क्या महत्त्वपूर्ण कहा गया है.
    आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगी.

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