कविता – सुकून शेष नहीं

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जब सो गयी है
मेरे आंगन की तुलसी
खूंटे में बंधी गाय
सुनाई नहीं देती मुझे
चिड़ियों की चहचहाट ।

इतनी रात गये
कई शोर उठते हैं
तब दिखते हैं
धू-धू जलती झोपड़ियाँ
जबकि सामने
पक्का मकान हंस रहे होते हैं
और कान के परदे फटने लगते हैं
बम बिस्फोटों के स्वरों से ।

तब
मन सुकून चाहता है
घर में हो या घाट में
हाट में हो या
श्मशान में ही सही ।

और
जब नहीं मिलती नींद
तब जागने की लौ
दपदपाने लगती है
मन के संचित शब्द
चिंघाड़ने लगते हैं
और तब टूटने लगते हैं
धीरे-धीरे सारे तटबंध
तब कुछ भी नहीं बचता
भीतर मन के आंगन में
शेष भी नहीं ।
मोतीलाल

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