केंद्र की मंशा ही है बांटों और राज करो

 communalभारतीय संविधान धर्म के आधार पर देश के सभी नागरिकों को एक समान मानता है, पर लगता है, केंद्र सरकार नागरिकों को हिंदू और मुस्लिम धर्म के नाम पर पूर्वाग्रह से ग्रसित सांप्रदायिकता के चश्मे से ही देखती है। तभी तो वह दोनों धर्मो में शत्रुता के मापदंड पर आपसी वैमनस्य फैलाना चाहती है। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने २०११ में जिस सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक का मसौदा तैयार किया था, वह निश्चित ही समाज को दो फाड़ करने वाला है। अब मनमोहन सरकार उसे कुछ आंशिक संशोधनों के साथ संसद से पास करवाना चाहती है जिसका भाजपा समेत कई दल  विरोध कर रहे हैं| इस विधेयक का पूर्व में भी काफी विरोध हुआ था जिस कारण सरकार को इसे ठंडे बस्ते में डालना पड़ा था| अब एक बार फिर लोकसभा चुनाव आते ही सरकार वोटों के ध्रुवीकरण के चलते सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक का जिन्न बाहर निकाल लाई है| हालांकि विधेयक को लेकर जिस तरह का विरोध हो रहा है उससे इसके संसद से पास होने के आसार कम ही हैं किन्तु अगर यह विधेयक किसी भी तरह से कानून का रूप ले लेता है, तो इससे समाज में वैमनस्यता का जो जहर फैलेगा, वह देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को नुकसान ही पहुंचाएगा। इस विधेयक में अनेक ऐसे आपत्तिजनक प्रावधान हैं, जो देश के संघीय ढांचे को नकारते हुए उसे चुनौती देते प्रतीत होते हैं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने इस विधेयक को इस ढंग से तैयार किया है कि यह संसद, कानून और संविधान की सर्वोच्चता को नगण्य करता है। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार की मंशा भी इस विधेयक को जल्द से जल्द लागू करने की है। तभी तो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इस विधेयक पर सर्वदलीय बैठक के दौरान पूरे लाव-लश्कर के साथ मौजूद रहे थे। कितनी अजीब बात है कि जो सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी जन लोकपाल विधेयक को संसद की सर्वोच्चता को खतरा बताती है, उसी सरकार के मुखिया सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक २०११ को सर्वसम्मति से लागू कराने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। इस विधेयक में कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक प्रेम खुलकर सामने आ जाता है। काबिलेगौर तथ्य तो यह है कि इस विधेयक को तैयार करने में तीस्ता सीतलवाड़ और सैयद शाहबुद्दीन ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है, जिनकी धर्मनिरपेक्षता संदिग्ध है।
विधेयक के अनुसार, सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में बहुसंख्यक समुदाय को प्रथमदृष्टया दोषी मान कार्रवाई की जाएगी। यानी, अल्पसंख्यक समुदाय अगर दंगों में सहभागी भी है, तब भी उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी। केंद्र सरकार सांप्रदायिक दंगों के मामलों को खुद देखेगी। यानी, जो काम राज्य सरकार को करना चाहिए, वह केंद्र सरकार के नियंत्रण में होगा। केंद्र सरकार को यदि लगता है कि राज्य ने सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए, तो केंद्र सरकार राज्य सरकार को बर्खास्त भी कर सकती है। यह कानून केंद्र को राज्यों के खिलाफ धारा ३५५ का इस्तेमाल करने का यथेष्ठ मौका देता है। यह तो सरासर राज्य सरकारों के संवैधानिक अधिकारों का हनन है। इस प्रकार तो गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों के काम-काज में हस्तक्षेप करने का केंद्र सरकार को बहाना मिल ही जाएगा। तभी, अधिकतर राज्य सरकारें विधेयक के इस प्रारूप का विरोध कर रही हैं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने इस कानून के मसौदे को यकायक नहीं बनाया है, बल्कि यह वर्ष-२००४ में गठित रंगनाथ मिश्र आयोग और वर्ष-२००५ में गठित सच्चर कमेटी की अगली कड़ी है। इस देश में धर्म और जाति को लेकर हमेशा से ही देश के प्राय: सभी राजनीतिक दलों के मन में पूर्वाग्रह की स्थिति रही है। इस कानून के मसौदे को देखकर कहा जा सकता है कि यह कथित सेक्युलरिज्म की राजनीति करने वाले दलों के लिए लाभदायक है। चूंकि देश में हिंदू-मुस्लिम वैमनस्यता को राजनीति के तहत जान-बूझकर बढ़ावा दिया जाता है, इसलिए यह विधेयक दोनों ही समुदायों के हितों के खिलाफ है, मगर केंद्र सरकार द्वारा इसे यूं प्रचारित किया जा रहा है, मानो इसके अस्तित्व में आने के बाद सांप्रदायिक दंगों पर रोक लग ही जाएगी। सोनिया गांधी की अगुवाई वाली जिस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने इस कानून के मसौदे को तैयार किया है, अव्वल तो वह खुद ही असंवैधानिक है, मगर नए-नए कानूनों के मसौदे सरकार पर थोपती रहती है और हमारे प्रधानमंत्री इन कानूनों को लागू कराने के लिए तत्पर रहते हैं।
सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक २०११ के अनुसार, सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में यदि राज्य सरकार तथा उसके किसी भी अधिकारी की भूमिका संदिग्ध रहती है, तो केंद्र सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र है। इस विधेयक की धारा १३ के अंतर्गत सिविल सर्वेट को दंगों में उसकी भूमिका के लिए सजा का प्रावधान है और यह सजा दो से पांच वर्ष तक की हो सकती है। यह विधेयक दंगों की पूर्व स्थिति पर मौन है, मगर दंगा होने की स्थिति में बहुसंख्यक समुदाय को दोषी ठहरा देता है। मसलन, विधेयक के अनुसार, २००२ में गुजरात में भड़के दंगों में गुजरात सरकार तथा वहां का बहुसंख्यक समुदाय (जो हिंदू है) दोषी है, मगर दंगों के पूर्व गोधरा में हुए सामूहिक हत्याकांड पर इसमें कोई स्पष्ट गाइडलाइन नहीं है। इस विधेयक की धारा १५ के तहत अगर अल्पसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति बहुसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति के खिलाफ सांप्रदायिक भावना से ग्रसित होकर शिकायत करता है, तो शिकायतकर्ता को कोई साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं है। शिकायतकर्ता की शिकायत के बाद कथित आरोपी व्यक्ति के खिलाफ मामला पंजीकृत कर लिया जाएगा। केंद्र सरकार की ओर से इस कानून को जो समिति अमलीजामा पहनाएगी, उसमें सात सदस्य होंगे, जिनमें से चार अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे, जबकि अधिकतर शिकायतें बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ होंगी। तब क्या यह समिति भी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर काम नहीं करेगी? यानी, आरोपी को निष्पक्ष न्याय मिलने की उम्मीद कुल मिलाकर नहीं करनी चाहिए| दरअसल, इस विधेयक का पूरा मसौदा ही सांप्रदायिक है और हिंदू-मुस्लिमों में वैमनस्यता को बढ़ाने वाला। केंद्र सरकार का कहना है कि संघ परिवार सहित उसके सहयोगी संगठन, जैसे-बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद आदि इस कानून के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं और आंदोलनों के माध्यम से लोगों की भावनाओं को भड़का रहे हैं, जबकि सच यह है कि केंद्र सरकार ही इस कानून के बारे में लोगों को भ्रामक जानकारी दे रही है। जिस कानून को मुस्लिमों का हितैषी बताकर प्रचारित किया जा रहा है, यदि वह लागू होता है, तो क्या बहुसंख्यक समुदाय में अल्पसंख्यकों के प्रति असंतोष नहीं बढ़ेगा? केंद्र की मंशा भी यही है, ताकि ‘बांटों और राज करो’ की नीति के तहत दोनों समुदायों को लड़ाकर देश पर राज किया जा सके। सांप्रदायिक दंगों को रोकने की मंशा यदि केंद्र सरकार की है, तो उसे ऐसे उपाय करने चाहिए, ताकि गोधरा (२००२) व सिख विरोधी दंगों (१९८४) की पुनरावृत्ति न हो, मगर उसने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की मंशा के अनुरूप इस कानून को लागू कराने का जो बीड़ा उठाया है, वह गलत है। लोगों को कांग्रेस की असली मंशा को भांपकर इस कानून का पुरजोर विरोध करना चाहिए। देश के हित में यही है।
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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

1 COMMENT

  1. The Congress rule after partition of Hindusthan is an extended rule of Britishraj under the last white man Jawaharlal Nehru ,based on the policy of divide and rule which has become divide and rule to destroy HINDUSunder the umbrella of secularism and appeasement of Muslims and Christians for greed and power for Nehru-Gandhi dynasty under the direction of Sonia Maino Gandhi to make Pappu Rahul Gandhi P.M. of the country at any cost.
    This bill is anti Hindu and worse than apartheid in South Africa under white rule.
    Now the time has come to uproot Indian National Congress and its leaders and allies to save Hindusthan from corruption,scandals, scams, misrule, insecurity , lawlessness, nepotism and terrorism supported by Pakistan and Jihadis.

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