तो तुम दौड़कर
कसकर अपनी बाहों में भर लेती हो
रोमांच के इस पड़ाव पर पहुंचाकर
कुछ ही पलों में रुखसत हो जाती हो
क्यों आती ? क्यों जाती हो
इस सवाल का जवाब नहीं हैं
तुम्हारा अतीत में ले जाना
अतीत से वापस लाकर फिर से उसी हालत में पटक देना बैचेन कर देता हैं.
अधरों को छूकर
जुब़ा को बेसुध कर देती हो
बड़ी बेरुखी से मेरे ख्वाबों को तोड़ देती हो
खामोश रहकर अपने मौजूदगी का अहसास कराती हो
समुंद्र की लहरों के जैसे खुद का वजूद नहीं हैं.
लेकिन, ,
सामने आकर मेरी पहचान बन जाती हो
आखिर कौन हो तुम
मालूम नहीं
मालूम हैं तो सिर्फ इतना
कि,
कुछ –कुछ तुम मेरी तन्हाई की तरह दिखती हो
जो मुझे अपनी भाहों में भर लेती हैं
रवि कुमार छवि