जातिवाद की आग में झुलस सकता है देश

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suprmecourtमुगलों और अंग्रेजों के आक्रमण के बाद आजाद हुए छ: दशक से ज्यादा समय बीत चुका है किन्तु देश से जाति के नाम पर वैमनस्य कम होता नहीं दिख रहा है। वोटबैंक सहेजे रखने की खातिर जनसेवकों द्वारा अगडी और पिछडी जातियों के बीच की खाई को पाटने के बजाए बढाने का ही काम किया जाता रहा है।

जातिवाद के नाम पर घुलने वाले जहर में उंची और नीची जाति के अलावा और भी अनेक शाखाएं हैं जो ”मानव जाति” को ही बांटने के मार्ग प्रशस्त करती नजर आती हैं। कहने को तो ”हिन्दु, मुस्लिम, सिख्ख, इसाई, आपस में हैं भाई भाई” के नारे सियासी दलों द्वारा बुलंद किए जाते हैं पर जब वोट बैंक की बात आती है, तब इस नारे को भुलाकर निहित स्वार्थों की बात ही की जाती है।

जातिवाद के नाम पर संघर्ष के नाम से पहचाने जाने वाले उत्तर प्रदेश सूबे में तीस साल पहले अगडी जाति के लोगों द्वारा आठ दलितों की हत्या के ममाले में सजा सुनाते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है कि देश से जाति प्रथा को समाप्त कर दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट का सुझाव स्वागत योग्य है, किन्तु इस पर अमल जरा मुश्किल प्रतीत होता है। सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव पर अमल कर केंद्र सरकार इस बारे में कानून बनाएगी यह संभव प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि ऐसा करने से उनके वोट बैंक पर धक्का लग सकता है।

आम शहरी आदमी इस जातिवाद जैसी कुप्रथा से मुक्ति का हिमायती दिखता है। वहीं दूसरी ओर गांव पूरी तरह से इस कुप्रथा के शिकंजे में है। राजनीति की शह पर जातिवाद का यह केंसर अब नासूर बन चुका है। गुजरात में ही 29 गांवों में दलितों को सामाजिक तौर पर स्वीकार नहीं किया गया है। सरकार ने भी यहां के 12 गांवों को अत्याचार की आशंका की श्रेणी में रख छोडा है।

मध्य प्रदेश में जाति के आधार पर सियासत करने वालों की कमी नहीं हैं। विन्ध्य में जहां ठाकुरों का बोलबाला है तो चंबल में गूजर, ठाकुर और ब्राम्हण हावी हैं। कहीं भी किसी भी सूबे में दलितों को आगे नहीं लाया गया है, यही कारण है कि दलित समाज में इसी भावना को कुरेदकर नक्सलवादी, अलगाववादी अपने अपने सम्राज्य का विस्तार करते जा रहे हैं।

जातिगत भेदभाव और अत्याचार के लिए मौजूदा कानून का प्रयोग भी बहुत सख्ती के साथ नहीं किया जाता है। वैसे इसके दुरूपयोग की संभावनाएं ज्यादा ही नजर आतीं हैं। सालों से सेठ साहूकारों के कर्ज के बोझ तले दबे निम्न वर्ग के लोगों को अपने प्रतिद्वंदी और विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल से नहीं चूकते ये महाजनी करने वाले लोग। रही सही कसर जनसेवकों के प्रश्रय के कारण इन कानूनों के तहत फर्जी प्रकरण दर्ज कर पूरी करवा दी जाती है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस अनुकरणीय सुझाव का तहेदिल से स्वागत किया जाना चाहिए। साथ ही सरकार को चाहिए कि इस विषय पर जनजागरण की अलख बहुत लंबे समय तक जगाए। सामान्य वर्ग के लोगों को भी चाहिए कि जाति के आधार पर राजनीति करने वाले राजनेताओं का सार्वजनिक तौर पर बहिष्कार करें।

विडम्बना ही कही जाएगी कि आजादी के बासठ सालों के बाद भी भारत में जाति सूचक उपनाम (सरनेम) आज भी हावी है। जाति का जहर आज इस कदर देशवासियों की रगों में भर दिया गया है कि अंतरजातीय विवाह होने की दशा में मरने मारने की नौबत आ जाती है। हरियाणा में ही अंतरजातीय विवाह के उपरांत खाप पंचायतों द्वारा युवक युवती को जान से मार देने के उदहारण भी सरकारों की तंद्रा भंग करने के लिए नाकाफी कहे जा सकते हैं।

जातिगत अत्याचार की कहानी पूर्व संसद सदस्य फूलन देवी से बढकर कोई नहीं थी। फूलन के साथ जो कुछ हुआ था वह किसी से छिपा नहीं था। बदला लेने के लिए उसने हिंसा का रास्ता अख्तियार किया था। आज समाज में न जाने कितने अक्षम लोग होंगे जो इस तरह के अत्याचार को सहने के लिए मजबूर होंगे। मध्य प्रदेश के छिंदवाडा जिले के कोयलांचल में कर्ज में डूबे कर्मचारी यौन यातनाएं तक भोगने को मजबूर हैं।

बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय के साथ यह बाध्यता है कि वह हर दिशा निर्देश भारत के संविधान के दायरे में रहकर ही देता है। केंद्र सरकार को चाहिए कि कम से कम इस मामले में तो सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव पर अमल करते हुए देश को जाति विहिन बनाने की दिशा में पहल सुनिश्चित करे, वरना आने वाले समय में अलगाववाद, आतंकवाद, नक्सलवाद की आग में सुलग रहे देश में जातिवाद का नया विस्फोट होते देर नहीं लगेगी, जिसे संभालना देश के निजामों के लिए बहुत दुष्कर ही साबित होगा।

-लिमटी खरे

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

3 COMMENTS

  1. HAMARA SANMAJ ABHITAK DHARMKE CHAKKAR ME ULJHA HUVA HAI CHAHE DHARM SE KOHI FAYDA NAHI HAI SIRF APASME MANMUTAV HOTA RAHAT HAI !LOGONKE GHA RJALATE HAI ! MANDIR TODO MASJID TODO SABHI
    DHARMKE LIYE INSAN KO MAR DETE HAI UNKE LYE SDHARMSE BADA KOI NAHI HAI !
    LEKIN ASAL BAAT YE HAI KI HAM SAB KUDRATKI DEN HAI ! JAB BIG BANG KE VAKT MAHASFOT HUVA THA TAB SAMAY MATTER AUR AVKASH KA JANM HUVA THA ! YE SAB KUDRATI HAI NA KOI BHAGWAN NA DUSARI KOI SHAKTI KA ISME HATH HAI ! BHAGWAN-ALLA-JIJAS SAB INSAN KE DIMAGI UPAJ HAI ! JAISE BACHHOKO KOI KHILONA MILTA HAI
    USI TARAH INSAN KO BHAGWAN NAMKA KHILONA MILTA HAI USASE JINDGIBHAR KHELTE RAHO 1
    AUR DUSAREKE DHARMKA ANADAR KARO YAHI SAB CHALTA RAHTA HAI ! LEKINYE KOI NAHI JANTA KI SACHHAI KYA HAI !
    BAS HAJARO SAL SE JO USUL ISKHAYE JATE HAI USPAR AMAL KARO ! AUR SWARG NARAK KE BEBUNIYADI KHWAB DEKHTE RAHO JISKA KOI VAJUDHI NAHI HAI!!

  2. लिम्टी जी मै आपको नियमित पढ़ता रहता हूँ. आपने वाकई में एक अच्छा मुद्दा छुआ है. वह भी सकारात्मक ढंग से. दरअसल हमारा मीडिया अपने ‘सेकुलर’ हितो के कारण ऐसी सकारात्मक पहल, प्रकाशन के बजाय, जातिगत विद्वेष को ज्यादा भड़काता है. आम तौर पर अब हिन्दू समाज में जाती आधारित अलगाव कम होने लगे है. पहले जैसा भेदभाव नहीं रहा. हालांकि यह पर्याप्त नहीं है और इसे और गति देने की जरूरत है. लेकिन जातीवादी राजनीति करने वाले और खुद को सेकुलर कहने वाले नेता सामाजिक न्याय के नाम पर जातिगत विद्वेष को जारी रखना चाहते है. क्योंकि इसी से उनकी दूकान चलती है. मायावती, मुलायम, लालू, पासवान, रामदास आठवले, करुणानिधी, वी पी सिंह, कम्युनिस्ट आदि ने जातिगत घृणा फैलाकर कई बार सत्ता सुख भोगा. इसमे परोक्ष रूप से कोंग्रेस भी उनके साथ है. महाराष्ट्र में महान सेकुलर एन सी पी नेता शरद पवार और उनकी संभाजी ब्रिगेड गाहे-बगाहे मराठाओं को ब्राह्मणों के खिलाफ भड़काकर अपने सत्ता-हित साधता है. तो राजस्थान में कोंग्रेस ने पिछले चुनावों में मीना-गुज्जर खाई को गहरी करने में बहुत सक्रियता दिखाई. वहीं कोंग्रेस ने ‘खा’ समीकरण के नाम पर गुजरात में भी यह गंदा खेल खेलने का बहुत प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली. उत्तरी गुजरात के आदिवासी इलाको में चुनाव के दौरान सोनिया गांधी के भाषण इसकी जीती-जागती मिसाल है. बिहार में अब दलित और अति-दलित का खेल चल रहा है. छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आँध्रप्रदेश में तो जातिविद्वेश नक्सलवाद की नर्सरी बना चुका है.उन्होंने सत्ता तो हथिया ली लेकिन तथाकथित निम्न जाती और दलितों को कोइ फ़ायदा नहीं मिला. उलटा देश, खासकर हिन्दू समाज जाती की लाइन पर वापस बंट गया. मजे की बात है की उपरोक्त जातिवादी राजनीतिज्ञ अपने आप को सेकुलर कहते है. कितनी अजीब बात है कि फूट डालो और राज करो की अंग्रेजो की नीति में अधिकाँश दल और बुद्धीजीवी लगे हुए हैं. और यही लोग ‘सेकुलर’ होने तमगा लगाए बैठे हैं, वही जाती-मुक्त समाज का आह्वान करने वाले संघ को साम्प्रदायिक कहकर बदनाम किया जाता है. अब वक्त आ गया है कि तथाकथित दलित अपने नेताओं से गुमराह होने से बचे और मुख्यधारा के समाज से जुड़े वही, तथाकथित उच्च जाती के लोग अपने इन बंधुओं को ससम्मान और सस्नेह गले लगाकर समरसता का नया इतिहास लिखे. जिससे देश और समाज का भला होगा.

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