न्याय की कसौटी पर आपराधिक जांचें

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प्रमोद भार्गव

note   नवंबर में तीन बड़े व बहुचर्चित आपराधिक मामलों के फैसले आए। इन तीनों ही मामलों में पुलिस व केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा की गर्इ जांचें न्याय की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं। नतीजतन संसद की गरिमा को पलीता लगाने वाला नोट के बदले वोट कांड और कांची मठ के प्रबंधक ए. शंकररमण की हुर्इ हत्या से जुड़े मामलों में किसी भी आरोपी को दोषी नहीं माना गया। दूसरी तरफ अपनी ही चौदह वर्षीय बेटी आरुषि की हत्या में तलवार दंपति को उम्रकैद की सजा सुनार्इ गर्इ। इस हत्याकांड की जांच हमेशा संदेह के दायरे में रही। क्योंकि सीबीआर्इ द्वारा की गर्इ जांच के पहले दौर के निष्कर्ष में तलवार दंपति को क्लीन चिट देते हुए मामले को बंद करने की सिफारिश की गर्इ थी। लेकिन इसके उलट अदालत ने स्वयं आरुषि के माता-पिता के खिलाफ मामला चलाने का आदेश दिया और चश्मदीद गवाह व ठोस सबूत नहीं होने के बावजूद परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर तलवार दंपति को हत्या का दोषी माना। गौरतलब है कि जब हमारी जांच एजेंसियां इतने संगीन आपराधिक मामलों में किसी एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने में नाकाम रहती हैं और जांच को दबाव या निजी मंशा से आगे बढ़ाती हैं, तो फिर इतने तामझाम का औचित्य क्या रह जाता है ? इन तीन मामलों के परिप्रेक्ष्य में सही मायने में पूछा जाए तो निराकरण तो हुआ है, किंतु न्याय नहीं हुआ अथवा नहीं यह कहना मुश्किल है ?

राजनीति में दलाल संस्कृति पर अंकुश लगने की उम्मीद से वोट के बदले नोट कांड में यदि जांच सही दिशा और उचित बिंदुओं पर होती तो इस कांड में लिप्त आरोपी बाइज्जत बरी नहीं हुए होते। इस मामले में अमर सिंह, भाजपा के सांसद अकोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते, और महावीर भगोरा के साथ लालकृष्ण आडवाणी के पूर्व सहायक सुधीर कुलकर्णी व भाजपा कार्यकर्ता सुहेल हिंदुस्तानी मुख्य आरोपी बनाए गए थे। यह मामला तब चर्चा में आया था, जब भाजपा के सांसदों ने 22 जुलार्इ 2008 को संसद में नोटों की गडडियां उछाली थीं। दरअसल यह रिश्वत थी, जो सांसदों को इसलिए दी गर्इ थी, जिससे वे मनमोहन सिंह नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के पक्ष में विश्वास मत के दौरान अपना वोट दें। लेकिन सांसदों ने इस कांड का भंडाफोड़ में संसद में ही नोट लहराकर कर दिया। विश्वास मत केंद्र सरकार के पक्ष में था, इसलिए वह नहीं चाहती थी, कि इस संगीन मामले की गंभीरता से जांच हो और मामला अदालत की दहलीज तक पहुंचे। किंतु दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली पुलिस को लगार्इ फटकार के बाद जांच पूरी हुर्इ और चालान अदालत  में पेश किया गया।

दिल्ली पुलिस सीधे-सीधे गृह मंत्रालय के मातहत काम करती है, इसलिए उसकी तहकीकात, एफआर्इआर और आरोप-पत्र संदिग्ध रहे। मामले की नीवं उन सांसदों को ही आरोपी बनाकर कमजोर कर दी गर्इ, जिन्होंने वोट के बदले रिश्वत में मिले नोट संसद में उछाले थे। वास्तव में ये सांसद फरियादी थे। दूसरे, तहकीकात में महज तीन बिंदुओं पर विचार किया गया। एक, पैसा किसने दिया, दो पैसा किसने लिया और तीसरा, पैसे का स्त्रोत क्या था। जबकि इस प्रकरण में इस तथ्य को पूरी तरह नकारा गया था कि विश्वास मत हासिल करने के बाद सरकार किसकी बची और फायदा किसे हुआ ? जाहिर है, प्रकरण अदालत के दबाव में बनाया गया था, इसलिए कमजोर कडि़यों को आरोप-पत्र में शामिल किया गया, जिससे प्रकरण न्याय की कसौटी पर खरा न उतरे।

पुख्ता साक्ष्यों के अभाव में कांचीपुरम के वरदराजा पेरुमल मंदिर के प्रबंधक ए शंकररमण की हत्या के सभी 23 आरोपी बरी हो गए। यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण व बहुचर्चित था, क्योंकि इसमें कांची मठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती को भी हत्या का आरोपी बनाया गया था। पुलिस किसी भी आरोपी के विरुद्ध असंदिग्ध सबूत जुटाने में नाकाम रही। परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी नहीं जुटा पार्इ। जबकि पुलिस ने जल्दबाजी दिखाते हुए हिंदू धर्म के सबसे प्रमुख धर्माचार्यों में एक जयेन्द्र सरस्वती को नवबंर 2004 में दिवाली के दिन हिरासत में लिया था। उनकी गिरफतारी से न केवल मठ की प्रतिष्ठा धूमिल हुर्इ थी, बलिक शंकराचार्य के निश्ठावान अनुयायी भी आहत हुए थे। यहां सवाल यह भी उठता है कि जब सभी आरोपी निर्दोश हैं तो फिर शंकररमण की गला रेतकर हत्या किसने की ? इस नजरिए से मामले का किया गया अनुसंधान और न्यायिक आदेश स्तब्धकारी हैं ? किस पर विश्वास किया जाए ?

दरअसल इस मामले में जांच को गलत दिशा देने से हत्यारे बच निकले। तमिलनाडू पुलिस और कांची के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक प्रेमकुमार की भूमिका पर प्रारंभ से ही संदेह जताया जा रहा था। न्यायालय ने भी अपने फैसले में माना है कि प्रेम कुमार ने जांच गलत दिशा में मोड़ने में अनुचित रुचि ली। उन्होंने कानून की जरुरत से ज्यादा इस मामले में सक्रिय भूमिका निभार्इ। बावजूद, प्रकरण कानूनी संहिताओं की कसौटी पर खरा नहीं उतरा। एक के बाद एक गवाह अदालत में बयान बदलते चले गए। परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी ऐसे नहीं थे, जिन्हें सजा का आधार बनाया जाता? यही नहीं इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्रेम कुमार की भूमिका को संदेह के घेरे में लेते हुए मामले की सुनवार्इ कांचीपुरम की बजाय, पुडडुचेरी में करने की इजाजत दी थी। यहां सवाल उठता है कि जब प्रेम कुमार की भूमिका को संदिग्ध माना जा रहा था, तो उन्हें बदला क्यों नहीं गया ? सीबीआर्इ से जांच कराने की पहल क्यों नहीं की गर्इ। आरोपी बनाए गए जिन निर्दोषों ने संदिगध हत्यारों का दंश झेला और 9 साल तक मानसिक जददोजहद से गुजरे, उसकी भरपार्इ कौन करेगा ? इसके अलावा जिन शंकररमण का कत्ल हुआ, उनके परिजनों को इंसाफ कौन देगा ? एक नौकरशाह की मनमानी के समक्ष क्या यहां न्यायालयीन प्रक्रिया बौनी साबित नहीं हुर्इ ?

तीसरा मामला आरुषि और हेमराज की हत्या से जुड़ा है। आखिरकार इस बहुचर्चित व बहुप्रतिक्षित मामले में अदालत ने आरुषि के माता-पिता डा राजेश और उनकी पत्नी डा नूपुर तलवार को हत्या का दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुना दी। इस मामले में कोर्इ चश्मदीद गवाह तो नहीं था, लेकिन सीबीआर्इ की विशेष अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि तमाम परिस्थितिजन्य साक्ष्य हत्याकांड में तलवार दंपति का हाथ होने के आरोप की पुष्टि करते हैं। लेकिन इसी मामले में जबरदस्त संदेह व विरोधाभास यह रहा कि सीबीआर्इ ने जो पहली जांच पूरी की थी, उसमें तलवार दंपति को क्लीन चिट देते हुए कृष्णा, राजकुमार और विजय नाम के नौकरों पर हत्या का आरोप लगाते हुए उन्हें हिरासत में लिया था। लेकिन समय सीमा में चालान पेश नहीं करने पर उन्हें जमानत मिल गर्इ थी। बाद में सीबीआर्इ के तत्कालीन निदेशक एपी सिंह की राय बनी कि तीनों नौकर हत्या में लिप्त नहीं हैं, लिहाजा उन पर कोर्इ मामला नहीं बनता। सिंह ने तो मामले को बंद करने रिपोर्ट देते हुए यहां तक कहा था कि इस हत्याकांड में तलवार दंपतित की भूमिका को लेकर पर्याप्त संदेह तो है, लेकिन उनके पास इसे साबित करने के कोर्इ ठोस व प्रत्यक्ष सबूत नहीं हैं। किंतु सीबीआर्इ के विशेष न्यायाधीश ने तलवार दंपति के खिलाफ हत्या के आरोप तय कर दिए। यहां गौरतलब है कि सीबीआर्इ की पहली जांच पर कोर्इ दबाव था ? जो सीबीआर्इ एक समय सबूतों के लिहाज से खाली हाथ थी और अब फैसला आने पर संतोष जता रही है। यहां यह बात हैरानी में हालने वाली जरुर है कि जो माता-पिता अपनी संतान के श्रेष्ठतम रक्षक होते हैं, वही हत्यारे कैसे हो गए ? लेकिन अपवादस्वरुप ऐसा भी होता है। सामाजिक संस्कार और औरत की आबरु ऐसे प्रमुख पहलू हैं, जो संभ्रांत, आधुनिक और उच्चशिक्षित लोगों की भी आनर किलिंग की भूमिका में ला खड़ा करते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि जांच एजेंसियों के अधिकारी किन कारणों से भटक जाते हैं ? मनोविज्ञान और समाज शास्त्रीय शिक्षा के अभाव में अथवा राजनीतिक दबाव में या धन के लालच में ? ये वे चंद पहलु हैं, जो निष्पक्ष जांच में बाधा बनते हैं।

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