भारत देश को बहुविध आंदोलनों से गुजरना होगा

के.एन. गोविन्दाचार्य

विगत वर्षों में जितना कुछ भी अच्छा और बुरा बदलाव समाज में हुआ है, उसे दूर कर अतीत के भारत की ओर लौटना न संभव है, न वांछनीय है, इसलिए क्रमेण उपयोगी निरूपयोगी तत्वों के मानक बनाकर, हुए बदलाव को स्वीकारने और नकारने की स्थितियां निर्मित करनी होंगी।

अपने स्वर्णिम काल में भारत का समाज धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता के सम्मिलित प्रयासों से संचालित होता था। इसमें राजसत्ता का योगदान मात्र अष्टमांश था। विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत की राजसत्ता पर अधिकार करने के पश्चात समाज संचालन में लगी अन्य शक्तियों को अपने अधीन करने का भरपूर प्रयास किया। इस्लामी हमलावरों ने जहां भारतीय समाज-संचालन में लगी शक्तियों के बाह्य स्वरूप पर प्रमुखता से प्रहार किया, वहीं अंग्रेजों ने समाज के अभ्यांतर को भी अपना निशाना बनाया।

भारतीय समाज की मूल शक्ति स्वावलंबी गांवों में निहित है, इस तथ्य को समझने के पश्चात अंग्रेजों ने इसे प्रमुखता से अपना निशाना बनाया। लैंड सेटलमेंट एक्ट, 1780 उनके इसी निर्णय का परिणाम था। इस कानून के पहले भारत में भूमि, व्यक्ति या राज्य की नहीं बल्कि गांव और समाज की सम्पत्ति थी। अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को समाप्त कर कुछ जमीन कुछ व्यक्तियों को दे दी। 80 प्रतिशत जमीन अंग्रेजी हुकूमत के पास ही रही। इस प्रकार गांव और समाज का हिस्सा खारिज हो गया। उस समय भारत की एक-तिहाई आबादी ही खेती पर निर्भर थी, बाकी दो-तिहाई आबादी भिन्न-भिन्न पेशों में लगी थी। लैन्ड सेटलमेन्ट एक्ट के बाद ये सारे पेशे उखड़ गये और समाज का संतुलन बिगड़ गया। भूमि के व्यक्तिगत स्वामित्व के कारण ‘हमारी जमीन, हमारा हक’ की मनोवृत्ति बढ़ी और समाज का ध्यान पीछे छूट गया। गांवों की व्यवस्था छिन्न-भिन्न होने के कारण समाज में शहरीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई, जिसके अगले चरण में केन्द्रीयकरण और बाजारीकरण जैसी विनाशकारी व्यवस्थाओं का जन्म हुआ।

अपने शासनकाल में अंग्रेजों ने लैंड सेटलमेंट एक्ट के अलावा आर्म्स एक्ट, सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट जैसे कई अन्य कानून बनाकर तथा भारत की परंपरागत शिक्षा व्यवस्था और न्याय व्यवस्था में बदलाव करके हमारी सामाजिक व्यवस्था को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस प्रयास में उन्हें काफी सफलता भी प्राप्त हुई।

1947 में भारत को जब राजनीतिक स्वतंत्रता मिली, उससे स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, क्योंकि तत्कालीन भारतीय नेतृत्व को समाज संचालन की भारतीय पध्दति की बजाय अंग्रजों द्वारा शुरू की गई व्यवस्था में अधिक विश्वास था। पिछले पचास-साठ वर्षों में लगभग सभी सरकारें कमोबेश उन्हीं के सिध्दांतों पर चली हैं। भारत की तासीर को न समझते हुए दूसरे देशों की व्यवस्था को हमारे ऊपर आरोपित करने का प्रयास आज भी जारी है। इसके परिणामस्वरूप पारंपरिक ग्रामीण समाज का एक ओर जहां पतन हो रहा है, वहीं शहरीकरण, बाजारीकरण और केंद्रीयकरण जैसी अमंगलकारी व्यवस्थाएं और मजबूत होती जा रही हैं। सब तरफ उपभोगवादी मूल्य समाज को दूषित कर रहे हैं। व्यक्ति, परिवार, गांव, इलाका, देश-समाज आदि इकाईयों (इयत्ताओं) के साथ व्यक्ति के मानस और सोच को संश्लेषित करने की बजाय व्यक्ति को एकाकी समझकर और राज्य को ही संचालन विधि को सर्वस्व मानकर नीतियां बनाई जा रही हैं। अब इस सबका अनुकूलन बाजारवाद के पक्ष में होता दिख रहा है। भूमंडलीकरण की पश्चिमी अवधारणा बाजारवाद का ही एक परिष्कृत रूप है। इसमें पूंजी ही ब्रह्म है, जैसे-तैसे मुनाफा कमाना ही मूल्य है और उन्मुक्त उपभोग ही मोक्ष है। ऐसी स्थिति में भारतीय समाज के एकत्व के बंधन-सूत्र कमजोर हुए हैं। व्यवस्था क्षत-विक्षत हुई है, परिवार व्यवस्था समेत समाज की पारंपरिक व्यवस्थाओं पर भी आघात हो रहा है। येन-केन-प्रकारेण अर्थोपार्जन को सुख का आधार मानकर वर्जना रहित प्रयास को उचित ठहराया जा रहा है।

वर्तमान भारतीय समाज अभिप्सा के स्तर पर विखंडित होकर तीन स्तरों पर सक्रिय दिखता है। पहले स्तर पर दस करोड़ की आबादी, जिनके परिवार के लोग विदेशों में भी हैं, या वे भारतीय जो यूरोप या पश्चिम के देशों में बसे हुए हैं, जिसमें अधिकांश लोग स्वाभिमान और आत्मविश्वास हीनता के अंतर्द्वंद्व से गुजर रहे हैं। दूसरा हिस्सा लगभग बीस करोड़ का है और भौतिक सुख-सुविधाओं से यत्ंकिचित युक्त है। तीसरा हिस्सा लगभग 70 करोड़ लोगों का है, जो आज योगक्षेम के संदर्भ में स्वयं को असुरक्षित या वंचित पा रहा है। देश के संदर्भ में विचार करते समय इन तीन अभिप्साओं के बीच समन्वय एवं संतुलन बिठाने में ही देश की ताकत सही दिशा में लग सकेगी।

भारत की वर्तमान दुर्दशा और बदहाली के पीछे केन्द्रीयकरण, शहरीकरण, समरूपीकरण, बाजारीकरण और आरोपित वैश्वीकरण जैसी परकीय व्यवस्थाओं और जीवनमूल्यों का प्रभाव हमारे सामने स्पष्ट है। इन सिध्दांतों पर आधारित व्यवस्था केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए अमंगलकारी है। यह संपूर्ण प्रक्रिया प्रकृति विरोधी एवं मानव विरोधी है, इसलिए यह संसार में टिकाऊ हो ही नहीं सकेगी, परंतु हां, मानव समाज के स्वस्थ संचालन पर इसका आघात अवश्य होगा और क्षति भी होगी। इसलिए सही सोच के साथ इस अस्वस्थ भूमंडलीकरण प्रक्रिया की काट हमें विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण, बाजारमुक्ति एवं स्थानिकीकरण के रूप में विकसित करनी होगी। इस ओर मजबूती से बढ़ने और अस्वस्थ भूमंडलीकरण की मार से त्रस्त विश्व को राह दिखाने के लिए भारतीय समाज ही सक्षम है। हमें अपने इस दायित्व से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।

पिछले 500-1000 वर्षों और विशेष तौर पर पिछले 250वर्षो में इकट्ठा हुआ कुछ कूड़ा-कचरा और कुछ गर्द-गुबार भारतीय समाज की संचालन व्यवस्था को कुंठित कर रहा है। भाषा, भूषा, भोजन, भवन, भजन, भेषज के साथ-साथ जीवनशैली, जीवनमूल्य के स्तर पर भी बहुत कुछ चाहे-अनचाहे, वांछित-अवांछित हमारे भीतर समा गया है। विगत वर्षों में जितना कुछ भी अच्छा और बुरा बदलाव समाज में हुआ है, उसे दूर कर अतीत के भारत की ओर लौटना न संभव है, न वांछनीय है, इसलिए क्रमेण उपयोगी निरुपयोगी तत्वों के मानक बनाकर, हुए बदलाव को स्वीकारने और नकारने की स्थितियां निर्मित करनी होंगी। इस विषय में कई तरह के शोधकार्य आवश्यक हैं। रचनाधर्मिता के आधार पर बहुविध प्रयोगों और परिणामों का संकलन आवश्यक है। लंबी गुलामी के कारण लदी गलत सोच, तौर-तरीके एवं दोषपूर्ण ढांचे के साथ-साथ हीनभावना की मानसिकता से उबरने हेतु बहुविध विकेन्द्रित या केन्द्रित आंदोलनों की प्रक्रिया में से देश को गुजरना होगा।

अतीत से प्रेरणा लेते हुए हमें वर्तमान में जीना है और अपना भविष्य गढ़ना है। भविष्य को अनुकूल ढंग से गढ़ने हेतु वर्तमान पर छाई धुंध और गर्द-गुबार को हटाकर अपने देश की तासीर को समझते हुए नई सोच, ढांचे और तौर-तरीके गढ़ने की जरूरत है। यह प्रक्रिया बहुविध प्रयोगों, परिणामों और अनुभवों से होकर गुजरेगी, इसके दिशा-निर्देशक तत्व होंगे – स्थानीकरण, विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण और बाजार मुक्ति। भारत के संदर्भ में समाज की ताकत का बुनियादी महत्व है, राजसत्ता का महत्व पूरक है। इसलिए समाजसत्ता का जागरण और उसके परिणामस्वरूप राजसत्ता का अनुकूलन सही तरीका होगा।

बौध्दिक हलचलों एवं रचनात्मक प्रकल्पों के साथ आंदोलनात्मक गतिविधियों के लिए भी विकेन्द्रीकरण ही नियामक तत्व होगा। इसलिए इन सारे प्रयत्नों के लिए ‘थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली’ के आधार पर ‘हमारा जिला हमारी दुनिया’ या ‘हमारा इलाका हमारी दुनिया’ को आधारभूत कार्यक्षेत्र बनाना होगा। इस कार्य क्षेत्र में बौध्दिक सोच और रचनात्मक गतिविधियों में लगी सज्जनशक्ति को धारदार और जुझारू भी बनाना होगा। इन सभी गतिविधियों के केन्द्र में देश के सर्वांगीण विकास के वृहत्तर लक्ष्य के साथ-साथ आज के अर्थाभाव की स्थिति में, सबको भोजन सबको

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