करीब 17 साल पुराने चारा घोटाला मामले में सीबीआइ की विशेष अदालत द्वारा राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद यादव और जगरनाथ मिश्रा समेत 45 लोगों को दोषी और फिर सजा मुकर्रर किए जाने के बाद साबित हो गया है कि कानून की चक्की धीमी ही सही पर बहुत महीन पीसती है। इस फैसले ने प्रमाणित किया है कि कानून की नजर में सभी बराबर हैं और कोर्इ भी भ्रष्टाचारी चाहे वह जितना भी ताकतवर क्यों न हो अपनी गुनाहों की सजा से बच नहीं सकता। सजा सुनाए जाने के बाद लालू सलाखों के पीछे हैं और माननीय होने का दंभ टुट चुका है। अब उनकी संसद सदस्यता तो जाएगी ही भविष्य की चुनावी राजनीति पर भी ग्रहण लग जाएगा। हालांकि इस सजा के खिलाफ उन्हें उपरी अदालत में जाने का अधिकार है लेकिन दागी सांसदों और विधायकों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले से उन्हें किसी तरह की राहत मिलेगी इसकी संभावना कम है। इसलिए कि मनमोहन सरकार ने दागी सांसदों व विधायकों को बचाने वाले अपने उस काले अध्यादेश को वापस लेने का फैसला कर लिया है जिसको कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सार्वजनिक बकवास बता फाड़ डालने की वकालत की थी। चारा घोटाले मामले में अदालत का फैसला एक दशक पहले आया होता तो आज भारतीय राजनीति का स्वरुप इतना विद्रुप और वीभत्स नहीं होता। सियासतदानों के मन में डर होता और वे मनमानी से बचते। शायद देश को टू-जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ और कोयला आवंटन घोटाले में लाखों करोड़ रुपए भी गंवाने नहीं पड़ते। लेकिन इस फैसले की देरी के लिए जितना न्यायिक तंत्र जिम्मेदार है उससे कहीं ज्यादा राजनीतिक दल। न्यायालय को गुमराह करने की उनकी नकारात्मक प्रवृति ही न्याय की राह में रोड़ा बनती रही है। लालू प्रसाद यादव के मामले में भी केंद्रीय सत्ता द्वारा सीबीआइ के दुरुपयोग का सच किसी से छिपा नहीं है। सीबीआइ के अधिकारी यूएन विश्वास की र्इमानदार जांच रिपोर्ट को न्यायालय में बदला गया और इससे नाराज न्यायालय को सीबीआइ को फटकार लगाना पड़ा कि वह रिपोर्ट सीधे न्यायालय में पेश करे। लालू की सजा के बाद अब बुनियादी सवाल यह है कि बिहार में राजद का भविष्य क्या होगा? क्या उनकी अनुपस्थिति में उनके पुत्र तेजस्वी और पत्नी राबड़ी पार्टी को एकजुट रख सकेंगे? राबड़ी ने कहा है कि वे तेजस्वी के साथ मिलकर पार्टी का नेतृत्व उसी तरह संभालेंगे जैसे सोनिया और राहुल संभाल रहे हैं। उनके लिए राहत की बात यह है कि पार्टी के अंदर से उन्हें किसी तरह की चुनौती नहीं मिल रही है। रघुवंश प्रसाद और रामकृपाल यादव सरीखे दमदार नेता मजबूती से उनके साथ खड़े हैं। लेकिन सवाल सिर्फ उनके साथ खड़े होने या उनके हाथ लगाम सौंपने तक सीमित नहीं है। लालू की अनुपस्थिति में उन पर पार्टी की लोकप्रियता बनाए रखने की भी बड़ी जिम्मेदारी होगी। हालांकि तेजस्वी ने यह कहकर सहानुभूति के दांव चल दिए हैं कि उनके पिता को साजिश का शिकार बनाया गया है। लेकिन वह इसका लाभ चुनाव में बटोर सकेंगे यह कहना अभी कठिन है। इसलिए कि बिहार की जनता अब जातिवादी अस्मिता की खोल से बाहर निकल विकास पर केंद्रीत हो गयी है। इस सच्चार्इ को राबड़ी और तेजस्वी को भी स्वीकारना होगा। सच तो यह है लालू के जेल जाने के बाद पटना से लेकर दिल्ली तक का राजनीतिक समीकरण बदलेगा। यह लगभग स्पष्ट है कि कांग्रेस राजद से समझौता नहीं करेगी। उसके लिए अब लालू नहीं नीतीश ज्यादा प्रासंगिक हैं। कांग्रेस की अब पूरी कोशिश नितीश को अपने शामियाने में लाने की होगी। हालांकि कांग्रेस महासचिव दिगिवजय सिंह लालू को गहरी राजनीति का शिकार बता सहानुभूति जताते देखे जा रहे हैं। लेकिन इसका तात्पर्य यह कतर्इ नहीं कि कांग्रेस लालू की लालटेन में अपना भविष्य संवारने का मोह छोड़ नहीं पायी है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पहले भी राजद से समझौता न करने का संकेत दे चुके हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि नितीश अब लालू का खेल खराब करने और पटना से लेकर दिल्ली तक उन्हें अप्रसांगिक बनाने के लिए कांग्रेस से हाथ मिला सकते हैं। अगर दोनों मिलते हैं तो निश्चय ही बिहार दो ध्रुवीय राजनीति में बंटेगा। एक मोर्चे पर नितीश-कांग्रेस गठबंधन होगा तो दूसरे छोर पर भाजपा। दो राय नहीं कि नितीश को कांग्रेस के साथ जाने से चुनावी फायदा होगा लेकिन खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। बिहार की संवेदनशील जनता के बीच संदेश यही जाएगा कि वे उस कांग्रेस के साथ हैं जिसकी नेतृत्ववाली सरकार भ्रष्टाचार में आकंठ डुबी हुर्इ है। फिर ऐसे में नितीश किस मुंह से भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करेंगे? सच तो यह है कि नितीश के कांग्रेस के पाले में जाने से भारतीय जनता पार्टी को उन्हें घेरने का एक मौका और मिल जाएगा। जहां तक राजनीतिक लाभ-हानि का सवाल है तो अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन लालू के कमजोर पड़ने से अल्पसंख्यक जमात भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए नितीश-कांग्रेस गठबंधन को समर्थन कर सकता है। लेकिन जो लोग नितीश को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आइकान के रुप में पसंद कर गददी पर बैठाते रहे हैं वे उनसे दूर छिटक सकते हैं। इसका सीधा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा। अगर कहीं नितीश और कांग्रेस अल्पसंख्यक समुदाय को रिझाने के लिए तुष्टिकरण का दांव चलते हैं तो ऐसे में भारतीय जनता पार्टी भी बहुसंख्यकों को लामबंद करने में पीछे नहीं रहेगी। फिर ऐसे में बिहार की जनता का सांप्रदायिक रुप से बंटना तय होगा और इसका सर्वाधिक नुकसान नितीश को ही उठाना पड़ेगा। लेकिन इन राजनीतिक परिस्थितियों के बीच राजद की भूमिका को कमतर नहीं आंका जा सकता। बिहार में 14 फीसद यादव हैं और अधिकांष राजद समर्थक हैं। मुस्लिम-यादव यानी ‘मार्इ समीकरण के जरिए लालू बिहार में डेढ़ दशक सत्ता का भोग लगा चुके हैं। राबड़ी और तेजस्वी के नेतृत्व में राजद इस समीकरण को बनाए रखने की पूरी कोशिश करेगा। तेजस्वी इस आधार को बनाए रखने के लिए कांग्रेस और नितीश पर यह आरोप लगाने से नहीं चुकेंगे कि इन दोनों दलों ने मिलकर उनके पिता को जेल भिजवाया है। अगर कहीं यह दांव चल गया तो राजद को कुछ लाभ मिल सकता है। लेकिन अगर कहीं अल्पसंख्यक जमात राजद को छोड़ नितीश की ओर दौड़ लगाता है तो फिर लालू समर्थित यादव मत का छिटकना तय है। वह नितीश और कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए भारतीय जनता पार्टी का समर्थन कर सकता है। शायद इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रख भारतीय जनता पार्टी ने नंद किशोर यादव को बिहार विधान सभा का नेता चुना है। अब देखना दिलचस्प होगा कि ‘माइनस लालू बिहार की तस्वीर क्या उभरती है। लेकिन इतना सच है कि बिहार के चुनावी कुरुक्षेत्र में लालू का नकारात्मक योगदान उनके सकारात्मक योगदान पर भारी पड़ेगा। लालू का हश्र देख देश के अन्य सियासतदानों को समझ लेना चाहिए कि भ्रष्ट राजनीति से अर्जित धन लोक में शांति का आधार नहीं बनता।