सरकारी दबाव से हलकान हैं सरकारी बैंक

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अभी चालीस हजार करोड़ रुपयों के कर्ज माफी के दुष्परिणामों से सरकारी बैंक निकल भी नहीं पाए थे कि अब फिर से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों को 10,000 रुपयों तक के ऋण देने की योजना सरकार ने बनाई है। इसके लिए उनकी संपत्ति को बंधक नहीं बनाया जाएगा। पर गारंटी जरुर लगेगी। किसी भी साथी की गारंटी से काम चल जाएगा।

वित्त मंत्रालय की ओर से जारी बैंकों के लिए संदेश में साफ तौर पर कहा गया है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों को 10,000 रुपयों तक के ओवरड्रॉफ्ट की सुविधा देने के लिए तैयार रहें। इसके लिए उन्हें ऋण के लिए योग्य खेतिहर मजदूरों की लिस्ट बनाने के लिए भी कहा गया है।

इस ताजातरीन कवायद के पीछे सरकार का मकसद मजदूरों की उपभोग क्षमता को बढ़ाना है। कांग्रेसनीत सरकार का मानना है कि बढ़ती मंहगाई के कारण ग्रामीणों की कमर टूट गई है और वे अपने दिनचर्या को सुचारु रुप से पूरा करने में असमर्थ हैं। वर्तमान स्थिति में वे दाल-रोटी का भी जुगाड़ नहीं कर पा रहे हैं।

सरकार को डर है कि यदि हालत में सुधार नहीं होता है तो विकास की रफ्तार सुस्त पड़ जाएगी। चूँकि मौद्रिक और वित्तीय उपाय विकास की गति को तीव्रता प्रदान करने में नाकाम रहे हैं। इसलिए सरकार को लग रहा है कि गैर पारंपरिक तरीकों को अपनाकर वे अपने इरादों में कामयाब हो सकते हैं।

गौरतलब है कि सन्् 1980 में इसी तरह की जिम्मेदारी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को दी गई थी और सरकारी बैंकों ने उसे बखूबी अमलीजामा भी पहनाया था। पर कालांतर में इसतरह से बांटे गए ऋण डूब गए। उल्लेखनीय है कि कल्याणकारी सरकारी योजनाओं को पूरा करने के चक्कर में सरकारी बैंकों की स्थिति हमेशा से खस्ताहाल रही है। बावजूद इसके सरकार फिर से वही गलती करने जा रही है।

 

इसके बरक्स में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार का ताजा बयान भ्रम और विवाद पैदा करने वाला है। दरअसल सरकार फिर से सरकारी बैंकों पर ईमानदार किसानों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में किसान क्रेडिट कार्ड बाँटने के लिए दबाव बना रही है। सरकार का कहना है कि इससे विविध उत्पादों की मांग बढ़ेगी और खाद्यान्न के उत्पादन में भी इजाफा होगा। स्पष्ट है कि इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी और आसन्न मंदी से ग्रामीण भारत को बचाया जा सकेगा।

ज्ञातव्य है कि इसी कांग्रेसनीत सरकार ने वोट के लिए 2009 में होनेवाले लोकसभा चुनावों के ठीक पहले 2008 में 40,000 करोड़ रुपयों को तथाकथित उन चूककर्त्ता किसानों के बीच बांटा था, जो अर्थाभाव के कारण बैंक का कर्ज नहीं लौटा पा रहे थे।

जाहिर है कि किसानों को दी गई कर्ज माफी से कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला है। कर्ज माफी के अधिकांश लाभार्थी आज भी बेईमान हैं। हाँ, जो किसान ईमानदार थे, अब वे भी बेईमान बन गए हैं। ईमानदार किसानों को ढूंढना अब रेत में से सोने के कण ढूंढने के समान है। बैंकर और सम्पन्न किसानों ने भी मिलकर कर्ज माफी की राशि की जमकर हेराफेरी की। इसके बरक्स में मध्यप्रदेष के अपेक्स बैंक के अंकेक्षकों ने करोड़ों रुपयों के घपले का पर्दाफाश किया है। बैंकों के द्वारा गलत आंकड़ा प्रस्तुत करने के अनेकानेक मामले प्रकाश में आए हैं। जानबूझकर अयोग्य किसानों को कर्ज माफी का फायदा पहुँचाया गया। इस पूरी प्रक्रिया में नियमों की अनदेखी की गई और जमकर जनता के खून-पसीने की कमाई का दुरुपयोग किया गया।

लगता है महाराजा को कंगाल बनाने के बाद भी सरकार को होश नहीं आया है। 1980 में भी बेतुके एवं अतार्किक तरीके से कर्ज बाँटने और बाद में उसके डूबने से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कमर टूट गई थी। कल्याणकारी योजनाओं से किसी को परहेज नहीं है। लेकिन कर्ज माफी और सरकारी योजनाओं को केवल लागू करवा कर सरकार को अपने कर्त्तव्य से मुख नहीं मोड़ना चाहिए। योजनाओं का लाभ हितकारी तक पहुँचाना भी उसी का काम है।

 

सतीष सिंह

 

 

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