हैदराबाद एक्शन को लेकर नेहरु-पटेल मतभेदों पर डा. मुंशी का प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य

लालकृष्ण आडवाणी

book-pilgrimage-to-freedom-201x300गत् वर्ष सरदार पटेल की जयन्ती की पूर्व संध्या यानी 30 अक्टूबर, 2012 को नई दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक पायनियर ने एक समाचार प्रकाशित किया जिसके अनुसार हैदराबाद में सेना भेजने के सरदार पटेल के फैसले के विरोध के फलस्वरुप प्रधानमंत्री नेहरु द्वारा उन पर की गई तीखी टिप्पणियों के चलते सरदार पटेल एक महत्वपूर्ण मंत्रिमंडलीय बैठक से उठकर चले गए।

तब से, विशेषकर मेरे द्वारा अपने एक ब्लॉग में पायनियर के इस समाचार का उपयोग करने के बाद से बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। निस्संदेह यह समाचार एक आइएस अधिकारी श्री एम.के.के. नायर जिनकी मृत्यु 1987 में हुई, द्वारा लिखित एक मलयालम पुस्तक पर आधारित है। जैसाकि मैंने अपने एक ब्लॉग में उल्लेख किया था कि पुस्तक का अनुवाद अंग्रेजी में हो रहा है, परन्तु अभी तक यह प्रकाशित नहीं हुई है।

जो लोग इस मलयालम पुस्तक के कथ्य पर संदेह उठा रहे हैं और मानते हैं कि हैदराबाद की कार्रवाई पर तथाकथित मतभेद लेखक के पूर्वाग्रह आधारित कल्पना की उपज है। वे इस तथ्य पर जोर दे रहे हैं कि एमकेके नायर की पहुंच भारत सरकार की एक कमेटी की बैठक में होने वाली कार्रवाई तक नहीं हो सकती।

मेरे सामने 1967 में प्रकाशित डा. के.एम. मुंशी द्वारा लिखित सुव्यवस्थित दस्तावेजों पर आधारित 621 पृष्ठों की वाली पुस्तक ‘पिलग्रिमेज टू फ्रीडम‘ है। हैदराबाद में पुलिस कार्रवाई से पूर्व श्री मुंशी भारत के एजेंट जनरल थे। इस पुस्तक में हैदराबाद में सैन्य कार्रवाई से सम्बन्धित अध्याय को मैं विस्तृत रुप से उदृत कर रहा हूं। यह अध्याय, घटनाक्रम में भाग लेने वाले की ओर से ठोस प्रमाण देता है तथा मलयालम पुस्तक में वर्णित घटनाओं की सत्यता को भी प्रमाणित करता है।

अध्याय इस विस्तृत पैराग्राफ से शुरु होता है :

”भारतीय रजवाड़ों में हैदराबाद निजाम सर्वाधिक महत्वाकांक्षी था जिसने 12 जून, 1947 को घोषित कर दिया कि ”निकट भविष्य में सर्वोच्च ताकत के जाने का अर्थ होगा कि मैं एक स्वतंत्र सम्प्रभु दर्जे को फिर से पाने हेतु मेरा सक्षम होना। ”उसने बेरार, जो कभी उनके राज्य का हिस्सा था, को ‘वापस लेने‘ की मांग भी की और अपने राज्य के लिए समुद्र तक पहुंच बनाने के लिए, गोवा के बंदरगाह, लेने के लिए पुर्तगाल से बातचीत शुरु की।

निजाम ने अपने दिल में ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का ‘तीसरा स्वतंत्र उपनिवेश‘ बनने का सपना संजो लिया। समझा जाता है क्राउन रिप्रिजेन्टटिव के सलाहकार सर कोनार्ड कॉफील्ड इसके प्रायोजक थे। यह सम्भव है कि उसने स्वयं ही यह विचार पहले पहल निजाम को सुझाया हो।

लम्बी वार्ताओं के बाद हैदराबाद और भारत के बीच 29 नवम्बर 1947 को एक वर्ष के स्टैन्ड्रास्टिल समझौते पर हस्ताक्षर हुए। उस अवसर पर सरदार ने संविधान सभा में अपने वक्तव्य में यह आशा प्रकट की कि इस अवधि में हैदराबाद के स्थायी रुप से विलीनीकरण का मार्ग प्रशस्त होगा।

सरदार ने मुझे (डा. के.एम. मुंशी) हैदराबाद में भारत संघ के एजेंट-जनरल बन कर जाने को कहा क्योंकि स्टैन्ड्रास्टिल समझौते के तहत दोनों पक्षों द्वारा ऐसी नियुक्ति करनी थी। जब मैंने गांधी जी से परामर्श किया तो उन्होंने इसको अपनी स्वीकृति दी; अत: मैंने इसे स्वीकार कर लिया परन्तु बदले में कुछ भी लेने से इंकार किया।”

अध्याय में आगे लिखा है:

दिल्ली में बैठे कुछ लोगों द्वारा हैदराबाद समस्या हेतु समानांतर नीतियों के चलते हैदराबाद में मेरी (डा. के.एम. मुंशी की) स्थिति काफी असहज थी क्योंकि सरदार और वी.पी. मेनन मेरे माध्यम से राज्य का विलय उन्हीं शर्तों पर कराने का प्रयास कर रहे थे जैसाकि अन्य राज्यों का किया गया था। गर्वनर जनरल लार्ड माऊंटबेंटन निजाम के प्रधानमंत्री लाइक अली से बातचीत कर रहे थे, जिसे सर वाल्टर माक्टॉन का समर्थन प्राप्त था और हैदराबाद को पर्याप्त स्वायत्तता प्रदान करने हेतु तैयार थे। यदि निजाम संघ में आने हेतु एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दे।

सरदार द्वारा अपनाई गई नीति के नेहरु विरोधी थे। एक अवसर पर, सरदार को सुझाया गया कि हैदराबाद में मेरे स्थान पर किसी और को भेजा जाए। सरदार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। अनेक अवसरों पर मुझे तब हताशा हुई जब मेरे प्रधानमंत्री को मेरे पर विश्वास नहीं था, जबकि प्रत्येक समय मैंने उन्हें इत्तेहाद द्वारा ढहाए जा रहे अत्याचारों पर निष्पक्ष पुष्ट प्रमाण भी दिए। यदि सरदार का मुझ पर विश्वास नहीं होता तो मैं यह काम कब का छोड़ चुका होता।

निजाम और उसके सलाहकारों की हठधर्मिता के चलते हैदराबाद की स्थिति अनवरत रुप से टकराव की तरफ बढ़ रही थी, ऐसे में सरदार ने निजाम की सरकार को यह संदेश भिजवाना उचित समझा कि भारत सरकार की सहन शक्ति तेजी से समाप्त होती जा रही है। तद्नुसार इस आशय का एक संदेश स्टेट्स मिनिस्ट्री की ओर से वी.पी. मेनन द्वारा भेजा गया।

जब यह जवाहरलाल नेहरु को पता चला तो वह बहुत नाराज हुए। जिस दिन हमारी सेना हैदराबाद को मार्च करने वाली थी, उससे एक दिन पूर्व उन्होंने मंत्रिमण्डल की रक्षा समिति की बैठक बुलाई। इसमें तीनों सेनाध्यक्षों को नहीं बुलाया गया। यह बैठक प्रधानमंत्री के कक्ष में हुई और जवाहरलाल नेहरु, सरदार, मौलाना आजाद, तत्कालीन रक्षा और वित्त मंत्री, स्टेट सेक्रेटरी वी.पी. मेनन और रक्षा सचिव एच.एम. पटेल इसमें मौजूद थे।

विचार-विमर्श मुश्किल से शुरु हुआ ही था कि जवाहरलाल नेहरु क्रोध में उबलते हुए आए और हैदराबाद के सम्बन्ध में सरदार की कार्रवाई और नीति पर उनको फटकारा। उन्होंने अपना गुस्सा वी.पी. मेनन के विरुध्द भी प्रकट किया। उन्होंने अपना गुस्सा इस टिप्पणी के साथ समाप्त किया कि भविष्य में, हैदराबाद से सम्बधित सभी मामलों में वह स्वयं उपस्थित रहेंगे। उनके हमले का आवेग, और समय ने सभी मौजूदा लोगों को सकते में डाल दिया। इस दौरान सरदार बगैर एक शब्द बोले बैठे रहे। तब वह उठे और वी.पी. मेनन के साथ बैठक से बाहर चले गए। बैठक बगैर कुछ काम किए स्थगित हो गई।

वी.पी. मेनन ने जवाहरलाल नेहरु से अपना विरोध दर्ज कराया कि यदि वे इस सम्बन्ध में ऐसी सोच रखते हैं तो स्टेट्स मिनिस्ट्री में मेरे (मेनन) बने रहने का कोई अर्थ नहीं है।

तब तक प्रधानमंत्री को महसूस हो चुका था कि उन्होंने कुछ ज्यादा ही कर दिया है तथा उन्होंने मेनन से माफी मांगी। उन्होंने सरदार के हाथों से हैदराबाद का विभाग छीन लेने की अपनी धमकी पर कभी अमल नहीं किया, और उधर सरदार पुलिस कार्रवाई के सम्बन्ध में अपने कार्यक्रम पर टस से मस नहीं हुए। उसके बाद दोनों में फिर कभी हैदराबाद के विषय पर विचार-विमर्श नहीं हुआ।

श्री वी.पी. मेनन और एच.एम. पटेल पूववर्ती घटना के की सच्चाई का अंदाजा लगा चुके थे।

 

पुलिस कार्रवाई शुरु होने के निर्धारित समय से थोड़ा पहले जब ब्रिटिश सेना प्रमुख ने कार्रवाई को टालना चाहा तो सरदार निर्धारित समय-सीमा पर डटे रहे और हमारी सेनाओं ने हैदराबाद में प्रवेश किया।

तेजी से कार्रवाई हुई। जैसे ही सेना सामने आई तो निजाम की तिनके भरी सत्ता ढह गई।

वी.पी. मेनन की पुस्तक ”दि इंटीग्रेशन ऑफ स्टेट्स” के अनुसार कासिम रिज़वी के एक भाषण में कहा गया था कि यदि भारत देश, हैदराबाद आता है तो उसे डेढ़ करोड़ हिन्दुओं की हड्डियों और राख के सिवाय कुछ और नहीं मिलेगा।

13 सितम्बर को सेना का ‘ऑपरेशन पोलो‘ शुरु हुआ। 17 सितम्बर को ऑपरेशन समाप्त हुआ और लाइक अली तथा उनके मंत्रिमंडल ने अपने त्यागपत्र दे दिए। उसी दिन निजाम ने अपनी सेना को भारतीय सेनाओं के सम्मुख हथियार डालने को कहा। समुचे देश में एक भी साम्प्रदायिक घटना नहीं घटी।

टेलपीस (पश्च्यलेख)

सैनिक कार्रवाई की सफलता के पश्चात् श्री के.एम. मुंशी ने एजेंट-जनरल के पद से त्यागपत्र दे दिया। स्टेट्स मिनिस्ट्री ने एक प्रेस नोट जारी कर मुक्त कंठ से प्रशंसा की कि कैसे मुंशीजी ने सौंपे गए काम को पूरी तन्मयता से किया।

मुंशी अपनी पुस्तक ”पिलग्रिमेज टू फ्रीडम” में लिखते हैं:

जब मैं दिल्ली लौटा तो सरदार ने आग्रह किया कि मुझे शिष्टाचार के नाते जवाहरलाल नेहरु से मिलना चाहिए। जब मैं संसद भवन स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय गया तो वह अपने अन्त: कक्ष से बाहर आए और ठंडेपन से मुझसे मिले: ”हैलो मुंशी।” मैंने कहा ”मैं आप से मिलने आया था और अब मैं दिल्ली वापस आ गया हूं।‘ वह लगभग ऐसे मुड़े जैसे जाने वाले हों; तब वह पीछे मुड़े; हाथ मिलाया और चले गए।

मैंने सरदार को बताया कि जवाहरलाल नेहरु से भेंट की उनकी सलाह मानकर कैसे मुझे दु:ख हुआ। सरदार हंसे और कहा ”उनमें से कुछ तुमसे इसलिए खफा हैं कि तुमने इत्तेहाद की ताकत समाप्त करने में सहायता की। कुछ अन्य इसलिए गुस्सा हैं कि तुमने हैदराबाद से निजाम को सीधे हटाने नहीं दिया। कुछ अपना गुस्सा मुझ पर नहीं उतार सकते और इसलिए तुम्हें निशाना बना रहे हैं।”

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