ईश्वरीय ज्ञान वेदों के 6 अंग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष हैं:

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ईश्वरीय ज्ञान वेदों के 6 अंग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त,

छन्द और ज्योतिष हैं: डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री

-मनमोहन कुमार आर्य

श्रीमद् दयानन्द आर्ष ज्योतिर्मठ गुरुकुल, पौंधा, देहरादून उत्तराखण्ड राज्य का वैदिक विद्या के अध्ययन का एक प्रमुख केन्द्र है। सन् 2000 में स्थापित यह गुरुकुल अपने जीवन के 17 वर्ष पूरे कर 18वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। अपनी कुछ सफलताओं के कारण यह गुरुकुल देश-विदेश में विख्यात हो गया है। आचार्य डा. धनंजय आर्य इस गुरुकुल के प्राचार्य हैं जो रात-दिन परिश्रम वा तप करके इस गुरुकुल को एक आदर्श गुरुकुल का रूप देने का प्रयास कर रहे हैं। इस गुरुकुल का 18वां वार्षिकोत्सव आज 2 जून, 2017 को सोल्लास आरम्भ हुआ है। आज प्रातः 7.00 बजे उत्सव का उद्घाटन किया गया जिसके बाद गुरुकुल की भव्य एवं विशाल यज्ञशाला में बहुकुण्डीय सामवेद पारायण यज्ञ हुआ। 4 जून, 2017 तक चलने वाले इस यज्ञ के ब्रह्मा आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई हैं। यज्ञ में मन्त्रोच्चार गुरुकुल के ब्रह्मचारियों ने किया। यज्ञ की समाप्ति पर ओ३म् ध्वजारोहण किया गया है। ध्वजारोहण गुरुकुल के संस्थापक एवं संचालक स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी ने किया। इस अवसर पर उन्होंने उत्सव में देश भर से पधारे वैदिक धर्म प्रेमी आर्य बन्धुओं को सम्बोधित भी किया। ध्वजारोहण के अनन्तर ‘ओ३म् ध्वज’ गीत का गान गुरुकुल के ब्रह्मचारियों के साथ मिलकर सभी अतिथि धर्मप्रेमियों ने किया।

 

प्रातः 10.00 बजे ब्रह्मचारी सुखदेव के प्रभावशाली दो भजन हुए जिसमें से एक भजन के प्रारम्भ के शब्द थे ‘तेरी चाहना की हमें चाहना है।’ भजनों के बाद ‘वेद-वेदांग सम्मेलन’ आरम्भ हुआ। सम्मेलन का अध्यक्ष गुरुकुल चित्तौड़गढ़ के स्नातक श्री देवेन्द्र आर्य जी को बनाया गया। इससे पूर्व गुरुकुल के प्राचार्य आचार्य डा. धनंजय जी ने सम्मेलन की भूमिका प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि मनुष्य जीवन के दुःखों को दूर करने का साधन वेदों का ज्ञान व उसके अनुसार आचरण है। आचार्य जी ने नास्तिक शब्द की चर्चा करते हुए कहा कि नास्तिक वेद ज्ञान से विपरीत आचरण करने वाले वा वेदों को न मानने वालों को कहते हैं। जो मनुष्य विवेकी नहीं होते वह भी नास्तिक ही होते हैं। आचार्य धनंजय जी ने आर्य विद्वान डा. वेदव्रत आलोक जी का परिचय भी कराया। आचार्य जी ने गुरुकुल की स्थापना में सहयोगी संस्कृत व्याकरण के स्वर्गीय आचार्य पं. भीमसेन शास्त्री को स्मरण किया व गुरुकुल की स्थापना में उनके योगदान की चर्चा करते हुए उनका आभार प्रदर्शित किया। गुरुकुल की स्थापना के लिए भूमिदाता श्री कान्त वर्मा जी का भी स्मरण आचार्य धनंजय जी द्वारा किया गया। उनका धन्यवाद भी इस अवसर पर किया गया। वेद-वेदांग सम्मेलन में मंच को जिन विद्वानों ने सुशोभित किया उनके नाम हैं स्वामी प्रणवानन्द शास्त्री, डा. रघुवीर वेदालंकार, डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री, पं. वेदप्रकाश श्रोत्रिय, डा. सोमदेव शास्त्री, श्री देवेन्द्र आर्य, श्री इन्द्रजित् देव एवं डा. वेदव्रत आलोक जी। वेद वेदांग सम्मेलन का संचालन गुरुकुल के ही स्नातक प्रा. डा. रवीन्द्र आर्य जी ने किया। उन्होंने प्रथम व्याख्यान के लिए आर्यजगत के सुप्रसिद्ध विद्वान डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री जी को आमंत्रित किया।

 

अपने व्याख्यान के आरम्भ में डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री ने कहा कि गुरुकुल पौंधा का अब तक का इतिहास प्रकाशित किया जाना चाहिये। उन्होंने बताया कि वह विगत 12-13 वर्षों से गुरुकुल के उत्सव में भाग ले रहे हैं। आचार्य ज्वलन्त शास्त्री जी ने कहा कि वेद 4 हैं जिनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। उन्होंने कहा कि वेदांग वेद के अंगों को कहते हैं। इनके नाम शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष हैं। आचार्य जी ने बताया कि वेदांग शरीर के अंगों की भांति नहीं हैं। जिन ग्रन्थों व विद्या के द्वारा वेदों को ठीक ठीक समझा जाये, उन्हें वेदांग कहते हैं। उन्होंने कहा कि उत्पादन उसी चीज का होता है जिसकी समाज में मांग होती है। वेदों के विद्वानों की देश व समाज में जितनी मांग होगी उतनी ही मात्रा में वेदों के विद्वान बनेंगे। स्वामी दयानन्द जी के जीवन काल में वेदों में सभी विद्याओं की यथार्थ गहराई से लोग परिचित नहीं थे। वेदों में किस प्रकार का कैसा ज्ञान है, यह दयानन्द के समकालीन पण्डितों को पता नहीं था। ऋषि दयानन्द ने वेदों का प्रचार, वेदों का संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य, विपक्षी विद्वानों से शास्त्रार्थ एवं ग्रन्थ लेखन द्वारा वेदों का सच्चा स्वरूप देश व समाज के सामने प्रस्तुत किया।

 

आचार्य डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री ने 6 वेदांगों में प्रथम शिक्षा विषयक अंग पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि अ, आ, इ, ई, उ आदि  वर्ण व अक्षर कहलाते हैं। इन वर्णों का कैसे उच्चारण किया जाये, उच्चारण के लिए क्या प्रयत्न करने हैं, अक्षरों की संख्या व कितने प्रकार के अक्षर हैं, जिस शास्त्र में इसकी चर्चा है, उसे ‘शिक्षा’ कहते हैं। शिक्षा को ही ध्वनि विज्ञान भी कहते हैं। वेद परमात्मा का ज्ञान है और वेद पूर्ण हंै। वेदों से प्रेरणा लेकर प्राचीन ऋषियों ने शिक्षा शास्त्र वा ध्वनि विज्ञान का निर्माण किया। आचार्य जी ने बताया कि कलकत्ता में अंग्रेजी सरकार के सुप्रीम कोर्ट के जज विलियम जोंस ने सन् 1781 में समस्त भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत का अध्ययन करने का विचार किया। विलियम जोंस अनेक भाषाविद थे। कोई ब्राह्मण उन्हें संस्कृत पढ़ाने के लिए तैयार नहीं हुआ। एक गरीब ब्राह्मण जिसे अपनी पुत्री का विवाह करना था, आर्थिक कारणों से उन्हें संस्कृत पढ़ाने के लिए सहमत हुआ। जिस कक्ष में वह पढ़ते थे, उसे गाय के गोबर से लीपा जाता था। पण्डित जी का आसन ऊंचा और जज महोदय का आसन नीचा रखा जाता था। धोती पहन कर वह संस्कृत पढ़ने के लिए बैठते थे। पण्डित जी की अन्य अनेक शर्तों को भी उन्होंने स्वीकार किया था। संस्कृत पढ़कर विलियम जोंस की आंखे खुल गई। उन्होंने सन् 1786 में एक भाषण दिया। उन्होंने कहा कि संस्कृत की तुलना में यूरोप की सभी भाषायें अपूर्ण हैं। संस्कृत पूर्ण भाषा है। इसी से भाषा विज्ञान की नींव पड़ी। आचार्य जी ने संस्कृत भाषा की पुत्री हिन्दी की चर्चा की। आचार्य जी ने कहा कि बचपन में मनोहर पोथी के आधार पर हमें क से कबूतर, ख से खरगोश पढ़ाया जाता था। इसी के आधार पर हिन्दी भाषा के वर्ण वा अक्षरों का ज्ञान कराया जाता था। आचार्य जी ने प्रश्न किया कि किस भाषा की वर्णमाला सही है व वैज्ञानिक है? उन्होंने स्वयं उत्तर दिया कि हिन्दी वर्णमाला सही एवं वैज्ञानिक है।  आचार्य जी ने कहा कि हिन्दी भाषा के स्वर व व्यंजन अक्षरों अ, आ, इ, ई आदि एवं क, ख, ग, घ, ड., च, छ, ज, झ, ञ का क्रम ठीक है एवं पूर्णतया वैज्ञानिक भी है। आचार्य जी ने बताया कि ऋषि दयानन्द को सन् 1879 में प्रयाग में एक ब्राह्मण के यहां संस्कृत-हिन्दी अक्षरमाला की पोथी के कुछ पत्रे मिले थे। स्वामी जी ने इस पोथी का सम्पादन कर इसे वर्णोच्चारण शिक्षा के नाम से प्रकाशित कराया। इस ग्रन्थ की भूमिका महत्वपूर्ण है जिसे सभी को पढ़ना चाहिये। यही ग्रन्थ वेदांगों में प्रथम शिक्षा विषय का प्रमुख, एकमात्र व पूर्ण ग्रन्थ है।

 

शब्दों के उच्चारण की चर्चा कर आचार्य ज्वलन्त जी ने कहा कि शब्दोच्चारण में शरीर के नाभि प्रदेश से वायु संचरित होती है। कण्ठ से शब्द प्रस्फुटित होते हैं। स्वर स्वयं प्रकाशित होते हैं। प्रथम स्वर अ अक्षर है। पहला व्यंजन कण्ठ से ‘क’ निकलता है। कण्ठ से पांच व्यंजन क, ख, ग, घ आदि निकलते हैं। तालु से च, छ, ज, झ व ञ इन पांच को ही बोला जाता है। छठा नहीं बोल सकते। आचार्य जी ने मूर्धा व दन्त आदि स्थानों से निकलने वाले व्यंजनों व उनके उच्चारण पर भी प्रकाश डाला। आचार्य जी ने कहा कि यह वर्णोच्चारण शिक्षा वा शिक्षा वेदों का अंग है। आचार्य जी ने दूसरे वेदांग कल्प की चर्चा करते हुए कहा कि इसके प्रमुख ग्रन्थ श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र, शुल्भ सूत्र = रेखागणित आदि व धर्म सूत्र = धर्म शास्त्र  हैं। व्याकरण, निरुक्त व निघण्टु, छन्द एवं ज्योतिष अन्य चार वेदांगों की भी आचार्य जी ने चर्चा की और इन पर प्रकाश डाला। व्याकरण के अन्तर्गत आचार्य जी ने शब्द की घातु, क्रियाओं एवं शब्द उत्पत्ति की चर्चा की। आचार्य जी ने कहा कि निरुक्त ग्रन्थ से पता चलता है कि किस शब्द का अर्थ कैसे निकलेगा। इसे अर्थ विज्ञान कह सकते हैं। आचार्य जी ने गौ शब्द के अर्थ पर चिन्तन व इसके अर्थ पर विचार प्रस्तुत किये। आचार्य जी ने निघण्टु ग्रन्थ की भी चर्चा की। वेदों की चर्चा करते हुए आचार्य जी ने कहा कि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान ईश्वर से उनके अन्तःकरण में प्राप्त हुआ। आचार्य जी ने कहा कि दो प्रकार के ऋषि होते हैं। प्रथम ऋषि, अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा, वह हैं जिन्हें अमैथुनी सृष्टि में ईश्वर से उनके अन्तःकरण में 4 वेदों का ज्ञान प्राप्त होता है। यह ऋषि अपने पूर्व जन्म व प्रारब्ध के कारण निर्मल अन्तःकरण वाले होते हैं। दूसरे ऋषि वह हैं जिन्होंने योगाभ्यास आदि साधनायें कीं और वेदों के मन्त्रों के अर्थ का चिन्तन करते हुए उनका साक्षात्कार किया और उसके बाद वेदों वा मन्त्रों के अर्थों का प्रचार किया। मन्त्रों के प्रथम द्रष्टा इन ऋषियों का नाम सम्मानार्थ वेद मन्त्र के साथ लिखे जाने की परम्परा चली आ रही है। आचार्य जी ने कहा कि तीसरी कोटि के ऋषि वे हैं जिन्होंने मंत्रों को याद किया, उनका बार बार पाठ किया तथा वह वेद मंत्रों के उच्चारण व पाठ आदि कर उन्हें स्मरण करने का अभ्यास किया करते थे। उन्होंने ही वेद के मन्त्रों को कण्ठ कर लिया था। ऐसे ऋषियों से ही वेदांगों व उपांगों की रचना हुई है। यह तृतीय कोटि के ऋषि हुए।

 

आचार्य डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री ने श्रोताओं को ऋषि दयानन्द कृत वेदभाष्य को पढ़ने की प्रेरणा की। आचार्य जी ने पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी जी व उनके अथर्ववेद भाष्य की चर्चा की। उन्होंने बताया कि पं. त्रिवेदी 56 वर्ष की आयु में रेलवे विभाग से सेवा निवृत्त हुए थे। उसके बाद लगभग 20 वर्षों तक उन्होंने संस्कृत पढ़ी। त्रिवेदी की उपाधि के लिए उन्होंने परीक्षा दी और उसमें उत्तीर्ण हुए। उन्होंने लगभग 78 वर्ष की आयु में अथर्ववेद भाष्य की रचना का कार्य आरम्भ किया और उसे पूर्ण किया। सेवा निवृत्ति के बाद अध्ययन करने वालों में आचार्य जी ने सुप्रसिद्ध आर्य विद्वान, नेता एवं उपनिषदों के भाष्यकार सहित अनेक प्रसिद्ध ग्रन्थों के रचयिता महात्मा नारायण स्वामी का भी उल्लेख किया। आचार्य ज्वलन्त कुमार शास्त्री जी के बाद डा. वेदव्रत आलोग, पं. वेदप्रकाश श्रोत्रिय, डा. रघुवीर वेदालंकार जी के महत्वपूर्ण एव उपयोगी व्याख्यान भी वेद-वंेदांग सम्मेलन में हुए। पूर्व खेलमंत्री नारायण सिंह राणा ने भी अपने विचार प्रस्तुत किये। इसके साथ ही वेद वेदांग सम्मेलन सम्पन्न हुआ। अपरान्ह 3.00 बजे से सामवेद पारायण यज्ञ डा. सोमदेव शास्त्री के ब्रह्मत्व में आरम्भ हुआ। यज्ञ के पश्चात डा. रघुवीर वेदालंकार की अध्यक्षता में ‘गोरक्षा सम्मेलन’ हुआ। इस सम्मेलन से पूर्व सहारनपुर के श्री नरेन्द्र तथा ब्रह्मचारी मुकेश के भजन हुए। गोरक्षा विषय पर सम्बोधन आर्य विद्वान पं. इन्द्रजित् देव, डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री, डा. सूर्याकुमारी चतुर्वेदा तथा डा. रघुवीर वेदालंकार ने प्रस्तुत किया। बहुत उपयोगी एवं सामयिक विचार इस सम्मेलन में प्रस्तुत किये गये। सम्मेलन का संचालन डा. धनंजय एवं प्रो. रवीन्द्र कुमार ने किया। रात्रिकालीन सभा में पं. वेद प्रकाश़ श्रोत्रिय जी और स्वामी धर्मेश्वेश्वरानन्द जी का सारगर्भित सम्बोधन हुआ। अन्य कुछ व्याख्यानों को हम विस्तारपूर्वक पृथक लेखों में प्रस्तुत करेंगे। इन आयोजनों में बहुत बड़ी संख्या में स्त्री, पुरुष व ऋषि भक्त सम्मिलित हुए। गुरुकुल प्रेमियों के भोजन आदि की सभी व्यवस्थायें बहुत अच्छी हैं। अनेक पुस्तक विक्रेताओं ने अपने स्टाल लगायें हुए हैं। ओ३म् शम्।

 

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