कभी चल पड़ते हैं हम सर छत्र धारे !

कभी चल पड़ते हैं हम सर छत्र धारे,
छोड़ चल देते कभी सारे नज़ारे;
प्रीति की कलिका कभी चलते सँवारे,
सुर लिए कोई कभी रहते किनारे !

 

ज़माने की भीड़ में उर को उबारे,
हिय लिए आनन्द की अभिनव सी धारें;
भास्वर भव सुरभि की अनुपम घटाएँ,
विश्व विच व्यापक विलोके चिर विधाएँ !

 

भावना की बाढ़ में आती आतीं गुहाएँ,
साधना की सीढ़ियों पर लख गुफाएँ;
शून्य में जो दीखतीं हैं कन्दराएँ,
सौर्य मंडल में छिपी कुछ ग्रह शिलाएँ !

 

अजब से माधुर्य में जब तब समाए,
ध्यान की गोधूलि में कुछ गान गाए;
कवि हृदय की गुनगुनाहट मन रमाए,
नाद सरिता के सलिल का स्वर सजाए !

 

आ रहीं हैं वक़्त की ऐसी फ़िज़ाएँ,
गा रहीं हैं दुन्दुभी दे दश दिशाएँ;
ज़िन्दगी में दे रहीं ऐसी फुहारें,
‘मधु’ को प्रभु हृद मिलीं सारी बहारें !

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