मुफ्तखोरी से मुक्ति का संकल्प लेने का वक्त

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15 अगस्त पर विशेष लेख

मनोज कुमार
हर बार की तरह एक बार फिर हम स्वाधीनता पर्व मनाने जा रहे हैं. हर बार की तरह हम सबकी जुबान पर शिकायत होगी कि आजादी के 70 सालों के बाद भी हम विकास नहीं कर पाये. कुछ लोगों की शिकायतों का दौर यह होता है कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का शासन था. यह समझ पाना मुश्किल है कि क्या इन 70 सालों में भारत ने विकास नहीं किया? क्या विश्व मंच पर भारत की उपस्थिति नहीं दिखती है? क्या भारत ने स्वयं को महाशक्ति के रूप में स्थापित करने में सफलता प्राप्त नहीं की है? इन सवालों का जवाब हां में होगा तो फिर विकास का पैमाना क्या हो? सन् 1947 से लेकर 2017 तक का जब हम आंकलन करते हैं तो पाते हैं कि ऐसा कोई सेक्टर नहीं है जहां भारत ने कामयाबी के झंडे नहीं फहराया हो लेकिन भारतीय मानसिकता हमेशा से शिकायत की रही है और हम तकियाकलाम की तरह विकास नहीं होने की बात को कहते रहे हैं. यह शिकायत की मानसिकता हमारी ऐसी बन चुकी है कि हम अपने देश पर अभिमान कर नहीं पाते हैं. हम अपने देश की खूबियों को भी लोगों के सामने नहीं रख पाते हैं. दरअसल, भारत जैसे महादेश में लोगों ने अपने अपने टापू सरीखे घर और मन बना लिए हैं, जहां वे स्वयं को कैद रखते हैं. वे बाहर की दुनिया से कटे हुए हैं और उन्हें लगता है कि बाकि दुनिया विकास के आसमां छू रही है और भारत को अभी बहुत कुछ करना बाकी है.
इस शिकायतनामा को आप खारिज नहीं कर सकते हैं क्योंकि विकास सतत प्रक्रिया है और जितना हुआ या हो रहा है, उससे आगे की उम्मीद बनी रहती है. इस स्वाधीनता पर्व पर हमें नागरिक जिम्मेदारी के साथ आगे आना होगा. अपने आपसे यह वायदा करना होगा कि देश के विकास के लिए पहले वह अपने आसपास का विकास करेंगे. इसके लिए सबसे पहली और जरूरी शर्त है कि हम स्वयं को आत्मनिर्भर बनायें. शिकायतों की बात करें तो हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि इन 70 सालों में हम पराश्रित रहे हैं. हमारी निर्भरता हर बात पर सरकार पर रही है. हम उम्मीद करते हैं कि हमारी हर जरूरत सरकार पूरा करेगी. फिर वह बुनियादी जरूरतें यथा सडक़, पानी, बिजली, स्वास्थ्य और रोजगार दिलाने का काम सरकार का है. मुसीबत टूटने पर सरकार को कोसने में हम पीछे नहीं हटेंगे.
लेकिन क्या कभी हमने अपने अपने स्तर पर सोचा है कि इस देश के प्रति, भारत की माटी के प्रति हमारा अपना भी कोई दायित्व है? कोई कर्तव्य है? शायद नहीं. हमने तो केवल और केवल अधिकारों की बात की है. हमारी इस कमजोरी को राजनीतिक दलों ने बखूबी भांप लिया है और यही कारण है कि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में ऐसे वायदे किए जाते हैं, जिसे पूरा करने का अर्थ नागरिकों को निकम्मा बनाना है. बहुत ज्यादा वक्त नहीं हुए हैं. लगभग दो दशक से लोकतांत्रिक और चुनी हुई सरकारों ने आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बजाय उनकी निजी जरूरतों को पूरा करने में अपना ध्यान लगा दिया है. रोजगार के अवसर उत्पन्न करना सरकार का काम है लेकिन लगभग मुफ्त की कीमत में खाद्यान्न उपलब्ध कराना सरकार का काम नहीें है लेकिन सरकारें ऐसा कर रही हैं. बच्चे के पैदा होने से लेकर उसकी शादी-ब्याह तक की जिम्मेदारी सरकार ने ओढ़ ली है. यह काम सरकार का नहीं है. सरकार का काम है कि समाज को बेहतर शिक्षा, रोजगार के बेपनाह अवसर, अच्छी सडक़ें, बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था और अपराधमुक्त समाज की संरचना करना है तो यह सारे काम पीछे छूटकर अन्नप्रासन्न संस्कार से लेकर तीर्थदर्शन तक की जवाबदारी सरकार सम्हाल रही है.
राजनीतिक दलों ने वोटबैंक पक्का करने के लिए स्वयं को समाज की बुनियादी ढांचा दुरूस्त करने से खुद को दूर कर लोकलुभावन की योजनाओं को अमल में लाने की पहल की है. आम आदमी को लगता है कि सरकार उसके लिए चिंतित है लेकिन सच तो इसके खिलाफ है क्योंकि हमारी दैनंदिनी जरूरतों के लिए हमें स्वयं को मेहनत करना चाहिए तो हमें वह सब करने की जरूरत नहीं है. राजनीतिक दलों की इस मेहरबानी से समाज की समरसता टूट रही है. इसी समाज के एक बड़े वर्ग को राहत देने की बेवजह कोशिशों से एक दूसरे वर्ग में निराशा उत्पन्न हो रही है. इस स्थिति के लिए वोटबैंक पकाऊ राजनीतिक दल जवाबदार हो सकते हैं लेकिन इसके लिए आम आदमी में पनपता लालच पहले जवाबदार है.
केन्द्र की मोदी सरकार ने जब सब्सिडी खत्म करने की कड़ी पहल की तो लोगों को शिकायत हो गई लेकिन इसकी बड़ी जरूरत है. उच्च या निम्र आय वर्ग के व्यक्ति के लिए रोजगार के अधिकतम अवसर उत्पन्न करना सरकार का काम है लेकिन सुविधाओं की पूरी कीमत चुकाना नागरिक दायित्व है. ऐसे में मोदी सरकार से शिकायत क्यों? होना तो यह चाहिए कि मोदी सरकार पहले चरण में अपने दल के शासित राज्यों में नियम लागू कर दे कि इस तरह के लोकलुभावन योजनाओं का कोई लाभ नहीं दिया जाएगा. इसके स्थान पर रोजगार के नए अवसर उत्पन्न किए जाएंगे और हर हाथ को अधिकतम काम दिए जाएं जिससे वह आर्थिक रूप से सक्षम हो. इससे ना केवल सरकार पर आश्रित रहने का भाव खत्म होगा बल्कि हर आदमी के भीतर अपने देश को लेकर स्वाभिमान जागेगा. क्योंकि सच यह है कि मेहनत की कमाई ही हर आदमी के भीतर उसके सम्मान को जागृत करती है.
स्वाधीनता पर्व के इस पावन पर्व पर हमें संकल्प लेना होगा कि चुनाव के समय लोक-लुभावन घोषणाओं के फेर में हम सब नहीं आएंगे. बल्कि जो राजनीतिक दल ऐसा करेगा, उसका बॉयकाट करेंगे क्योंकि सरकारों का काम बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का है ना कि आम आदमी की निजी जरूरतों को पूरा कर निकम्मा बनाने का. जिस दिन हम इस मुफ्तखोरी से स्वयं को मुक्त कर लेंगे, आप यकीन रखिए आजादी का सही अर्थों में हम आनंद उठा पाएंगे. कल तक हम अंग्रेजों के गुलाम थे, आज मुफ्तखोरी ने हमारी आजादी छीन ली है

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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