सुभाष चंद्र बोस की 121वीं जयन्ती

डा. राधेश्याम द्विवेदी
जन्म परिचय:- नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम ‘जानकीनाथ बोस’ और माँ का नाम ‘प्रभावती’ था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में हुई। तत्पश्चात् उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेज़िडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई, और बाद में भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया। अँग्रेज़ी शासन काल में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था किंतु उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया।
राजनीति:-1921 में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार पाकर बोस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और शीघ्र भारत लौट आए। सिविल सर्विस छोड़ने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए। सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों से सहमत नहीं थे। वास्तव में महात्मा गांधी उदार दल का नेतृत्व करते थे, वहीं सुभाष चंद्र बोस जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय थे। महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। सबसे पहले गाँधीजी को राष्ट्रपिता कह कर नेताजी ने ही संबोधित किया था।
कांग्रेस अध्यक्ष:- 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया। यह नीति गाँधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी। 1939 में बोस पुन एक गाँधीवादी प्रतिद्वंदी को हराकर विजयी हुए। गांधी ने इसे अपनी हार के रुप में लिया। उनके अध्यक्ष चुने जाने पर गांधी जी ने कहा कि बोस की जीत मेरी हार है और ऐसा लगने लगा कि वह कांग्रेस वर्किंग कमिटी से त्यागपत्र दे देंगे। गाँधी जी के विरोध के चलते इस ‘विद्रोही अध्यक्ष’ ने त्यागपत्र देने की आवश्यकता महसूस की। गांधी के लगातार विरोध को देखते हुए उन्होंने स्वयं कांग्रेस छोड़ दी।
आज़ादी के लिए प्रयास:- इस बीच दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। बोस का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आज़ादी हासिल की जा सकती है। उनके विचारों के देखते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में नज़रबंद कर लिया लेकिन वह अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से वहां से भाग निकले। वह अफगानिस्तान और सोवियत संघ होते हुए जर्मनी जा पहुंचे।
सक्रिय राजनीति में:- सक्रिय राजनीति में सक्रिय राजनीति में आने से पहले नेताजी ने पूरी दुनिया का भ्रमण किया। वह 1933 से 36 तक यूरोप में रहे। यूरोप में यह दौर था हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद का। नाजीवाद और फासीवाद का निशाना इंग्लैंड था, जिसने पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर एकतरफा समझौते थोपे थे। वे उसका बदला इंग्लैंड से लेना चाहते थे। भारत पर भी अँग्रेज़ों का कब्जा था और इंग्लैंड के खिलाफ लड़ाई में नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी में भविष्य का मित्र दिखाई पड़ रहा था। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। उनका मानना था कि स्वतंत्रता हासिल करने के लिए राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ कूटनीतिक और सैन्य सहयोग की भी जरूरत पड़ती है।
शादी-परिवार:- सुभाष चंद्र बोस ने 1937 में अपनी सेक्रेटरी और ऑस्ट्रियन युवती एमिली से शादी की। उन दोनों की एक अनीता नाम की एक बेटी भी हुई जो वर्तमान में जर्मनी में सपरिवार रहती हैं। नेताजी हिटलर से मिले। उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत और देश की आजादी के लिए कई काम किए। उन्होंने 1943 में जर्मनी छोड़ दिया। वहां से वह जापान पहुंचे। जापान से वह सिंगापुर पहुंचे। जहां उन्होंने कैप्टन मोहन सिंह द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान अपने हाथों में ले ली। उस वक्त रास बिहारी बोस आज़ाद हिंद फ़ौज के नेता थे। उन्होंने आज़ाद हिंद फ़ौज का पुनर्गठन किया। महिलाओं के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का भी गठन किया जिसकी लक्ष्मी सहगल कैप्टन बनी।
आज़ाद हिन्द सरकार:- ‘नेताजी’ के नाम से प्रसिद्ध सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर, 1943 को ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की तथा ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ का गठन किया इस संगठन के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था। नेताजी अपनी आजाद हिंद फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुँचे। यहीं पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” दिया।
मौत के कारणों पर विवाद :-18 अगस्त 1945 को टोक्यो (जापान) जाते समय ताइवान के पास नेताजी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हुआ बताया जाता है, लेकिन उनका शव नहीं मिल पाया। दुर्घटना में नेताजी मारे गए थे या फिर वह बच गए थे और सर्बिया चले गए थे? या फिर ‘विमान हादसा’ महज एक ‘आड़’ थी उन्हें सुरक्षित निकल जाने देने के लिए? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो 70 सालों से भारतीयों का, खासकर बंगालियों का, पीछा कर रहे हैं, उन्हें परेशान कर रहे हैं। लेकिन, रहस्य है कि बेपर्दा होने का नाम ही नहीं लेता। नेताजी के वारिसों का एक धड़ा (जिसमें उनकी बेटी अनिता फाफ भी शामिल हैं) और सुभाषचंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) के कुछ बुजुर्ग योद्धा मानते हैं कि विमान हादसे में नेताजी की मौत हुई थी और उनकी अस्थियां टोक्यो के रेंकोजी मंदिर में सुरक्षित रखी हुई हैं। नेताजी के परिजन, प्रशंसक, शोध करने वाले हादसे की इस कहानी से सहमत नहीं हैं। अनिता फाफ 2013 में कोलकाता आई थीं। उन्होंने कहा था, ‘यह नेताजी के लिए शानदार घर वापसी होती। उनकी अस्थियां भारत लाई जातीं और उन्हें यहां गंगा में प्रवाहित किया जाता।’नेताजी के वंशज और हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सौगत रॉय भी यही मानते हैं कि नेताजी की मौत विमान हादसे में हुई थी। वह इस हादसे में जिंदा बच गए लोगों की गवाही का पुरजोर हवाला देते हैं।
नेताजी के मामले की जांच शाहनवाज खान समिति (1956), जी.डी. खोसला समिति (1970) और एम.के. मुखर्जी आयोग (2006) ने की। जांच तो हुई, लेकिन नतीजा नहीं निकला। शाहनवाज खान समिति और जी.डी. खोसला समिति ने माना कि विमान हादसे में नेताजी की मौत हुई थी, लेकिन मुखर्जी आयोग ने इस बात को खारिज कर दिया कि नेताजी की मौत किसी हादसे में हो चुकी है। इस मामले में शोध करने वाले और लेखक अनुज धर मुखर्जी आयोग के नतीजों से सहमत हैं। धर ने कहा, ‘मुखर्जी आयोग को और मुझे भी भेजे गए पत्र में ताइवान के अधिकारियों ने यही कहा है कि 18 अगस्त, 1945 को कोई हादसा नहीं हुआ था।’उन्होंने कहा, ‘ऐसी कई गोपनीय फाइलें हैं, जो साबित कर देंगी कि विमान हादसे की बात जापानियों और नेताजी ने जान बूझकर फैलाई थी ताकि उन्हें सोवियत रूस निकल जाने का मौका मिल सके।’
नेताजी की सहयोगी रह चुकीं लक्ष्मी सहगल इससे सहमत नहीं थीं। उनका कहना था कि विमान हादसा और उसमें नेताजी की मौत एक सच्चाई है। इसका रिकॉर्ड इसलिए नहीं है, क्योंकि हारने से पहले जापानियों ने अपने युद्ध अपराधों पर पर्दा डालने के लिए सभी दस्तावेज नष्ट कर दिए थे। नेताजी के विमान हादसे के दस्तावेज इसी की भेंट चढ़ गए।अब नेताजी के घरवालों और उनके चाहने वालों की मांग है कि केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार इस मामले से जुड़ी सभी फाइलों को सार्वजनिक करे। इससे साफ हो जाएगा कि विमान हादसे में मरने वाला एक जापानी सैनिक इचिरो ओकुरा था, न कि नेताजी।नेताजी के सहयोगी कर्नल हबीबुररहमान ने शाहनवाज समिति से कहा था कि नेताजी की मौत विमान हादसे में हुई थी। कहते हैं कि आखिरी वक्त में कर्नल रहमान, नेताजी के साथ थे और हादसे में बच गए थे। लेकिन हादसे की कहानी से असहमत लोगों का कहना है कि कर्नल रहमान ने सच नहीं बोला और उन्होंने ऐसा नेताजी के कहने पर ही किया। नेताजी के बड़े भाई शरत चंद्र बोस ने कर्नल रहमान से पूछताछ की थी। शरत चंद्र बोस के पोते चंद्र कुमार ने अपने पिता अमीय नाथ के हवाले से बताया, ‘शरत चंद्र बोस ने घंटों कर्नल रहमान से विमान हादसे के बारे में पूछताछ की थी और फिर उनकी बात को खारिज कर दिया था।’
नेताजी का स्मारक:- केंद्रीय संस्कृति (स्वतंत्र प्रभार), पर्यटन (स्वतंत्र प्रभार) तथा नागर विमानन राज्यमंत्री डॉ. महेश शर्मा ने कहा कि लंबे समय से लंबित मांग को पूरा करने के लिए सरकार दिल्ली में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का स्मारक बनवाएगी। शर्मा ने यहां राष्ट्रीय अभिलेखागार में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से जुड़ी 25 फाइलों को सार्वजनिक किया और उन्हें वेब पोर्टल पर जारी किया।
नेताजी की टाइटिल की चोरी- समाजवादी के मुखिया ने बिना किसी भी प्रकार की समानता के नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की टाइटिल की चोरी कर लिया है। कुनबे के सभी सदस्य तथा अनुयायी आंख मुदकर सुभाष जी के टाइटिल की धज्जियां उड़ाते हैं। काश! देश के बुद्धिजीवी इस नकल को रोककर सुभाया बाबू का सम्मान को गिरने से बचाते ?

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