60 साल की बूढी संसद को दरकार है सम्मान की

शादाब जफर ‘‘शादाब’’

देश के लोकतंत्र के सब से बडे मंदिर हमारी संसद ने 13 मई को अपनी स्थापना के साठ वर्ष पूरे किये। 13 मई 1952 को ठीक पौने ग्यारह बजे संसद के दोनो सदनो की शुरूआत दो मिनट के मौन से हुई थी। जी वी मावलंकर को देश का पहला लोकसभाध्यक्ष चुना गया था और प्रथम राष्ट्रपति के रूप में डा. राजेन्द्र प्रसाद जी ने जनता द्वारा चुने गये तमाम जनप्रतिनिधियो को पद की शपथ दिलाई थी। उस भारतीय लोकतंत्र की स्थापना के गवाह रहे पहली लोकसभा के जीवित रहे चार सदस्यो रीशांग कीशिंग, रेशम लाल जांगड़े, कंडाला राधाकृष्ण, और के मोहन राव को लोकसभा के सेंट्रल हॉल में सम्मानित किया गया। यू तो संसद पुराने संस्कृत साहित्य का शब्द है। पुराने समय में राजा को सलाह देने वाली सभा ‘‘संसद’’ कहलाती थी। राजा संसद की सलाह को ठुकरा नही सकता था। संसदीय प्रक्त्रिस्या संबंधी नियम, खुली बातचीत, बहुमत का फैसला, ऊंचे पदो के लिये चुनाव, वोट डालना, समितियो द्वारा विचार आदि उस वक्त ये सारे फैसले संसद करती थी। शायद इसी कारण हमारे पूर्वजो ने देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था को पुराने समय की संसद जैसा आकार और संसद का नाम दिया। पर हमारे आधुनिक राजनेता पूर्वजो के दिये संसद के नाम और मान सम्मान को कायम रखने में आज पूरी तरह नाकाम दिखाई दे रहे है। दरअसल आज की खूनी राजनीति से तीन दशक पहले तक देश और संसद के हालात बहुत ही अच्छे थे उस वक्त देश की सियासत में श्रीमति इंद्रिरा गांधी, राम मनोहर लोहिया, बाल कवि बैरागी, बेकल उत्साही, अटल बिहारी वाजपेयी, फिराज गांधी, इंद्रजीत गुप्त, इंद्र कुमार गुजराल, वीपी सिंह, जॉर्ज फंर्नाडीस और चंद्र शेखर, जैसी खूबसूरत शख्सीयते रहती थी। पहले की बात अगर छोड दे तो 10वी, 11वी लोकसभा के दौर तक देश के सांसद और राजनेता सांसद की छवि और संसद के मान सम्मान की हिफाजत करना जानते थे। वो दौर राष्ट्र निर्माण का दौर था और विपक्ष भी सकारात्मक रूप से सरकार के साथ कंधं से कंधा मिलाकर चलता था। लेकिन जब से संसद में कुछ धर्म जातपात की राजनीति करने वाली कुछ राजनीतिक पार्टियो ने सत्ता की भूख के कारण अपने सांसदो की गिनती बढाने के उद्देश्य से संसद में अपराधियो का प्रवेश कराया, धर्म और जाति की राजनीति शुरू हुई बस तभी से लोकतंत्र का ये मंदिर मछली बाजार बन गया। ये ही कारण है कि आज कोई भी लोकतंत्र के इस मंदिर, संसद और सांसदो पर प्रहार कर देता है।

आज कोई भी राजनेता और राजनीतिक पार्टी ये सोचने को तैयार नही की संसद का समय कितनी अमूल्य है। विपक्ष द्वारा सरकार के खिलाफ नारेबाजी करने से हंमामे के चलते अगर कोई विधेयक लटकता है तो उसका देश की आर्थिक सेहत और भविष्य की योजनाओ पर प्रतिकूल असर पडता है। लोकसभा की कार्यवाही पर एक घंटे में 14 लाख का खर्च आता है और राज्यसभा की एक घंटे की कार्यवाही पर 11 लाख का खर्च आता है इस तरह हमारे देश की संसद की प्रति घंटे की कार्यवाही पर 25 लाख रूपये की रकम खर्च होती है यानी रोजाना की कार्यवाही पर दो करोड़ रूपये। यही नही, संसद को जब हंगामे का केंद्र बनाया जाता है तो लोकतंत्र की इस सर्वोच्च संस्था की साख पर बट्टा भी लगता है।

आज हमारे देश की संसद हमारे ही चुने हुए कुछ दागी सांसदो के कारण रोज बदनामी का दंश झेल रही है देश की बूढी संसद, रेंग रेंग कर चल रही है। देश के माननीयो द्वारा हंगामे कर कर के संसद का समय बर्बाद किया जा रहा है। इन में से कुछ ऐसे सांसद भी है जिन पर खून, डकैती, बालात्कार, हिंसा, चोरी, चार सौबीसी के कई कई मुक्कदमे दर्ज है फिर भी ये माननीय खुद को देश का सर्वोच्च नागरिक मानते है सिर्फ संसद का मेम्बर होने के कारण। क्या कारण है कि ाज देश के युवाओ में देश प्रेम नजर नही आ रहा, क्यो देश के पढे लिखे नौजवान देश सेवा, समाज सेवा में पीछे होते जा रहे है। क्यो आज हम लोग देश की राजनीति में अहम किरदार निभाने वाले देश के आम नागरिक, वोटर खामोश है। हम जहॅा है वही से देश भक्ति की अलख रूपी मशाल क्यो नही जला सकते। देश से भष्टाचार क्यो नही मिटा सकते क्या हम अपने गॉव कस्बे मौहल्लो शहर इत्यादी की जनता कि सेवा बिना कोई पद लिये नही कर सकते। क्या देश सेवा करने के लिये खादी के कपडे पहनना जरूरी है चुनावी झगडे में पडना जरूरी है। आज तथाकथित बडे बडे राजनेताओ के पुत्र और पुत्रिया, सगे संबंधी भाई भतीजे वगैरा इन के राजनेतिक उत्तराधिकारी बनकर कथित लोकतांत्रिक तरीके से कुर्सिया और सरकार में अहम पदो को हथिया लेते है। किसी पार्टी के नेता के बेटे को राष्ट्रीय स्तर का नेता बनने में मुश्किल से चार पॉच दिन लगते है बडे बडे संगठन उन के कार्यकर्ता चन्द दिनो में ही इन के चमचे प्रतीत होने लगते है। मीडिया केवल पार्टी से मिलने वाले विज्ञापनो के लालच में इन राजनीतिक पुत्रो की शान में कसीदे लिखने लगता है।

क्या ये सब देश के हित में है। देश के गौरवपूर्ण अतीत की गरीमा के अनुरूप है। आज देश में नक्सली हिंसा, धर्म की राजनीति, अज्ञानता, निक्षरता, आपसी फूट, एकता भाई चारे की कमी मन्दिर मस्जिद व जात पात के झगडे देश की तबाही व पतन की सब से बडी चुनौती बनते चले जा रहे है देश में भ्रष्टाचार चारो ओर फैला है मंहगाई ने न जाने कितनी जाने ले ली है पर सत्ता में बैठे हुए हमारे राजनेताओ को इस कि जरा भी चिंता नही। करोडो अरबो रूपये खर्च कर के देश में कॉमनवैल्थ गेम्स कराने की फिक्र है लाखो टन देश का अनाज खुले में पडा है, पडा सड रहा है सड चुका इस के ऊपर टीन शेड पडना है या इसे ढापने के लिये कोई और इन्तेजाम करना है इस कि बात की फिक्र हमारे देश के कृषि मं़त्री और प्रधानमंत्री जी को जरा भी नही देश में स्वास्थ्य सेवाए ना कि बराबर है देश के कई ऐसे पिछडे इलाके है जहॅा बच्चो के पढने के लिये दस दस किलो मीटर तक स्कूल नही बिजली पानी की समुचित व्यवस्था नही सडके नही पर हमारे राजनेता इस बात से जरा भी चिंतित नही है। वही आज हमारे देश की ये बदकिस्मती भी है कि आज अधिकतर राज्यसभा और लोक सभा सदस्य केवल शपथ ग्रहण करने तो आते है फिर कभी उन्हे सदन में नही देखा जाता। पिछले दिनो एक संस्था सोशल वॉच इंडिया और गवर्नेस नाउ ने अपने एक अध्यन में सिर्फ चार सांसदो को ही वर्तमान (15वी) लोकसभा में चुने जाने योग्य मानता था। जिन चार सांसदो को इस सेस्था ने योग्य ठहराया था वो थे शिवसेना के आंनद राव अड्सुल, समाजवादी पार्टी के शैलेंद्र कुमार, भाजपा के हंसराज गंगाराम अहीर, और माकपा के वासुदेव आचार्य, इन सांसदो को संस्था सोशल वॉच इंडिया और गवर्नेस नाउ ने उन की उपस्थिति, सत्र के दौरान उन की ओर से पूछे गये प्रशन-पूरक प्रशन समेत उन की तरफ से लाए गये प्राईवेट विधेयक और चर्चा में भागीदारी के आधार पर यह मूल्यांकन किया गया।

आज 60 साल की संसद को हम बूढी संसद कह सकते है। और बुर्जुगो का सम्मान करना हमे बचपन से सिखाया जाता है। पर पहले हमे खुद अपने बुर्जुगो को सम्मान देना पडता है तभी बाहर वाला भी सम्मान देता है। आज हमारी संसद को शायद यू ही एक अदद सम्मान की दरकार है वजह साफ है हमारे देश के माननीय संसद और खुद को सर्वोच्च तो मानते है पर संसद की कार्यवाही को शोर शराबे और हंगामे की भेट चढा देने में उन्हे जरा भी हिचक नही होती। एक दूसरे पर माईक, चप्पल, कुर्सिया, अश्लील, अशोभनीय टिप्पणीया करने में जरा भी शर्म नही आती। जिन माननीय का काम कानून बनाना है वो लोग ही खुद आपसी राजनीतिक झगडो में जनाकांक्षाओ और कानून की बली दे देते है। जक न्यायालय सरकार के इन नुमाईंदो को उन के कर्तव्य का अहसास कराती है या जनता आन्दोलन के जरिये सरकार पर काम करने के लिये दबाव डालती है तो तब इन माानीयो को बुरा लगता है और ये लोग संसद में ये कह कर वबाल मचा देते है कि ये बाहरी दखल है, भारतीय संविधान की मर्यादा का उल्लंघन है। आखिर जनता के पैसे से संसद में मजे करने वाले ये माननीय कब समझेगे कि दो करोड रूपये रोज खर्च कर देने वाली जनता के पैसे से चलने वाली संसद में अगर काम नही हो रहा लोग संसद और सांसदो को बुरा कह रहे है तो इस के लिये जिम्मेदार कौन है किस की जवाब देही है सरकार की विपक्ष की या बूढी संसद की। आज संसद के साठ साल का जश्न मनाये, किस रूप में मनाये इस पर देश की जनता, सांसदो, बुद्विजीवियो और देश के आम नागरिको को काफी गहराई सोचना पडेगा।

4 COMMENTS

  1. किन्तु वास्तव में भारतीय संसद का गठन तो 1920 में हो गया था और आज भी यह उन्हीं परिपाटियों और परमपराओं का अनुसरण कर रही है| इसमें से लोक तत्व गायब है | जन परिवेदनाओं को आज भी सचिव लोग ही निरस्त कर देते हैं जिससे यह लगता है कि देश में संसदीय लोकतंत्र नहीं बल्कि राजतन्त्र के भयंकर संक्रमण से ग्रसित है |

  2. क्या कोई पत्रकार बंधु इस बात पर प्रकाश डालेंगे कि आदरणीय रेखा जी के मनोनयन के पीछे क्या राजनीति काम कर रही है, और संसद में मनोनीत सदस्यों का क्या योगदान रहा है । यद्यपि यह मेरा प्रिय विषय है और मेरी थीसिस भी संसद पर ही है पर व्यस्तता इतनी है कि मैं समय नहीं दे पा रहा हूं ।
    सादर
    डॉ रावत

  3. हमारे देश के माननीय आखिर क्यो हिंसा, बंद, शोर, शराबे पर विश्वास रखते है ये लोग तो बुद्विजीवी है फिर क्यो अपनी तर्क क्षमता का इस्तेमाल करना नही चाहते है। ये सही है की देश में भ्रष्टाचार और घोटालो के कारण आज त्राही-त्राही मची है। ‘‘हंगामा और शोर शराबे’’ के कारण देश को अरब रूपये की कीमत चुकानी पडती है। हमारी आने आने वाली पीढी इस से क्या सबक लेगी ये विचारणीय मुद्दा है। माननीयो द्वारा संसद में बिना बात शोर शराबा मारपीट एक दूसरे पर अशोभनीय टिप्पणी ने जनता की उम्मीदो और विश्वास का हमेशा मखौल उडाया जाता है। जनता के ये प्रतिनिधि भारतीय कानून और सरकार के दावा की किस प्रकार खुले आम धज्ज्यिा उडाते है हम सब लोग टीवी पर लाईव संसद से इस का रोज सीधा प्रसारण देखते है। आखिर ऐसा व्यवहार तो देश के छोटे छोटे बच्चे भी नही करते। फिर ये लोग देश के सवोच्च लोकतंत्र के मंदिर में बैठ है जिन पर देष और समाज दोनो की जिम्मेदारिया है वो लोग एक आम नागरिक की तरह लोकतंत्र की मर्यादाओ को अपने पैरो तले रौदते है देख कर दुख होता है। शीतकालीन सत्र के न चलने से देश को जो करोडो रूपये का नुकसान हुआ आखिर इस की जिम्मेदारी किस पर जाती है ये एक ऐसा सवाल है जो आने वाले दिनो में देश की जनता कंाग्रेस और विपक्षी दलो से पूछ सकती है क्यो कि देश के करोडो रूपये यू बरबाद होने की जिम्मेदारी जरूर तय होनी चाहिये।

  4. आज अगर हमारे माननीय संसद के मुद्दे पर यदि गम्भीर हो जायें तो संसद और सांसद दोनो को समाज में लोक एक बार फिर से इज्जत की नजर से देखने लगे। परन्तु आज पैसे की चमक और अपराधियो ने इसे अपने संरक्षण के लिये महफूस जगह मान लिया है कुछ राजनेताओ ने अपराधियो को टिकट देकर अपनी संख्या धनबल और बाहुबल के जरिये संसद में जरूर बढा ली है पर संसद की गरिमा इन लोगो के कारण रोज तार तार हो रही है शादाब जी आप ने एक सुन्दर लेख लिखा है

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