काँग्रेस के पास इस दुश्मन की काट क्या है ?

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sanghविधानसभा चुनाव की जंग और बयानों की उलटबांसियों के बीच एक अचरजभरा बयान केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की ओर से आया. जीत या हार के कयासों के बीच एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हमारी लड़ाई भाजपा से नहीं बल्कि आरएसएस यानि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है! इस पर बात आगे बढ़े, उसके पहले एक कथा सुन लीजिये. महाभारत का आधा युद्ध खत्म हो चुका था और रणभूमि पर जिस तरह खून की नदियां बह रही थी, उससे चिंतित महाराज कृष्ण–कौरव और पाण्डव के मध्यस्थ–कौरवों को समझाने पहुंचे लेकिन कौरव नहीं माने तब कृष्ण अफसोस जताते हुए वहां से विदा होने लगे तो कौरवों ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार करने की कोशिश की कि सारा खेल इन्हीं का है. ये अर्जुन के सारथी हैं और पाण्डव इन्हीं की रणनीति पर  चलते हुए जीतते जा रहे हैं!

कांग्रेस को भी ऐन चुनाव के वक्त यह अहसास हुआ कि उसका मुकाबला भाजपा से नहीं बल्कि आरएसएस से है! रमेश ने जो सवाल उठाया है, पूर्व में भी कांग्रेस में इस पर चिंता हो चुकी है लेकिन हम यहां इस सवाल के बहाने कमजोर होती कांग्रेस और आरएसएस रूपी खाद से मजबूत होती भाजपा की चर्चा करेंगे क्योंकि आजादी के 65 साल बाद यदि कांग्रेस को अपने सही दुश्मन की पहचान हुई है तो सवाल यह खड़ा हुआ है कि वह आरएसएस से लडऩे की स्थिति में है भी या नहीं! जनसंघी दौर से लेकर 1990 की मात्र दो लोकसभा सीट से भाजपा यदि 137 तक पहुंची है और कांग्रेस का विकल्प बन चुकी है तो इसके पीछे आरएसएस की वर्षों की तपस्या है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पहले सरसंघचालक हेडगेवार ने 1925 में नागपुर के मोहितेबाड़ा में आरएसएस का बीज बोया और पांच चुनिंदा प्रचारकों को देश के बड़े शहरों में भेजकर संघ-कार्य की शुरूआत की. नींव के पत्थर की भांति इन पांचों ने संगठित हिन्दु के लक्ष्य के साथ आरएसएस की जमीन को सींचना शुरू किया. यह वह दौर था जब लोग देखते-सुनते ही हंसने लगते थे कि क्या आप हिन्दु समाज को एकत्रित करेंगे! क्योंकि ऐसा करना मेंढक़ तौलने जैसा माना जाता है. लेकिन प्रचारकों ने धैर्य नहीं खोया. आज संघ के चार हजार से ज्यादा प्रचारक-जिनमें से कई इंजीनियर-डॉक्टर हैं-घरबार छोडक़र देश और समाज की चिंता कर रहे हैं. 50 हजार से अधिक शाखाएं और विविध क्षेत्रों में कार्यरत 30 से ज्यादा बड़े संगठनों की कार्यक्षमता के दम पर संघ ने करोड़ों भारतीयों को अपने साथ जोड़ रखा है.

बसपा के कांशीराम भी कभी संघ के कार्यों से प्रभावित हुए थे लेकिन जब विचार नहीं जमे तो उन्होंने संघ से किनारा करते हुए बहुजन समाज पार्टी का विकल्प दिया. हालांकि वहां भी उन्होंने संघ के समतामूलक समाज या दलितों को हिन्दु समाज की मुख्य धारा से जोडऩे का ही काम किया. नानाजी देशमुख ने चित्रकूट में जो प्रकल्प खड़ा किया या दत्तोपंत ठेंगड़ी ने जिस तरह मजदूरों के लिये काम किया, वह भी आरएसएस से ही प्रेरित रहे. देश से लेकर विदेश तक में ना सिर्फ आरएसएस खड़ा हुआ बल्कि विद्या भारती (सरस्वती शिशु मंदिर), विश्व हिन्दु परिषद, मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, ग्राम भारती इत्यादि विशालकाय संगठन खड़े किये जिन्होंने जमीन से जुडक़र काम खड़ा किया और करोड़ों दिलों में देशभक्त संगठन के तौर पर अपनी अमिट पहचान कायम की. चाहे गांधीजी की हत्या हो या फिर भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय आपातकाल, नेहरू युग से लेकर हाल के सोनिया युग तक आरएसएस को बदनाम करने, रोकने की कई साजिशें रची गई, रची जा रही हैं लेकिन संघ ने इसकी परवाह कभी नहीं की.

कभी समय मिले तो छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा में होकर आइयेगा. आरएसएस के एक प्रचारक ने सालों पूर्व वहां जिस कुष्ठ आश्रम की शुरूआत की, आज वह विशालकाय वटवृक्ष बन चुका है. दस हजार से ज्यादा कुष्ठ रोगी अपना इलाज करा चुके हैं. जशपुर, रायपुर और बस्तर में आदिवासियों के लिये जो वनवासी कल्याण आश्रम चलाये जा रहे हैं, उनमें आदिवासियों का भरोसा जबरदस्त ढंग से जमा है. यह तो एक उदाहरण है. पूरे देश में संघ ऐसे हजारों प्रकल्प चला रहा है. क्या कांग्रेस या उसके मातहत काम कर रहे संगठनों ने कभी इस तरह के प्रकल्प चलाने की कोशिश की? महात्मा गांधी से लेकर अम्बेडकर तक संघ के शिविरों में पहुुंचे. वहां का दृश्य देखकर उन्होंने स्वीकारा कि जिस समतामूलक समाज की कल्पना वे करते हैं, संघ उसकी बेहतर नर्सरी साबित हो सकता है.

संघ रूपी बैसाखियों का सहारा लेकर जहां एक तरफ भाजपा मजबूत होती चली गई तो दूसरी ओर जंग लगी और मुरझाई सोच का प्रयोग करते हुए कांग्रेस अपना परम्परागत वोटबैंक खोती गई बल्कि अपनी जड़ों से कटती चली गई. उदाहरण के तौर पर कांग्रेस आरएसएस को मुस्लिमों का विरोधी बताते रही है मगर दो साल पहले संघ के समर्थन से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच प्रारंभ हुआ तो उसे जबरदस्त सफलता मिली. शुरू में मुसलमान हिचके जरूर लेकिन बाद में उन्हें समझ में आ गया कि मन और दिमाग में छाई धुंध को साफ करना ही होगा. आज हजारों मुसलमान मंच से जुड़े चुके हैं. उन्हें समझ में आने लगा है कि धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढक़र कांग्रेस सहित दूसरे राजनीतिक दल महज वोटबैंक की खातिर संघ का हौव्वा दिखाते रहे.

ताजा चुनाव इसके सबसे बड़े प्रतीक बनकर उभरे हैं. अभी राजस्थान में कांग्रेस ने 14 मुस्लिमों को विधानसभा के टिकट दिये लेकिन जीते एक भी नहीं. जबकि मध्य प्रदेश चुनाव में भाजपा ने चार मुस्लिमों को टिकट दिये जिनमें से दो जीतकर आ गये. संदेश स्पष्ट है कि मुसलमानों को भी कांग्र्रेस पर भरोसा नहीं रहा क्योंकि सालों तक उन्हें सिर्फ वोटबैंक समझा गया. शिशु मंदिरों से हजारों मुस्लिम बच्चे पढक़र निकलते हैं लेकिन उन्हें शिशु मंदिर कभी साम्प्रदायिक नहीं लगा. बात को लम्बा खींचने के बजाय शार्टकट में यह समझने की कोशिश करते हैं कि मात्र अल्पसंख्यकों की बात कहके कांग्रेस जिस तरह बहुसंख्यकों को नजरअंदाज कर रही है, उसका खामियाजा उसे कदर भुगतना पड़ रहा है?

संघ तो कबका ऐलान कर चुका है कि यदि कांग्रेस राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की चिंता करने लग जाये तो वह भी हमारा समर्थन ले सकती है. यकीन मानिए कि कांग्रेस का बुनियादी ढांचा अभी भी जमींदोज नहीं हुआ है लेकिन उसे खाद, पानी देने की जरूरत है. आज भी कांग्रेस अराजकता, अलगाववाद, आर्थिक आजादी और भारत को महाशक्ति बनाने के सपने के साथ समाज के सबसे निचले तबके तक जा सकती है लेकिन इसके लिये खुद आलाकमान को पहल करनी होगी. उसे पहला संदेश यह देना होगा कि वह सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिये नहीं बल्कि पूरे देश की चिंता करती है. जैसे नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि करोड़ों गुजरातियों की चिंता करता हूं.

सिर्फ भाजपा या आरएसएस ही क्यों? वामपन्थी या दक्षिणपंथी पार्टियों को देख लीजिये. द्रमुक से लेकर अन्नाद्रमुक और तृणमूल से लेकर कांशीराम-मायावती तक, सभी ने मेहनत से, नीतियों से अपनी पार्टियों को खड़ा किया जो आपकी छाती पर मूंग दल रही हैं. बसपा सहित इन सभी का वोट बैंक जिस तरह पूरे देश में बढ़ रहा है, कांग्रेस को उससे सीख लेने की जरूरत है. कांग्रेस को एक बार फिर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर लौटना होगा. उसे अपनी जड़ों को सींचना होगा. उसका सपना यदि आरएसएस को पछाडऩा है तो मैं इसमें आरएसएस की हार नहीं देख रहा हूं बल्कि मन में एक उम्मीद जगी है कि कांग्रेस वाकई भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस होने जा रही है!

अनिल द्विवेदी

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  1. चिरकाल से मात्र बयानबाजी की उलटबांसियों पर आधारित सत्ता-पक्षीय भारतीय पत्रकारिता समय समय पर किन्हीं लोगों द्वारा ऐसे ऐसे वक्तव्य प्रकाशित कर भोली भाली जनता के मन में अनावश्यक वाद-विवाद खड़ा करते सत्ता को राजनीतिक लाभ दिलाती रही है| और, यहाँ विषय की आड़ में आप मृत्यु-शैया पर पड़ी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्राण फूंकने का प्रयास कर रहे है| क्यों?

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