“आत्मा की आवाज़” बनाम “लोग क्या कहेंगे?”

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

AATMAदुनिया के सामने दिखावा अधिक जरूरी है या अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर उसे मानना और उस पर अमल करना? यह एक ऐसा ज्वलंत सवाल है, जिसका उत्तर सौ में से निन्यानवें लोग यही देना चाहेंगे कि अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर उसे मानना और उस पर अमल करना ज्यादा जरूरी है, लेकिन अपनी आत्मा की विवेक-सम्मत आवाज़ को सुनकर भी उस पर अमल बहुत ही कम लोग करते हैं।

आखिर ऐसा क्यों होता? इस बारे में मेरा मानना कि बचपन से, जब से हम प्रारम्भिक और प्राथमिक स्तर पर सोचना-समझना शुरू करते हैं, घर-परिवार में हर जगह हमें कदम-कदम पर यही सिखाया जाता है और यही सुनने को मिलता है कि ऐसा मत करो वैसा मत करो नहीं तो “लोग क्या कहेंगे?” अर्थात ये नकारात्मक वाक्य हर दिन और बार-बार सुनते रहने के कारण हमारे अवचेन मन में गहरे में नकारात्मक रूप से ऐसा स्थापित हो जाता है कि हम इसके विपरीत किसी सकारात्मक बात को चाहकर भी सुनना नहीं चाहते। खुद अपनी आवाज़ को भी नहीं सुन पाते हैं, अपनी आवाज़ को भी अनसुना कर देते हैं!

इसके दुष्परिणाम स्वरुप हम हर समय असंतुष्ट और परेशान रहने लगते हैं। हमें अपना घर संसार निरर्थक और नीरस लगने लगता है। हम अपनी आंतरिक खुशी बाहरी दुनिया और भौतिक साधनों में तलाशने लगते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि हमारी सच्ची और स्थायी खुशी अपने आप के अंदर ही विद्यमान रहती है। क्योंकि-“आंतरिक खुशी ही तो असली खुशी है।” इसे जानते-समझते हुए भी हम सिर्फ और सिर्फ बाहर की दुनिया में वो सब तलाशते रहते हैं, जिसकी प्राप्ति भी हमें अपूर्ण ही बनाये रखती है और इस अपूर्णता को तलाशने में हम अपना असली खजाना अर्थात अपनी जवानी, उम्र और अमूल्य समय लुटाकर हमेशा को कंगाल हो चुके होते हैं।

इस सच्ची बात का ज्ञान होने तक जबकि हम अपना जीवन बाहरी खोज और भौतिकता में गँवा चुके होते हैं, हम इतने थक चुके होते हैं, इतने निराश हो चुके होते हैं कि हम कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं रह पाते हैं, बल्कि इस बात का जीवन भर पछतावा होता रहता कि हम निरर्थक कार्यों में अपनी जवानी, उम्र और अमूल्य समय लुटा चुके हैं। इस पछतावे में भी हम जीवन के शेष बचे अमूल्य समय को रोते बिलखते बर्बाद करते रहते हैं। हम ये दूसरी मूर्खता, पहली वाली से भी बड़ी मूर्खता करते हैं। जिससे अंतत: अधिकतर लोग तनाव तथा अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं।

इसलिये ऐसे हालात में हमें हमारे पास जो कुछ-समय और जीवन शेष बचा है, उसका बेहतर से बेहतर सदुपयोग करना चाहिए और अपने जीवन को संभालना चाहिए यही सबसे बड़ी समझदारी है। जिसके लिए पहली जरूरत है कि हम सबसे पहले तो इस बात को भुला दें कि-“लोग क्या कहेंगे?” दूसरी बात ये कि हम खुद की जरूरतों का और वास्तविकताओं का आकलन करें फिर पहली बात के साथ ही साथ हम ऐसा कोई अनुचित काम भी नहीं करें, जिससे हमारी खुद की या अन्य किसी की शांति भंग हो। यही जीवन जीने का वास्तविक किन्तु कड़वा सच है।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

2 COMMENTS

  1. डाक्टर निरंकुश, यह बात कोई निरंकुश ही कह सकता है. सचमुच में हमारी पूरीं परम्परा इसी पर आधारित हैं कि लोग क्या कहेंगे. काश ,हम यह सच पाते कि लोग तो कहेंगे ही क्यों कि ,लोगों का काम है कहना,पर करेंगे हम वही जो हमारी अंतरात्मा की आवाज हो,तो शायद दुनिया बेहतर होती और इंसान भी ज्यादा सुखी होता.,

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