मेरे लेख पर जिन विद्वानों ने प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं, उन सबके प्रति मैं यथायोग्य स्नेह, आदर, अत्मीय भाव व्यक्त करता हूं। हम सबका एक ही लक्ष्य है- हिन्दी का विकास हो। हम सबके रास्ते अलग हो सकते हैं। हम सबकी सोच भिन्न हो सकती है। मैंने अपने अब तक के पूरे जीवन में हिन्दी की प्रगति और विकास के लिए काम किया है। आपने भी यही किया है। इस दृष्टि से हम सब एक ही पथ के पथिक हैं। मैं सबके अलग अलग बिन्दुवार उत्तर नहीं देना चाहता। केवल अपनी सोच एवं चिंतन के कुछ विचार सूत्र आपके विचार के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं–
1. ऐतिहासिक भाषाविज्ञान एवं एककालिक अथवा संकालिक भाषा विज्ञान की दृष्टियां समान नहीं हैं। उनमें अन्तर हैं। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि भाषा के शब्द का स्रोत कौन सी भाषा है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो भाषा का प्रयोक्ता जिन शब्दों का व्यवहार करता है, वे समस्त शब्द उसकी भाषा के होते हैं। उस धरातल पर कोई शब्द स्वदेशी अथवा विदेशी नहीं होता।
2. प्रत्येक जीवन्त भाषा में अनेक स्रोतों से शब्द आते रहते हैं और उस भाषा के अंग बनते रहते हैं।
3. भाषा में शुद्ध एवं अशुद्ध का, मानक एवं अमानक का, सुसंस्कृत एवं अपशब्द का तथा आजकल भाषा के मानकीकरण एवं आधुनिकीकरण के बीच वाद-विवाद होता रहा है और होता रहेगा। व्याकरणिक भाषा के नियमों का निर्धारण करता है। वह शब्दों को बाँटता है। उसकी दृष्टि में कुछ शब्द सुसंस्कृत होते हैं एवं कुछ अपशब्द होते हैं। निर्धारित नियम स्थिर होते हैं। इसके विपरीत भाषा की प्रकृति बदलना है। भाषा बदलती है। यह बदली भाषा निर्धारित नियमों के अनुरूप नहीं होती। व्याकरणिक को बदली भाषा भ्रष्ट लगती है। मगर उसके कहने से भाषा अपने प्रवाह को, अपनी गति को, अपनी चाल को रोकती नहीं है। बहती रहती है। बहना उसकी प्रकृति है। इसी कारण कबीर ने कहा था- ‘भाखा बहता नीर´।
4. भाषा का अन्तिम निर्णायक उसका प्रयोक्ता होता है। दूसरे काल की भाषा के आधार पर उस काल का व्याकरणिक संकालिक भाषा के व्याकरण के पुनः नए नियम बनाता है। व्याकरण के नियमों में भाषा को बाँधने की कोशिश करता है। भाषा गतिमान है। पुनः पुनः नया रूप धारण करती रहती है।
5. भाषा वह है जो भाषा के प्रयोक्ताओं द्वारा बोली जाती है।
6. महाभाष्यकार पतंजलि के ´पतंजलि महाभाष्य’ से एक प्रसंग प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें उन्होंने भाषा के प्रयोक्ता का महत्व प्रतिपादित किया है। प्रयोक्ता व्याकरणिक नियमों का भले ही जानकार नहीं होता किन्तु वह अपनी भाषा का प्रयोग करता है। व्याकरणिक नियमों के निर्धारण करने वाले तथा भाषा का प्रयोग करनेवाले का पतंजलि-महाभाष्य में रोचक प्रसंग मिलता है। वैयाकरण तथा रथ चलानेवाले के बीच के संवाद का प्रासंगिक अंश उद्धृत है-
“वैयाकरण ने पूछा – इस रथ का ‘प्रवेता´ कौन है?
सारथी का उत्तर – आयुष्मान्, मैं इस रथ का ‘प्राजिता´ हूँ।
(प्राजिन् = सारथी, रथ-चालक, गाड़ीवान)
वैयाकरण – ´प्राजिता’ अपशब्द है।
सारथी का उत्तर – (देवानां प्रिय) आप केवल ‘प्राप्तिज्ञ´ हैं; ‘इष्टिज्ञ´ नहीं।
(‘प्राप्तिज्ञ´ = नियमों का ज्ञाता; ‘इष्टिज्ञ´ = प्रयोग का ज्ञाता)
वैयाकरण – यह दुष्ट ‘सूत´ हमें ´दुरुत’ (कष्ट पहुँचाना) रहा है।
सूत- आपका ´दुरुत’ प्रयोग उचित नहीं है। आप निंदा ही करना चाहते हैं तो ´दुःसूत’ शब्द का प्रयोग करें।
7. हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हो रहा है। संसार की प्रत्येक भाषा अन्य भाषा से शब्द ग्रहण करती है और उसे अपनी भाषा में पचा लेती है। संसार की प्रत्येक प्रवाहशील भाषा में परिवर्तन होता है। संस्कृत भाषा के भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न सामाजिक समुदायों में व्यवहार एवं प्रसार के कारण दो बातें घटित हुईं। संस्कृत ने भारत के प्रत्येक क्षेत्र की भाषा को तो प्रभावित किया ही और इस तथ्य से सब सुपरिचित हैं, सम्प्रति मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि संस्कृत भी अन्य भाषाओं से प्रभावित हुई। संस्कृत में ‘आर्य भाषा क्षेत्र’ की संस्कृतेतर जन भाषाओं एवं आर्येतर भाषाओं से शब्दों को ग्रहण कर उन्हें संस्कृत की प्रकृति के अनुरूप ढालने की प्रवृत्ति का विकास हुआ। इसके कारण एक ओर जहाँ संस्कृत का शब्द भंडार अत्यंत विशाल हो गया, वहीं आगत शब्द संस्कृत की प्रकृति के अनुरूप ढलते चले गए। भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन करने वाले विद्वानों का मत है कि संस्कृत वाङ्मय की अभिव्यक्ति में दक्षिणात्य कवियों, चिन्तकों, दार्शनिकों एवं कलाकारों का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है (रामधारी सिंह ‘दिनकर’: संस्कृति के चार अध्याय, पृ0 44-47)।
संस्कृत भाषा में अधिकांश शब्दों के जितने पर्याय रूप मिलते हैं उतने संसार की किसी अन्य भाषा में मिलना विरल है। ‘हलायुध कोश’ में स्वर्ग के 12, देव के 21, ब्रह्मा के 20, शिव के 45, विष्णु के 56 पर्याय मिलते हैं। इसका मूल कारण यह है कि संस्कृत भाषा का जिन क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार एवं प्रयोग-व्यवहार हुआ, उन क्षेत्रों की भाषाओं के शब्द संस्कृत में आते चले गए।
8. एक लेख में, मैंने प्रतिपादित किया था कि भाषा की प्रकृति नदी की धारा की तरह होती है। कुछ विद्वानों ने सवाल उठाया कि क्या नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम हो जाने दें। मैंने उत्तर दिया कि नदी की धारा अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ साथ रहते हैं। ‘शब्दावली’ गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण’ कभी बदलता नहीं है। बदलता है मगर बदलाव की रफ़तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द’ आते जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द’ को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स’ देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।
9. हिन्दी में कुछ शुद्धतावादी विद्वान हैं जो ‘भाषिक शुद्धता’ के लिए बहुत परेशान, चिन्तित एवं उद्वेलित रहते हैं और इस सम्बंध में आए दिन, गाहे बगाहे लेख लिखते रहते हैं। मैंने वे तमाम लेख पढ़े हैं और इसके बावजूद यह लेख लिखा है और इसी संदर्भ में, मैंने लेख में लिखा है कि ““प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए”। विद्वान महोदय से निवेदन है कि संदर्भ को ध्यान में रखकर “शुद्ध” शब्द का अभिधेयार्थ नहीं अपितु व्यंग्यार्थ ग्रहण करने की अनुकंपा करें।
10. कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा ‘अछूत’ नहीं होती। कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा अपने को शुद्ध एवं निखालिस बनाने के व्यामोह में अपने घर के दरवाजों एवं खिड़कियों को बंद नहीं करती। यदि किसी भाषा को शुद्धता की जंजीरों से जकड़ दिया जाएगा, निखालिस की लक्ष्मण रेखा से बाँध दिया जाएगा तो वह धीरे धीरे सड़ जाएगी और फिर मर जाएगी।
11. जब प्रेमचंद ने उर्दू से आकर हिन्दी में लिखना शुरु किया था तो उनकी भाषा को देखकर छायावादी संस्कारों में रँगे हुए आलोचकों ने बहुत नाक भौंह सिकौड़ी थी तथा प्रेमचंद को उनकी भाषा के लिए पानी पी पीकर कोसा था। मगर प्रेमचंद की भाषा खूब चली। खूब इसलिए चली क्योंकि उन्होंने प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया।
12. ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में ही अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग होता है और अंग्रेजी बिल्कुल अछूती है। अंग्रेजी में संसार की उन सभी भाषाओं के शब्द प्रयुक्त होते हैं जिन भाषाओं के बोलने वालों से अंग्रेजों का सामाजिक सम्पर्क हुआ। चूँकि अंग्रेजों का भारतीय समाज से भी सम्पर्क हुआ, इस कारण अंगेजी ने हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों का आदान किया है। यदि ब्रिटेन में इंडियन रेस्तरॉ में अंग्रेज समोसा, इडली, डोसा, भेलपुरी खायेंगे, खाने में ‘करी’, ‘भुना आलू’ एवं ‘रायता’ मागेंगे तो उन्हें उनके वाचक शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा। यदि भारत का ‘योग’ करेंगे तो उसके वाचक शब्द का भी प्रयोग करना होगा और वे करते हैं, भले ही उन्होंने उसको अपनी भाषा में ‘योगा’ बना लिया है जैसे हमने ‘हॉस्पिटल’ को ‘अस्पताल’ बना लिया है। जिन अंग्रेजों ने भारतविद्या एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन किया है उनकी भाषा में अवतार, अहिंसा, कर्म, गुरु, तंत्र, देवी, नारद, निर्वाण, पंडित, ब्राह्मन, बुद्ध, भक्ति,भगवान, भजन, मंत्र, महात्मा, महायान, माया, मोक्ष, यति, वेद, शक्ति, शिव, संघ, समाधि, संसार, संस्कृत, साधू, सिद्ध, सिंह, सूत्र, स्तूप, स्वामी, स्वास्तिक, हनुमान, हरि, हिमालय आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। भारत में रहकर जिन अंग्रेजों ने पत्र, संस्मरण, रिपोर्ट, लेख आदि लिखे उनकी रचनाओं में तथा वर्तमान इंगलिश डिक्शनरी में अड्डा, इज्जत, कबाब, कोरा, कौड़ी, खाकी, खाट, घी, चक्कर, चटनी, चड्डी, चमचा, चिट, चोटी, छोटू, जंगल, ठग, तमाशा, तोला, धतूरा, धाबा, धोती, नबाब, नमस्ते, नीम, पंडित, परदा, पायजामा, बदमाश, बाजार, बासमती, बिंदी, बीड़ी, बेटा, भाँग, महाराजा, महारानी, मित्र, मैदान, राग, राजा, रानी, रुपया, लाख, लाट, लाठीचार्ज, लूट, विलायती, वीणा, शाबास, सरदार, सति, सत्याग्रह, सारी(साड़ी), सिख, हवाला एवं हूकाह(हुक्का) जैसे शब्दों को पहचाना जा सकता है। डॉ. मुल्क राज आनन्द ने सन् 1972 में ‘पिजि़न-इंडियन: सम नोट्स ऑन इंडियन-इंगलिश राइटिंग’ में यह प्रतिपादित किया था कि ऑॅक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी में 900 से अधिक भारतीय भाषाओं के शब्द हैं तथा इनकी संख्या हर साल बढ़ती जा रही है।
विषय पर अन्यत्र प्रस्तुत अपनी टिप्पणी के एक अंश को यहाँ केवल इस लिए दोहरा रहा हूँ ताकि मैं आचार्य महावीर सरन जैन जी से पूछ पाऊं कि उनके “अब तक के पूरे जीवन में हिन्दी की प्रगति और विकास के लिए काम” करते आज ‘हिंग्लिश’ (रोमन लिप्यान्तरण व धड़ल्ले से प्रयोग किये गए अंग्रेजी शब्द) का क्योंकर बोलबाला है ?
“डॉ. मधुसूदन जी, “वर्धा हिन्दी शब्दकोश के बहाने से हिन्दी के विकास के संबंध में कुछ विचार” पर आपकी टिप्पणी से पूर्णतया सहमत मैं विषय पर विवाद को केवल ऊपर आकाश में हवाई-लड़ाई के रूप में देखता हूँ जिसे क्षण भर देख-सुन साधारण लोग भूल जाते हैं। परन्तु, नीचे धरती पर औरों की भांति पूर्व सत्ता की हिंदी भाषा संबंधी सुनियोजित योजना के अंतर्गत कभी कार्यरत Professor Mahavir Saran Jain, Director, Central Institute of Hindi, Agra अपनी विधिवत कर्तव्य-भावना से वर्धा कोश (निम्नलिखित उद्धरण) द्वारा हिन्दी को ‘हिंग्लिश´ बनाने की कुटिल योजना में मात्र एक अभिषंगी रहे हैं जिसकी किसी को भनक तक नहीं है।
“अंडर (इं.) [क्रि.वि.] 1. नीचे; नीचे की तरफ़; तल में 2. घट कर या कमतर 3. अधीनता में।
अंडरग्राउंड (इं.) [वि.] 1. भूमि के नीचे का 2. भूमिगत; गुप्त, जैसे- जेल से फ़रार होकर आंदोलनकारी अंडरग्राउंड हो गए।
अंडरग्रैजुएट (इं.) [वि.] 1. स्नातक उपाधि के लिए अध्ययनरत 2. पूर्वस्नातक।
अंडरलाइन (इं.) [क्रि-स.] किसी लिखी हुई बात का महत्व दिखाने के लिए उसके नीचे लकीर खींचकर रेखांकित करना।
अंडरवर्ल्ड (इं.) [सं-पु.] 1. अपराधियों और माफ़ियाओं की दुनिया या समाज; अपराध जगत; संगठित अपराध जगत 2. अधोलोक।
अंडरवियर (इं.) [सं-पु.] 1. अधोवस्त्र के नीचे पहनने के कपड़े, जैसे- जाँघिया, कच्छा 2. अंतर्वस्त्र; अंतर्परिधान।
अंडरस्टैंडिंग (इं.) [सं-स्त्री.] 1. बुद्धि; समझ 2. सहमति; आपसदारी; सामंजस्य; तालमेल; आपसी समझ।””