समाज और धर्म की समापन किस्त

-गंगानंद झा-

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जब अपने बड़े बेटे के हाई स्कूल में नामांकन का अवसर उपस्थित हुआ तो मेरे सामने चुनाव की समस्या आई, किस स्कूल में नामांकन कराया जाए? तब सीवान में लड़कों के तीन और लड़कियों के दो हाई स्कूल हुआ करते थे । लड़कों के स्कूलों के नाम थे डी.ए. वी. हाई स्कूल, इस्लामिया हाई स्कूल तथा वी.एम. एच. ई. स्कूल । पहले दो नाम यद्यपि विशेष संप्रदायों से जुड़े थे, पर वास्तविकता में इन संप्रदायों का अपने अपने स्कूलों के प्रबधन तक ही सीमित था । स्कूलों के , कक्षाओं के परिवेश में इनका कोई दखल नहीं रहा करता था । भिन्न समुदायों के संबंध में उतना ही पूर्वाग्रह था जितना स्कूल के बाहर के समाज में । डी.ए.वी. स्कूल में मुसलमान और इस्लामिया स्कूल में हिन्दू लड़के सहजता से नामांकन कराकर पढ़ाई करते थे। हाँ, इस्लामिया स्कूल में मुसलमान शिक्षक थे, विद्यालय भवन कच्चा, खपरैल था। विद्यालय-परिसर अपरिच्छन्न और छात्रों की संख्या अपेक्षाकृत कम रहा करती थी । स्कूल के इर्दगिर्द की आबादी मुख्यतः मुसलमानों की थी । जब कि बाकी दोनों विद्यालयों के पास पक्के भवन तथा प्रशस्त परिसर थे तथा छात्रों की संख्या काफी अधिक रहा करती थी । डी.ए.वी. स्कूल में पाठयेतर सक्रियता काफी उल्लेखनीय रहा करती थी और यह उस समय नामांकन के लिए पहली पसन्द हुआ करता था । वी.एम, एच. ई. स्कूल तब अन्दरूनी कलह से ग्रस्त था, इससे उसका सुनाम भी प्रभावित था । इस्लामिया स्कूल के बारे में सकारात्मक एक ही बात थी कि पढ़ाई अपेक्षाकृत अच्छी होने की प्रतिष्ठा उसे मिलती थी । फिर भी हिन्दू अभिभावकों के द्वारा दूसरे स्कूलों की तुलना में इसे तरजीह दिए जाने का सवाल ही नहीं था । इस पृष्ठभूमि में जब मैंने अपने मेधावी बेटे का नामांकन इस्लामिया स्कूल में कराया तो लोगों ने इसे सहज और सामान्य सोच नहीं कहा । लोगों ने अपने अपने ढंग से व्याख्या की, मैंने अपने कोई टिप्पणी नहीं की । स्वयम् बब्बू को मेरा यह निर्णय अच्छा नहीं ही लगा था, जैसा बाद में उसकी प्रतिक्रियाओं से मालूम हुआ था मुझे । मैं उसे समझा भी नहीं पाया था

पर यह तो सही है कि मैंने अपनी धर्म-निरपेक्ष छवि प्रस्तुत करने के लिए ऐसा नहीं किया था , अन्यथा अपु का नामांकन डी.ए.वी.स्कूल में नहीं कराया होता । बब्बू के नामांकन में डी.ए.वी.स्कूल के ऊपर इस्लामिया स्कूल को तरजीह देने की खास वजह थी मेरी एक आशंका और एक अक्षमता । आशंका का संबंध उसके साथ डी.ए.वी. स्कूल में नामांकन लेनेवाले कुछेक लड़कों के अभिभावकों की बात । उनके बारे में मशहूर था कि वे अपने बच्चों  स्कूल की परीक्षाओं में अधिक अंक दिलवाने के लिए शिक्षकों पर विभिन्न प्रकार के दबाव दिया करते थे तथा लड़कों के आपसी झगड़ों में भी अक्सर दखलन्दाजी किया करते थे । इस स्थिति से निबटना अपने बस का रोग नहीं था, मेरा मानना था कि लड़कों को आपस में सहज रूप से आपसी समीकरण विकसित करने के अवसर मिलने चाहिए । यह भी सच था कि मैं प्रयास करके भी अभिभावकों के झगड़े में जीत नहीं पा सकता था । दूसरी ओर इसको बब्बू के सन्दर्भ में नजरअन्दाज करना भी घातक होता । वह बचपन में अपनी संभावनाओं के प्रकाश के प्रति, उनकी स्वीकृति के प्रति अन्यमनस्क रहा था । बाहरी उद्दीपनाओं से अप्रभावित-सा, उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो खुल नहीं पा रहा था ; कोमल ऐसा कि छूने से मुरझाने की आशंका हो, दुनिया से अपना पावना वसूलने की कोई तत्परता नहीं, आश्वस्त-सा कि किसी अतिरिक्त प्रयास का कोई प्रयोजन नहीं । मिड्ल बोर्ड की परीक्षा जब उसने दी थी तो परीक्षार्थी की औसत तत्परता भी उसमें नहीं थी । उसकी जानकारी और अभिव्यक्ति के स्तर के आधार पर मेरा आकलन था कि राज्य स्तर पर की मेधा-सूची में उसका स्थान होना चाहिए । पर घोषित परिणाम में उसे बस प्रथम श्रेणी मिल गई थी । उससे अधिक चौंकानेवाली बात थी कि स्वयम् बब्बू को किसी प्रकार की निराशा या कष्ट नहीं था इस परिणाम से । इससे यह स्पष्ट था कि यह परिवेश प्रेरणादायक नहीं ही होता उसके लिए, उसकी संभावनाओं को कुण्ठित अवश्य कर सकता था। विकल्प में इस्लामिया स्कूल में ऐसी प्रतिकूलता की आशंका नहीं थी । वहाँ मेरे साथ सारे शिक्षकों के घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध के कारण इस बात की अपेक्षा की जा सकती थी कि उसका ध्यान रखा जाता ।

अपु के व्यक्तित्व के संबंध में उसी स्टेज का अवलोकन एकदम अलग था । उसके समय में मिड्लस्टेज में जिला स्तर पर स्कॉलरशीप परीक्षा हुआ करती थी । यह परीक्षा दो चरणों में सम्पन्न होती थी . प्रारंभिक स्टेज में अनिमण्डलीय स्तर पर चयन होता, फिर अन्तिम परीक्षा में ये चयनित छात्र  सम्मिलित हुआ करते थे । अपु का स्वास्थ्य उन दिनों ठीक नहीं रहा करता था ;अक्सर सर-दर्द से वह परेशान हो जाया करता था । प्रारंभिक परीक्षा में सफल होने के पश्चात अपु में मैंने एक अर्थपूर्ण अवलोकन किया । अंतिम परीक्षा के लिए वह तत्परता से पढ़ाई करने लगा था । सरदर्द एकाएक गायब-सा हो गया और अंतिम परीक्षा में उसने मेधा सूची में द्वितीय अर्जित किया था । एक बार भी उसे प्रेरित करने या दबाव डालने की जरूरत नहीं हुई थी ।  इस अवलोकन से मेरा निष्कर्ष था कि उसके अन्दर वे प्रवणताएँ हैं जो व्यक्ति के अन्दर की संभावनाओं को अभिव्यक्त करने के उपकरण होते हैं । उसके लिए चुनौतियाँ और आह्वान रहने चाहिए और रहने चाहिए उपयुक्त संसाधन । इस पृष्ठभूमि में अपु के लिए डी.ए.वी. स्कूल पूर्णतः उपयुक्त तथा संभावनामय था , इसलिए उसका नामांकन डी.ए.वी. स्कूल में कराने का कोई विकल्प तलाशने का सवाल ही नहीं था ।

सिलचर में अपने कॉलेज के इतिहास विभाग के प्रोफेसर श्री रजत दत्त से बातें हो रही थीं । उन्होंने हिन्दू बनाम मुसलमान समीकरण की चर्चा करते हुए कहा, ‘ जवाहर लाल नेहरू ने अकबर को  धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक के रूप में सम्राट अशोक के समकक्ष तथा समानांतर दर्शाया । शिवाजी महाराज को राष्ट्रीयता के प्रतीक  की मान्यता मिली पर महाराणा प्रताप के संबंध में वे स्पष्ट नहीं हुए कभी । क्या यह माना जाए कि वे साम्प्रदायिक थे, राष्ट्रभक्त नहीं ? दूसरा सवाल है कि  भारतीय संस्कृति किन अर्थों में हिन्दू संस्कृति से  भिन्न है । इन बिन्दुओं पर चर्चा की जरूरत हमें महसूस होती है ।

दत्त साहब ने एक और तस्वीर प्रस्तुत की थी । इस्लाम के पहले भी  भारत में बाहरी प्रभाव आये, पर वे सब हिन्दुओं में समा गए , अपनी स्वतंत्र  पहचान कायम नहीं रख सके वे । इस्लाम को अपने में समोने में हिन्दू नाकाम रहे । इसने यहाँ अपना सशक्त स्वतंत्र अस्तित्व  स्थापित किया है । दूसरी ओर भारत के अलावे कोई दूसरा देश ऐसा नहीं है जहाँ इस्लाम का शासन सदियों तक रहा, पर वहाँ की वहुसंख्यक आबादी ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया । इस्लाम का एजेण्डा अपूर्ण रह गया यहाँ । इस तरह दोनो ही पक्षों को एक दूसरे से हिसाब समझना है ।

रिजवान का कौतुक-बोध गुदगुदानेवाला होता था । अच्छे मियाँ के नाम से सबका चहेता रिजवान मजेदार चुटकुले सुनाता था । उन्हीं चुटकुलों में से एक यों है –

अल्लाह मियाँ शतरंज की बिसात बिछाए हुए खेलने में मशग़ूल थे, तभी उनके कुछ पैग़म्बर घबड़ाए से दौड़ते हुए आए, ‘अल्लाह मियाँ, अल्लाह मियाँ ! ग़जब हो गया, उठिए,उठिए । ‘अल्लाह मियाँ उनकी घबराहट से कुछ परेशान से हो गए और पूछा कि क्या हुआ है । पैग़म्बर ने जवाब दिया, ‘इस्लाम खतरे में है । जल्दी चलिए । इजरायल ने इजिप्ट पर हमला कर दिया है ।’

अल्लाह ने बिसात पर से नजर हटाए बग़ैर कहा, ‘ऐसी बात है ! चलो चलते हैं ।’  और एक चाल चल दी । पैग़म्बर इन्तजार करते रहे, पर अल्लाह मियाँ का ध्यान शतरंज पर टिका रहा।

दूसरा वाकया। जब अल्लाह मियाँ शतरंज की बिसात बिछाए हुए खेलने में मशग़ूल थे, तभी उनके कुछ पैग़म्बर घबड़ाए से दौड़ते हुए आए, ‘अल्लाह मियाँ, अल्लाह मियाँ ! ग़जब हो गया, उठिए,उठिए । ‘अल्लाह मियाँ उनकी घबराहट से कुछ परेशान से हो गए और पूछा कि क्या हुआ है । पैग़म्बर ने जवाब दिया, ‘इस्लाम खतरे में है । जल्दी चलिए । क़ाबा पर हथियारबन्द लोगों ने हमला कर दिया है।

फिर भी अल्लाह ने बिसात पर से नजर हटाए बग़ैर कहा, ‘ऐसी बात है ! चलो चलते हैं ।’  और एक चाल चल दी । पैग़म्बर इन्तजार करते रहे, पर अल्लाह मियाँ का ध्यान शतरंज पर से नहीं हटा।

तीसरा वाकया। जब अल्लाह मियाँ शतरंज की बिसात बिछाए हुए खेलने में मशग़ूल थे, तभी उनके कुछ पैग़म्बर घबड़ाए से दौड़ते हुए आए, ‘अल्लाह मियाँ, अल्लाह मियाँ ! ग़जब हो गया, उठिए,उठिए । ‘अल्लाह मियाँ उनकी घबराहट से कुछ परेशान से हो गए और पूछा कि क्या हुआ है । पैग़म्बर ने जवाब दिया, ‘इस्लाम खतरे में है । जल्दी चलिए । बंगलोर में भारत पाकिस्तान क्रिकेट टेस्ट मैच में पाकिस्तान हार की कगार पर है। अलालाह मियाँ ने बिना कुछ बोले बिसात समेटी और बेगलोर के लिए रवाना हो गए।

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