समाजवादियों के लिये अहम पड़ाव है 2017
संजय सक्सेना
बिहार में चुनावी सरगमी खत्म होने के बाद तमाम दलों के नेताओं ने उत्तर प्रदेश में 2017 में होने वाले विधान सभा चुनावों को लेकर रणनीति बनाना शुरू कर दी है।अबकी बीजेपी को यूपी मे काफी उम्मीदें हैं तो ओवैसी भी ताल ठोंकते दिख रहे हैं। पंचायत चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करके बसपा ने यह बता दिया है कि उसे कोई हल्के में लेने की कोशिश न करें।वहीं समाजवादी पार्टी के लिये 2017 के चुनाव उसके कामकाज पर जनता की मोहर लगायेंगें। 2017 में ही समाजवादी पार्टी अपनी स्थापना का ‘सिल्वर जुबली’ कार्यक्रम मनायेगी। किसी भी राजनैतिक दल और उनके नेताओं के लिये यह महत्वपूर्ण पड़ाव है। ऐसे समारोह धूमधाम से मनाये जाते हैं। खासकर तब और जब 25 वर्ष बाद एक नेतृत्व बूढ़ा हो चला हो और दूसरी पौध ‘फल-फूल’ दे रही हो। सपा के बुजुर्ग-युवा सभी नेता यही चाहते हैं कि सिल्बर जुबली कार्यक्रम यादगार बने,लेकिन समस्या यह है कि सिल्वर जुबली कार्यक्रम को जानदार-शानदार तरीके और वह भी सत्ता में रहते हुए मनाने के लिये पहले पार्टी के थिंक टैंक और सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को 2017 का चुनावी मिशन पूरा करना होगा। यह काम अगर मुश्किल नहीं है तो आसान भी नहीं कहा जा सकता है।उम्मीद की जानी चाहिए की सपा युवा नेतृत्व और खासकर अखिलेश यादव की भरपूर यह कोशिश रहेगी कि वह अपने पिता मुलायम को सिल्बर जुबली कार्यक्रम से चंद महीने पूर्व एक बार फिर सत्ता हासिल करके उन्हें सत्ता के ‘तोहफे’ से नवाजें,जिस तरह से 2017 को लेकर मुलायम चिंता जता रहे हैं,उससे तो यही लगता है कि 2017 अखिलेश की अग्नि परीक्षा का वर्ष साबित होगा। अगर अखिलेश बिग्रेड 2017 के चुनाव जीतने में सफल रहती है तो इससे अखिलेश का कद काफी बढ़ जायेगा,क्योंकि 2012 के चुनाव भले ही अखिलेश ने बहुत मेहनत की थी,लेकिन जीत का श्रेय सियासत के तेजतर्रार खिलाड़ी मुलायम को ही दिया गया था। मुलायम जिन्होंने 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन किया था के बारे में इतना ही कहना काफी है कि उन्होंने अपनी मेहनत और सूझबूझ से सपा को शून्य से शिखर तक पहुंचाया।वह ‘वन मैन आर्मी’ की तरह काम करते रहे।इस दौरान अनेक उतार-चढ़ाव देखने को मिले।कभी सत्ता रही,तो कभी गई।कई दोस्त बने और बाद में नाराज होकर चले गये। मौका मिला तो नेताजी ने दिल्ली मे भी हिस्सेदारी लेने से गुरेज नहीं किया।राजनीति में न कोई दोस्त होता है न कोई दुश्मन।इसी थ्योरी को लेकर मुलायम लगातार आगे बढ़ते और पीछे विवाद छोड़ते रहे।उन्होंने भाजपा को कोस-काट कर अपना जनाधार बनाया तो मौका पड़ने पर भाजपा के करीब दिखने में गुरेज भी नहीं किया।इसकी सबसे बड़ी बानगी तब देखने को मिली जब उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के आरोपी और प्रबल विरोधी पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के साथ हाथ मिला लिया।कल्याण से मुलायम का हाथ मिलना इस लिये भी महत्वपूर्ण था क्योंकि अयोध्या मामले में मुलायम मुसलमानों का पक्ष ले रहे थे जबकि कल्याण सिंह की छवि कट्टर हिन्दुत्व वाली थी।मुलायम की राजनीति चमकाने में अयोध्या और पिछड़ा वोट बैंक की सियासत ने हमेशा अहम रोल निभाया।मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे कई बार सपा सत्ता की सीढ़िया चढ़ने में कामयाब रही।इन दोनों पर अभी भी ं सपा की मजबूत पकड़ हैं।
आज भले ही मुलायम पर उम्र का प्रभाव दिखता हो,लेकिन उनके पुराने दोस्त ही नहीं दुश्मन भी नेताजी के संघर्ष क्षमता के कायल थे।मुलायम ने कभी भी ड्राईंग रूम पालटिक्स नहीं की।आंदोलन मुलायम की रग-रग में बसा था।वह कार्यकर्ताओं से कंधे से कंधा मिलाकर सड़क पर संघर्ष करते थे।अपने को समाजवादी नेता डा0 राम मनोहर लोहिया का चेला बताने वाले मुलायम सिंह ने जय प्रकाश नारायण,चैधरी चरण सिंह,राजनारायण, चन्द्रशेखर, आदि कई धुरंधरों के बीच अलग मुकाम हासिल किया। किसान नेता पूर्व प्रधानमंत्री चैधरी चरण सिंह और राजनारायण के काफी करीबी रहें मुलायम को आगे बढ़ाने में इन दोनों नेताओं का विशेष योगदान रहा।मधु लिमये,स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर एवं राम सेवक यादव जैसे जुझारू समाजवादी नेताओं के निकट आकर मुलायम ने काफी कुछ सीखा।मुलायम ने हमेशा संघर्ष का रास्ता चुना तो उनके विरोधी उन पर सत्ता के करीबी होने का अरोप लगाते रहते हैं।केन्द्र में चाहें कांगे्रस गठबंधन की सरकारें रहीं हो या फिर भाजपा गठबंधन की मुलायम के सभी से रिश्ते प्रगाढ़ रहे। इस बात का अहसास अभी भी उनकी सियासत में देखने को मिलता है।
सपा प्रमुख मुलायम के उभार के साथ ही उत्तर प्रदेश में कांगे्रस रसातल में चली गई।कांगे्रस के बड़े वोट बैंक मुस्लिम को मुलायम ने अपने पाले में कर लिया तो वह कुछ पिछड़ी जातियों के भी मसीहा बन बैठे।मुलायम की मुस्लिम परस्ती के कारण लोग उन्हें मुल्ला मुलायम भी कहते थे,लेकिन मुलायम ने इसकी जरा भी चिंता नहीं की।सपा के उभार से कांगे्रस को तो नुकसान हुआ ही अयोध्या का विवादित ढंाचा गिरने के बाद बीजेपी की भी संासे यूपी में उखड़ने लगी।मुलायम को अगर यूपी में किसी से चुनौती मिली तो वह बसपा सुप्रीमों मायावती थीं।उत्तर प्रदेश में पिछले करीब 25 वर्षो से सपा-बसपा सत्ता की धुरी बने हुए हैं।माया जाती हैं तो मुलायम आ जाते हैं और मुलायम जाते हैं तो माया आ जाती हैं।आज भी दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा है।मायावती तो मुलायम का नाम आते ही बिदक जाती हैं।लोकसभा चुनाव के बाद मुलायम ने भाजपा को रोकने के लिये मायावती से हाथ मिलाने की इच्छा जाहिर की थी,लेकिन मायावती ने मुलायम को बुरी तरह से नकार दिया।मायावती दो दशकों के बाद भी स्टेट गेस्ट हाउस कांड भूलने को तैयार नहीं हैं।मुलायम को जहां पिछड़ो और मुसलमानों का नेता समझा जाता है,वहीं कुछ वर्षो से सवर्जन हिताय की बात करने वाली मायावती की मजबूत पकड़ दलित मतदाताओं पर रही।
बहरहाल, बात समाजवादी पार्टी के सिल्वर जुबली वर्ष की ही कि जाये तो इस जश्न के रास्तें में सपा का सबसे बड़ा रोड़ा मायावती ही बन सकती हैं,जिस तरह से पंचायत चुनावों में बसपा प्रत्याशियों ने प्रर्दशन किया,उससे समाजवादियों के दिल की धड़कन बढ़ गई है।मायावती के अलावा अगर सपा को किसी और से खतरा दिखाई दे रहा है तो वह ओवैसी की पार्टी है,जो यूपी में दस्तक दे चुके हैं।मुलायम सिंह के संसदीय क्षेत्र आजमगढ़ मेे ओवैसी की पार्टी का एक नेता पंचायत चुनाव जीतने में सफल रहा।
खैर,2017 समाजवादी पार्टी के लिये काफी अहम रहने जा रहा है।अखिलेश अगर 2017 का चुनाव जीत लेते हैं तो इससे उनका पार्टी के भीतर तो कद बढ़ेगा ही राष्ट्रीय राजनीति में भी इसका प्रभाव देखने को मिलेगा। 75 साल की उम्र में मुलायम के लिये भी इससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता है कि उनका बेटा उनकी विरासत को मजबूती से संभालेगा।विधान सभा के चुनाव मार्च-अप्रैल 2017 के करीब होंगे और नवंबर 2017 में समाजवादी पार्टी स्थापना का सिल्वर जुबली वर्ष मनायेगी।अगर 2017 में सपा की सत्ता में वापसी होती है तो यह जीत और इसी वर्ष होने वाले सिल्वर जुबली कार्यक्रम का डबल धमाका देखने को मिल सकता है,जिसका सभी समाजवादियों को भी बेसब्री से इंतजार है।