साइकिल

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cycleराजू कई दिन से साइकिल सीखने की जिद कर रहा था। उसके साथ के कई लड़के साइकिल चलाते थे; पर उसके घर वालों को लगता था कि वह अभी छोटा है, इसलिए चोट खा जाएगा। अतः वे हिचकिचा रहे थे।

यों तो घर में एक साइकिल थी, जिसे पिताजी चलाते थे; पर वह बड़ी थी। जब पिताजी राजी नहीं हुए, तो राजू ने बाबाजी की चिरौरी की। राजू की उनसे खूब पटती थी। वह सोता भी उनके कमरे में ही था। वे इस शर्त पर राजी हुए कि राजू पढ़ने में खूब परिश्रम करेगा और घर-बाहर के कुछ काम भी किया करेगा। उस मोहल्ले में एक दुकान थी, जहां पांच रुपये प्रति घंटे पर छोटी साइकिल किराये पर मिलती थी। बाबाजी ने वहां पन्द्रह दिन के लिए पैसे जमा करा दिये। इससे राजू को रोज एक घंटे के लिए साइकिल मिलने लगी।

शुरू में वह कई बार गिरा। एक बार सामने से आती महिला से टकराया और एक बार किनारे खड़ी बैलगाड़ी से। घुटनों पर चोट भी लगी; पर फिर उसके हाथ और पैर सधने लगे। महीने भर में वह ठीक से साइकिल चलाने लगा। अब उसने पिताजी की साइकिल पर हाथ आजमाया। ऊंची होने के कारण वह गद्दी पर तो नहीं बैठ पाता था; पर डंडे के नीचे इधर-उधर पैर डालकर कुछ दूर तक चला लेता था। कुछ दिन में उसे इसका भी अभ्यास हो गया।

कोई नयी चीज सीखें, तो उसे बिना काम के भी बार-बार प्रयोग करने की इच्छा होती है। यही हाल राजू का था। जब भी मौका मिलता, वह साइकिल चलाने लगता था। एक बार पिताजी को बाजार जाना था। उन्होंने देखा, तो साइकिल नहीं थी। वह दरवाजे के पास ही खड़ी रहती थी। वे चिंतित हो गये। कहीं उसे कोई उठाकर तो नहीं ले गया ?

बाबाजी ने उनकी परेशानी का कारण पूछा। फिर उन्होंने राजू के बारे में पूछा। पता लगा कि वह भी घर पर नहीं था। अब बाबाजी हंसे, ‘‘यदि राजू और साइकिल दोनों नहीं हैं, तब चिन्ता की कोई बात नहीं है। हां राजू घर पर हो और साइकिल न हो, तब चिन्ता करनी चाहिए। तुम आराम से बैठो, दस-पांच मिनट में साइकिल आ जाएगी।’’

सचमुच थोड़ी देर में राजू भी आ गया और साइकिल भी।

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