‘राष्ट्र-मानस’ की तड़प… ‘टीम-भावना’ युक्त राजनेताओं की कमी खल रही ?

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सबक बिहार से– एक नजरिया

 

तुलसी टावरी

ऐसे क्षण किसी भी राष्ट्र या समाज में विरले ही आते हैं, जब राष्ट्र की सोई चेतना एक साथ करवट लेने लगती है l और कहीं न कहीं संपूर्ण राष्ट्र को झकझोक कर एक नए स्वरुप में उठाने का प्रयास करती हैं l ऐसे ही में आविर्भाव होता है एक अद्भुत “स्व-स्फूर्त राष्ट्र-मानस” का l जब सम्पूर्ण राष्ट्र एक मन लेकर खड़ा हो जाता है l इसके जड़ में एक सच्चाई होती है, जो किसी संगठन या व्यक्ति से भेदभाव नहीं करती l पुराने मन-मुटाव या कि गलत-सही धारणाओं से ऊपर उठकर निष्पक्ष भाव से देखना चाहती है हर व्यक्ति व संगठन को l जानना चाहती है वह किस पर भरोसा करे ?

partiesइस राष्ट्र-मानस का कोई एक नेता नहीं होता l आवश्यकता अनुसार नए-नए व्यक्ति विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व की भूमिका निभाने लगते हैं l वर्षों से समाज-हित में समर्पित जो भी शक्तियां काम कर रही होती हैं, या कि हर वह व्यक्ति जो सच्चे मन से सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रति सही सोच रखता है, सभी इसके तात्कालिक घटक बन कर प्रस्तुत हो जाते हैं, अपनी-अपनी क्षणिक या स्थिर जिम्मेदारियों को निस्वार्थ भाव से निभाने l यही वो क्षण होता है जब सामान्य व्यक्ति के अन्तःकरण में असाधारण भाव की जागृति होती है, जो उसे अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर सम्पूर्ण राष्ट्र-भाव से पूरी तरह आच्छादित कर देती है, कुछ ही समय के लिए ही सही l

इन क्षणों में, कोई न कोई निष्ठावान व्यक्ति सम्पूर्ण “राष्ट्र-मानस” के प्रतीक बन कर सामने आ ही जाते हैं, रिले-रेस की कड़ियों की तरह, अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह करने l

१९७५ की सम्पूर्ण क्रांति में प्रतीक व्यक्ति जेपी बने थे और २०११ में अन्ना l

‘२०११ के अन्ना-आन्दोलन’ से आरम्भ इस रिले-रेस में अगली कड़ियाँ जुड़ती चली गई- ‘२०१३ के दिल्ली-चुनाव में नयी जन्मी पार्टी आप’ को जनता ने स्वीकार कर लिया, ‘२०१४ लोक-सभा में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को हाँथों-हाँथ ले लिया’, २५ वर्षों बाद भारत ने देखी पूर्ण-बहुमत की सरकार l एक के बाद एक यह तीनों घटनाएँ क्या किसी ईश्वरीय चमत्कार से कम लगती हैं l दशकों से अन्दर ही अन्दर घुटती जन-चेतना को किसने दिया निर्देश?

बिहार-चुनाव के परिणाम को अन्ना-आन्दोलन से उठी “राष्ट्र-मानस की उस यात्रा” के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में देखा जाना चाहिए, ताकि हम घटनाओं का सार्थक विश्लेषण कर सकें- “राष्ट्र-मानस” के परिप्रेक्ष्य में, न कि तात्कालिक विजय प्राप्त करने वाले नेताओं के ‘सीमित व्यक्तित्व’ के आधार पर l इस यात्रा में किसी भी व्यक्ति या नेता को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि उसकी विजय का कारण वह स्वयं था l चाहे वह व्यक्ति कितना भी बड़ा क्यों न लगता हो l उसके कुछ गुण हैं जिनकी आवश्यकता राष्ट्र महसूस करता है, यह सही है, मगर उनके अकेले पर राष्ट्र निर्भर नहीं l

अन्यथा भ्रम के इस वातावरण का लाभ उन स्वार्थी शक्तियों को ही मिलेगा, जो देश को पिछले छः दशकों से ‘वोट-बैंक की कुत्सित राजनीति’ में धकेलकर कमजोर व खोखला ही करती आ रही हैं, और आगे भी करती ही रहेंगी l क्या सचमुच बिहार का नतीजा लालू यादव व नितीश कुमार की विजय है? या कि यह बीजेपी को गलत ढंग से चलाने वाले नेतृत्व की हार है l पूरे विषय को सही ढंग से समझने के लिए हमें राष्ट्र में पिछले कुछ वर्षों से होने वाली उथल-पुथल पर नज़र दौड़ानी होगी l और समझना होगा, राष्ट्र में उठती एक ऐसी जिजीविषा को जो बार-बार हमें नया सबक सिखाने का प्रयास कर रही है l

 

२०११ में अन्ना हजारे ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाई, आगे-पीछे लगभग सारा राष्ट्र उनका दीवाना हो गया था l कौन विश्वास कर सकता था उन दिनों, कि मॉडर्न कहलाने वाले, जींस पहनने वाले, अंग्रेजी बोलने वाले, आज के युवा कभी किसी धोती-और-टोपी पहनने वाले, हिंदी-मराठी बोलने वाले गाँव के एक सरल से दिखने वाले व्यक्ति के पीछे पागल की तरह दौड़ पड़ेंगे ?

एक ऐसे वातावरण का निर्माण हो गया था, जैसे की पूरा राष्ट्र एक नई करवट लेने के लिए भीतर से बेचैन हो रहा l बड़े-छोटे, स्त्री-पुरुष, पढ़े-लिखे या फिर अनपढ़, हर तबके के लोग एक नई सुबह के उदय की सम्भावना पर विश्वास करने लगे और हर व्यक्ति रोमांचित था l नए मिडिया (टीवी, इन्टरनेट, सोसल नेटवर्क) की ताकत ने इस प्रक्रिया को एक ऐसी गति दी कि कुछ ही दिनों में सम्पूर्ण राष्ट्र में अन्ना-लहर दौड़ पड़ी l कुछ ऐसा ही हुआ था इजिप्ट में भी २०११ में, जिसे दुनिया अरब-स्प्रिंग के नाम से जानती है l

वह ऐसा ही क्षण था- “स्व-स्फूर्त राष्ट्र-मानस” के आविर्भाव का l जिसमें हर राष्ट्र-प्रेमी संगठन से जुड़े या किसी भी संगठन से न जुड़े स्वतंत्र व्यक्ति भी शामिल हुए l

कुछ विश्लेषक ‘अन्ना’ आन्दोलन को अन्ना का ही मानकर अक्सर अन्ना के असफल होने के कारण खोजते फिरते हैं; जबकि वे यदि इसे सम्पूर्ण “राष्ट्र-मानस” के जागरण के रूप में तथा अन्ना को एक प्रतीक के रूप में देख सकें तो उन्हें दिखेगा कि इस अन्ना-आन्दोलन की सबसे बड़ी विजय यह रही कि इसने भारत में ‘ईमानदारी ही सर्वोच्च सम्मान का पात्र’ इस मंत्र को पुनः राष्ट्र के सिंहासन पर स्थापित कर दिया l यदि आपको इस वास्तविकता को सचमुच समझना हो तो पूछिये ऐसे सभी व्यक्तियों से जिन्होंने कभी ईमानदारी का साथ नहीं छोड़ा पर पूरी तरह निराश हो चले थे भारत के भविष्य के प्रति, अन्ना आन्दोलन से पहले तक l

कमोबेश ये शायद वही स्थिति थी जैसे कि १९७५ में जेपी के सम्पूर्ण क्रांति के नारे ने दी थी l राष्ट्र-हित में सोचने वाले हर व्यक्ति को यह सन्देश मजबूर कर रहा था, कि अब बहुत हुआ l हजारों वर्षों की गरिमा से युक्त यह राष्ट्र कुछ ही तत्वों के हांथों का खिलौना बन कर कैसे रह सकता है l ये दोनों ही क्षण किसी भी दृष्टि से राम-रावण युद्ध या कि महाभारत युद्ध से कम नहीं थे l

मानो राष्ट्र-मानस द्वारा अन्याय के ऊपर न्याय की गुहार थी l

कांग्रेसी नेतृत्व द्वारा अन्याय के तीन गहरे घाव:

अन्ना-आन्दोलन के आते-आते, अन्याय के तीन विकराल स्वरूपों ने राष्ट्र को पूरी तरह से जकड़ लिया था, बल्कि आज भी जकड़ा हुआ है l

  • १) बेईमानी का बोलबाला: पूरे राष्ट्र में बेईमानी इस तरह हावी हो चुकी थी कि, हर व्यक्ति यह मानने लगा था कि हमारे इस देश में यदि उन्नति करनी हो तो ईमानदारी का साथ छोड़ना होगा l बेईमान बन कर सफल होना, ईमानदारी की तुलना में कहीं बहुत आसान लगने लगा l हर प्रकार से राजनीति, व्यापार तथा अफसरसाही के बीच ऐसे तालमेल बनने लगे जो भ्रष्ट मार्ग से धन प्राप्त करने की नयी नयी विधियाँ बनाने में जुट गयी l जो व्यक्ति किसी भी कीमत पर ईमानदारी का साथ नहीं छोड़ना चाहते थे, चाहे व्यापार में, राजनीति में, अफसरसाही में, या जीवन के किसी भी क्षेत्र में; अपनों के बीच भी उपहास का कारण बनने लगे थे l  ‘यह आया हरिश्चंद्र या कि महात्मा गाँधी’ ऐसे जुमले सच्चे लोगों का मजाक बनाने में उपयोग होने लगे थे l
  • २) इंडिया बनाम भारत: राष्ट्र सामाजिक विषमता का शिकार होकर दो भागों में बंट गया था: एक, इंडिया जो उनके लिए था जिन्हें अंग्रेजी भाषा व उच्च शिक्षा के समुचित अवसर प्राप्त हुए; जो कि शहरों में बसने लगा l दूसरा, भारत जो उनके लिए था जिन्हें समुचित शिक्षा (व अंग्रेजी भाषा ) से कोई सरोकार नहीं रहा, जो स्वाभाविक रूप से गाँव में ही बसा रहा, या कि उन्नति कि जद्दोजहद में शहरों में आकर गंदी नालियों पर बने स्लम में l हर राज्य के कुछ लोग इंडिया में मगर अधिकतम जनसंख्या (लगभग ७०% से ऊपर) गरीब और उपेक्षित पड़े भारत में l
  • ३) शहर बनाम गाँव: सारी अर्थ-व्यवस्था का नियंत्रण शहर-केन्द्रित बन जाने के कारण जहाँ गाँव पूरी तरह उपेक्षित पड़े रहे हैं, वहीँ जनसंख्या के बढ़ते दबाव ने शहरों को भी मरने के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है l न गाँव सही बचे, न शहर सही बने l आश्चर्य की बात है कि नीति-निर्धारकों को यह बात दिखाई कैसे नहीं पड़ती कि जहाँ एक ओर शहरों में एक ईस्क्वेअर कि मी में ३०,००० लोग एक-दुसरे पर लदे पड़े हैं, वहीँ शहरों से मात्र ५० कि मी की दूरी पर गाँव में मात्र ३०० लोग भी नहीं l धन और ज्ञान का ऐसा विचित्र केन्द्रीकरण जिसे सिर्फ शोषणकारी नहीं आत्मघाती ही कहा जा सकता है l

 

राष्ट्र को ऐसी दयनीय स्थिति तक पहुँचाने में राज नेताओं का ही हाँथ रहा, जिनमें मुख्य जिम्मेदारी स्वाभाविक रूप से कांग्रेस पार्टी के तात्कालिक नेताओं की रही, क्योंकि उन्होंने ने ही छः दशकों में अधिकतम समय तक देश पर राज किया l इस दौरान पूरी राजनीति ही शनैः शनैः जोड़-तोड़ की स्वार्थ-पूरक राजनीतिज्ञों के हांथों में सरकती चली गयी l या यूँ कहें कि जो भी राजनीति में प्रवेश किये, उन्होंने समाज के विभिन्न घटकों को आपस में लड़ा-भिड़ाकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे किये l और राष्ट्र को गड्ढे में ढकेल दिया l चुनाव सभ्य व्यक्तियों के लिए न रहकर भ्रष्ट ताकतों के हांथों का खिलौना बन गया l इसी दुर्गती से उबरने की प्रक्रिया में आज राष्ट्र-मानस बेचैन है l

 

जागरण की जो प्रक्रिया अन्ना-आन्दोलन से शुरू हुई, उसीकी अगली कड़ी बनी अरविन्द केजरीवाल की बनाई एकदम नयी आप-पार्टी l दिल्ली के जन-मानस ने पुराने स्थापित दिग्गज नेताओं को पुरानी व्यवस्था का प्रतीक मानकर, अनुभवहीन अरविन्द केजरीवाल में एक नयी सम्भावना पर विश्वास किया l उस समय यदि बीजेपी के नेतृत्व ने अरविन्द केजरीवाल को सम्पूर्ण राष्ट्र-मानस की चेतना के तात्कालिक प्रतीक के रूप में देखा होता और एक-दुसरे से तालमेल बनाया होता तो शायद राष्ट्र को दिल्ली में दुबारा चुनाव नहीं झेलना पड़ता l और बीजेपी को भी राजनितिक संगठनों के नव निर्माण की प्रक्रिया की अगुआई के श्रेय से नवाज़ा जाता l ऐसा यदि होता, तो हर राजनैतिक पार्टी (कांग्रेस भी) अंतःसुधार के लिए बाध्य हो जाती और हर स्तर पर ऐसे नेतृत्व की तलाश में लग जाती जिन्हें राष्ट्र-सेवा के लिए राजनीति करनी है, अपने स्वार्थ पूरा करने के लिए नहीं l खैर, शायद नियति भारत को हर प्रकार के सबक सिखाये बिना न्याय के मार्ग में प्रशस्त नहीं करना चाहती है l

अन्ना-आन्दोलन से आरम्भ परिवर्तन की इस रिले-रेस की तीसरी कड़ी में भारत को नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व के रूप में एक नयी सौगात मिली l यह भी “राष्ट्र-मानस” की ही विजय थी जिसने बीजेपी की राष्ट्रीय-स्तर की सर्वव्यापी संगठन क्षमता के महत्व को समझकर और नरेन्द्र मोदी में सार्थक नेतृत्व सम्भावना को भांपकर हांथो-हाँथ स्वीकार किया, भ्रष्टता के उस समय के सबसे बड़े प्रतीक कांग्रेस को सत्ता से दूर करने l मीडिया ने इस विचार को तीव्र गति दी, तभी यह स्वाभाविक हुआ l किसकी थी ये विजय? नरेन्द्र मोदी की, बीजेपी की, या कि बीजेपी व नरेन्द्र मोदी के प्रति राष्ट्र-मानस के विश्वास की ? इस बात पर एकमत हुए बिना हमारी इस चर्चा का कोई खास महत्व नहीं l

एक बार पुनः राष्ट्र-मानस के लक्ष्य को जांचें: पहले कदम पर, अन्ना-आन्दोलन ने ‘सच्चाई को सम्मान के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठाया’; दुसरे कदम पर, दिल्ली में आप की पहली जीत ने ‘एक नए ईमानदार आदमी के महत्व को पहली ही बार में ही स्थापित संगठनों से ऊपर उठा दिया’ (कांग्रेस का सफाया क्योंकि वही तो प्रतीक थी राजनातिक भ्रष्टाचार का, जबकि बीजेपी को सम्हाला, क्योंकि उससे अभी आशा टूटी नहीं थी ) यानि यह सन्देश कि यदि लोगों को किसी नए नेता की ईमानदारी पर विश्वास होगा तो वह उसकी अनुभवहीनता को भी नजरंदाज़ करेगी बनिस्बत स्थापित नेताओं के जिनपर उसे विश्वास नहीं; तीसरे कदम पर बीजेपी व नरेन्द्र मोदी की विजय से यह सन्देश दिया है कि राष्ट्र को चलाना एक अकेले आदमी के लिए संभव नहीं, बल्कि सही व्यक्ति के साथ राजनैतिक संगठन की स्थापित शक्ति भी जरुरी है l

बार-बार दिक्कत यह हो रही है कि सभी राजनेता, विजय को स्वयं के ही व्यक्तित्व के अहंकार में देखने से बाज नहीं आ रहे l जीत गए तो खुद सही और बाकि सब गलत, और हार गए तो कोई न कोई बहाने बनाकर छुट्टी पाना l अब हम यदि बिहार के नतीजों को अन्याय के तीन घावों के परिप्रेक्ष्य में देखें, और इसे व्यक्तियों से ऊपर उठ कर सोचें तो देख सकेंगे कि क्या सबक है जो राष्ट्र-मानस हमें देना चाह रहा है l

अभी जब लोग आस लगाये बैठे हैं अच्छी-सच्ची राजनीति के नए दौर की, क्या बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व ने बिहार की जनता के समक्ष एक सच्चा विकल्प रखा ? क्या उन्होंने सचमुच इन तीन विषयों के प्रति न्याय किया? क्या कारण बना कि जन-मानस ने बीजेपी को सबक सिखाने की ठानी ? यदि गौर से देखें तो उपरोक्त तीन विषयों में से दो विषय- ‘सामाजिक विषमता’ व ‘गाँव की दरिद्रता’, जो कि बिहार के लिए तात्कालिक रूप से प्रमुख हैं, को केन्द्रिय बिन्दू न बनाकर, बीजेपी नेतृत्व ने अनर्गल बातों व बड़बोड़ापन में ही अपना समय व शक्ति गँवा दी l और ‘ईमानदार नेतृत्व’ के नाम पर तो जन-मानस के सामने कोई नये विकल्प बीजेपी ने रखे भी नहीं l ऐसे में यदि बीजेपी के नेतृत्व को बिहार का राष्ट्र-मानस यदि यह कह रहा है कि आपकी बातों पर से विश्वास डगमगा रहा है, तो यह राष्ट्र के लिए बहुत ही गंभीर विषय है l

बिहार में राष्ट्र के सामने कोई सच्चा व सार्थक विकल्प खड़ा करने के बजाय, बीजेपी ने चुनिंदा पुराने भ्रष्ट व परिवारवाद में डूबे हुए नेताओं को फिर से ज़िंदा होने का अवसर ही प्रदान किया है l जिन्हें राष्ट्र-मानस ने चलता कर दिया था २०१४ में, उनके वापस जिन्दा होने पर उनका तो निश्चित ही पुनर्जन्म हो गया, मगर नुक्सान तो राष्ट्र का ही हुआ है? आखिर कब बंद होगी बार-बार भ्रष्ट नेताओं की वापसी चाहे पार्टी कोई हो? यह सब तो सबने पहले भी कई बार देखा ही है l अब यदि पार्टी को पारिवारिक जागीर माननेवाले लालू जैसे राजनीतिज्ञ ही देश का भविष्य तय करेंगे तो कब और कैसे होगा पड़ला भारी सच्चे राजनेताओं का अपनी अपनी पार्टी के भीतर, यह मुख्य प्रश्न है राष्ट्र के सामने आज?

राष्ट्र-मानस को इस चुनाव से जो निराशा हुई है उसकी तो कल्पना ही नहीं की जा सकती l अन्ना-आन्दोलन से परिवर्तन की जो धारा प्रारंभ हुई थी, उसके सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है बिहार ने? और ऐसा इस लिए कि बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व ने सच्चे लोगों की क्षेत्रीय टीम बनाने व आगे लाने के बजाय (जो बनी होती चौथी कड़ी राष्ट्र-निर्माण के रिले-रेस की), व्यक्तिगत लांछन लगाने की ओछी राजनीति करने की ही कोशिश की l अपनी पुरानी जीत को राष्ट्र-मानस का प्रसाद समझने के बजाय सिर्फ एक ही सही नेता है, ऐसा विचार, इतना घोर अहंकार ! जिन कुरीतियों के लिए कांग्रेस का प्रतिकार कर वे खड़े हुए, उन्हीं में खुद ही ढलते प्रतीत हो रहे हैं l

राष्ट्र का दुर्भाग्य यह है कि अब बीजेपी की भ्रमित व विश्वसनीयता खोये नेतृत्व की कुछ कमजोरियों को केंद्र बनाकर, वे ही स्वार्थी-तत्व हावी होते रहेंगे जिन्हें राष्ट्र ने पहले ही ठुकरा दिया था l अब किससे आशा करे राष्ट्र? आखिर मामला जहाँ से प्रारंभ हुआ, वापिस वंही पहुँच गया सा लगता है, राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में l

इस स्थिति को ठीक करने का एक ही मार्ग है l टीम-भावना को स्थापित कर सकें ऐसे चुनिंदा कार्यकर्ताओं को निर्णायक भूमिका निभानी होगी l राष्ट्र में राजनैतिक संगठन के शुद्धिकरण का बिगुल बजाना होगा l स्थिर राजनैतिक व्यवस्था के लिए राजनैतिक संगठन अपरिहार्य है l किसी भी संगठन के खड़े होने में कितनों ही व्यक्तियों का त्याग जुड़ा होता है, कितने ही वर्ष लग जाते हैं l l राष्ट्र में कितनी पार्टियाँ हों ये विषय नहीं है, बल्कि संगठन कैसे नेताओं के हाँथ में हो यह देखना जरुरी है l ऐसे राजनेता जो राष्ट्र की सेवा करना चाहते हैं या कि जो सत्ता का दुरूपयोग अपने व्यक्तिगत लाभ के लिएl नेतृत्व की नियत और काबिलियत के लड़खड़ाने से ही पार्टी व देश के लिए मुश्किलें आती हैं l कोई भी संगठन अपने तात्कालिक नेताओं की बपौती नहीं l

स्वतंत्रता के उपरांत, जिस उद्देश्य से राममनोहर लोहिया, श्यामाप्रसाद मुख़र्जी व राजाजी जैसे देशभक्तों ने शुरुआत की थी नयी राजनीति की, या कि राष्ट्रीयता से ओतप्रोत आरएसएस ने १९५१ में जनसंघ (बीजेपी की पितृ इकाई) के निर्माण में सहयोग किया था देवदूत दीनदयाल उपाध्याय सरीखे व्यक्तित्व की भेंट राजनीति को देकर, वैसा ही समय फिर से आ गया है l वरना कौन करेगा इन तीन गहरे घावों से राष्ट्र को मुक्त l कैसे बनेगी न्याय-संगत अर्थ-व्यवस्था जहाँ हर गाँव व हर व्यक्ति पा सकेगा उन्नति के समुचित अवसर, सिर्फ जिन्दा रहने की भीख नहीं l यदि अब भी राष्ट्र की राजनीति को अपने हाल पर छोड़ दिया गया तो राष्ट्र-मानस की जो परिवर्तन की यात्रा अन्ना-आन्दोलन से शुरू होकर नरेंद्र मोदी तक पहुँची, उसके अंधे कुएं में खो जाने का डर है l और इसका खामियाजा समस्त राष्ट्र को भुगतना पड़ेगा l

 

 

1 COMMENT

  1. लेख कुछ ज्यादा लम्बा और विचारों के दोहराव के कारण थोडा बोझिल हो गया है . इन्ही सब बातों को संक्षेप में और इसीलिए रोचक ढंग से भी कहा जा सकता था … अभी हमको इन विचारों की दिशा में और भी चिन्तन करना होगा ….!!

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