अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन को लेकर उठा विवाद

arunachal pradeshडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया है । साठ सदस्यीय विधान सभा में सोनिया कांग्रेस के 42 सदस्य थे । भारतीय जनता पार्टी के 11 सदस्य , दो निर्दलीय और पाँच पीपुल्ज पार्टी आफ अरुणाचल के हैं । मुख्यमंत्री दोर्जी खांडू की हैलीकाप्टर दुर्घटना में हुई रहस्यमय मौत के बाद सोनिया कांग्रेस के सदस्यों ने जारबोम गामलिन को विधायक दल का नेता चुना था और वे मई 2011 को मुख्यमंत्री बने थे । लेकिन पार्टी के भीतर ही कुछ सदस्यों को वे अपने हितों के अनुकूल नहीं लगे और सोनिया कांग्रेस द्वारा अपने ही मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ बाक़ायदा आन्दोलन छेड़ दिया गया । यह भारतीय राजनैतिक इतिहास की अनोखी घटना थी कि पार्टी अपने ही मुख्यमंत्री को हटाने के लिए गलियों बाज़ारों में मुर्दाबाद मुर्दाबाद करती हुई घूम रही थी । यदि सोनिया गान्धी चाहतीं तो गामलिन को पद त्यागने का स्पष्ट आदेश दे सकतीं थीं । लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया । इससे यह बात जगज़ाहिर हो जाती कि सोनिया गान्धी के अरुणाचल प्रदेश में राजनैतिक हितों के अतिरिक्त कुछ दूसरे हित भी हैं । इसलिए गामलिन को हटाने के लिए आन्दोलन का रास्ता चुना गया , जिसमें करोड़ों रुपयों की सार्वजनिक सम्पत्ति को स्वाहा किया गया । अक्तूबर 2011 में गामलिन को इस्तीफ़ा देना पड़ा और जिस प्रकार का भय का वातावरण अरुणाचल में बना दिया गया था , उसमें विधायक दल ने नेता के लिए चुनाव हों यह संभव ही नहीं था । कांग्रेस के भीतर ही भय का वातावरण बन गया था । प्रदेश का मुख्यमंत्री मनोनीत करने का अधिकार सोनिया गान्धी को ही दे दिया गया । सोनिया गान्धी ने नवम टुकी को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया । नवम टुकी का प्रशासन चलाने का तौर तरीक़ा तानाशाही भरा ही रहा ।

2012 में हुए विधानसभा चुनावों में सोनिया कांग्रेस को 42 स्थान प्राप्त हुए थे । नवम टुकी ने अपना वर्चस्व , सोनिया गान्धी की सहायता से पूरी तरह पार्टी पर कर लिया था । अरुणाचल प्रदेश में यह एक प्रकार से नवम टुकी कांग्रेस ही बन कर रह गई थी । लेकिन आश्चर्य की बात है कि चर्च इस पूरे घटनाक्रम में चट्टान की तरह टुकी के साथ खड़ा दिखाई देता है । इसीलिए इटानगर में यह आम प्रश्न पूछा जा रहा है कि चर्च का प्रदेश के सचिवालय से क्या सम्बंध है । क्या कारण है कि चर्च गिर्जाघर में रूचि न लेकर इटानगर के सचिवालय में रुचि ले रहा है । ध्यान रहे प्रदेश में लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहे गेगांग अपांग को भी पद से हटाने के लिए एक बार चर्च ने रूचि ही नहीं दिखाई थी बल्कि कहा जाता है पैसा भी ख़र्च किया था । लेकिन इस प्रकार की तानाशाही का विरोध एक न एक दिन प्रकट होता ही है । लगता है अरुणाचल में उसी का प्रदर्शन हो रहा है । दरअसल नवम टुकी का प्रदेश में जनाधार घटता ही रहा लेकिन सोनिया गान्धी का संरक्षण उनके प्रति बढ़ता ही जा रहा है । अरुणाचल प्रदेश की छत्तीस जनजातियों में अरसे से जो सौहार्दपूर्ण दिखाई दे रहा है , टुकी के शासन काल में उससे दरारें पड़नी शुरु हो गईं थीं । यह सदा विवाद का प्रश्न ही रहेगा कि ये दरारें उनकी लचर शासन व्यवस्था के कारण हैं या फिर किसी लम्बी सोची समझी रणनीति के तहत यह प्रयोग किया जा रहा था । चीन समर्थक शुगदेन सम्प्रदाय भी वहाँ पिछले कुछ समय से अपनी गतिविधियाँ तेज़ करने में लगा हुआ है । प्रदेश के , नागालैंड से लगते दो ज़िले तिराप और चांगलांग पहले से ही उग्रवादी गतिविधियों का शिकार रहे हैं , लेकिन टुकी के कार्यकाल में उनमें भी तेज़ी आई है । टुकी के ख़िलाफ़ यदि कोई समाचार पत्र कुछ लिखता छापता है तो उसको सबक़ सिखाने की स्वायत्त व्यवस्था प्रदेश में मज़बूत की गई है । सबसे ताजुब्ब तो इस बात का है कि टुकी की अपनी जनजाति निशी समुदाय का युवा वर्ग भी उनके ख़िलाफ़ होता जा रहा है । क्योंकि अपनी जनजाति के भीतर भी टुकी किसी प्रकार का लोकतांत्रिक विरोध सहन नहीं कर पाते । यही कारण था कि सोनिया कांग्रेस विधायक दल के भीतर ही टुकी का विरोध इतना बढ़ा कि वे अल्पमत में आ गये । नवम टुकी की फ़ौज के 42 विधायकों में से 21 उनके रवैये से निराश होकर उनके ख़िलाफ़ खड़े हो गए हैं । इससे टुकी की सरकार स्पष्ट ही अल्पमत में आ गई थी । ऐसा भी कहा जा रहा है कि शेष बचे २१ विधायकों में से भी ९ उनके ख़िलाफ़ हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा नहीं कर रहे हैं ।
सोनिया कांग्रेस के पास इसका समाधान था । नवम टुकी को हटा कर किसी अन्य विधायक को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी जा सकती थी । उससे विधायक दल के भीतर का विरोध शान्त हो जाता और सोनिया कांग्रेस की सरकार शेष काल में भी मज़े से चल सकती थी । ऐसा नहीं कि कांग्रेस ने पहले ऐसा किया न हो । अनेक राज्यों में जब मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ विधायक दल ने बग़ावत की और हाई कमांड ने मुख्यमंत्री बदल दिया । कांग्रेस के असंतुष्टों विधायक तो अभी भी कह रहे हैं कि वे कांग्रेस में ही हैं , उनका विरोध केवल नवम टुकी हैं । यदि नवम टुकी को हटा कर सोनिया गान्धी विधायक दल को अपना नेता चुनने का अधिकार दे देती हैं तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी रह सकती थी । लेकिन मुख्य प्रश्न फिर वहाँ का वहाँ है । आख़िर सोनिया गान्धी प्रदेश में से सरकार गँवा लेने के ख़तरे के बावजूद नवम टुकी को ही मुख्यमंत्री बनाए रखने के लिए क्यों बजिद हैं ? कहीं यह चर्च की साज़िश तो नहीं जो टुकी के कार्यकाल में अतिरिक्त सक्रिय हो गया है ।
टुकी को भी अपने प्रति अविश्वास को देखते त्यागपत्र देना चाहिए था लेकिन टुकी ने त्यागपत्र देने की बजाए विधानसभा अध्यक्ष से कह कर चौदह विधायकों की विधानसभा सदस्यता ही निरस्त करवा दी । इससे नवम टुकी के साथ विधान सभा अध्यक्ष भी विवादों के घेरे में आ गए । इसके बाद दोनों ग्रुपों ने अपनी अपनी बैठकें बुलाने शुरु कर दीं । राज्य का प्रशासन लगभग ठप्प ही हो गया । ऐसी हालत में राज्यपाल ने विधान सभा का सत्र बुला लिया ताकि विधान सभा में फ़ैसला हो जाए कि कौन कितने पानी में है । लोकतंत्र में बहुमत का फ़ैसला करने के लिए विधानसभा से बेहतर स्थान और कोई हो ही नहीं सकता । लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने विधान सभा भवन को ताला लगा दिया । लेकिन दोनों ग्रुप विधान सभा के बाहर ही अपनी अपनी मीटिंगें करने लगे । एक ग्रुप ने विधान सभा अध्यक्ष को पद मुक्त करने का प्रस्ताव पारित किया तो दूसरे ग्रुप ने मुख्यमंत्री को हटा कर विधान सभा उपाध्यक्ष को नया मुख्यमंत्री चुन लिया । लेकिन सही समय पर गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने इन सारे प्रस्तावों पर रोक लगा दी । स्पीकर द्वारा चौदह सदस्यों की विधान सभा सदस्यता समाप्त किए जाने के आदेश को भी रोक दिया । मुक़द्दमा पूरी तरह उच्च न्यायालय में चलने लगा । लेकिन मुक़द्दमा पता नहीं कितने समय चलता तब तक प्रदेश में वे शक्तियाँ सिर उठा लेतीं जिन्हें टुकी अपने समय में संरक्षण देते रहे ।
इस सारे घटनाक्रम का सबसे बुरा असर राज्य प्रशासन और उसके बाद आम जनजीवन पर पड़ा । सरकार नाम की कोई चीज़ रह ही नहीं गई थी । सार्वजनिक जीवन में गुंडागर्दी बढ़ने लगी थी । फ़िलहाल विधान सभा के भीतर कब फ़ैसला होगा , यह अनिश्चित होता जा रहा था । ऐसी स्थिति में राज्यपाल के पास राष्ट्रपति राज लागू करने की सिफ़ारिश करने के सिवाय भला और कौन सा विकल्प बचता था ? कपिल सिब्बल इसको लेकर बहुत ग़ुस्से में हैं । उनको इसमें लोकतंत्र की हत्या दिखाई देने लगी है । उम्र के हिसाब से दृष्टि दोष भी बढ़ता ही होगा । लेकिन अरसा पहले बिहार में बूटा सिंह द्वारा राष्ट्रपति राज लागू करने की सिफ़ारिश के बाद जब मामला उच्चतम न्यायालय में चला गया था तो यू पी ए ने उस समय के विधि मंत्री हंस राज भारद्वाज को क्जो ज़िम्मेदारी सौंपी थी , उससे तो कपिल सिब्बल परिचित ही होंगे । वैसे न भी परिचित हों तो हंस राज भारद्वाज ने स्वयं ही टैलीविजन पर उस ज़िम्मेदारी का ख़ुलासा सार्वजनिक रुप से कर दिया है । अब तो कम से कम कपिल सिब्बल जैसों को लोकतंत्र , न्याय और संविधान से ताल्लुक़ रखने वाले विषयों पर बोलना बंद कर देना चाहिए , क्योंकि हंस राज के खुलासे के बाद वे यह अधिकार खो चुके हैं । मामला उच्चतम न्यायालय में है , कपिल सिब्बल कम से कम उसके निर्णय तक तो प्रतीक्षा कर ही सकते थे । नवम टुकी और पर्दे के पीछे से उसका समर्थन कर रही ज्ञात अज्ञात शक्तियों के क़हर से अरुणाचल प्रदेश की आम जनता को बचाने का इससे अतिरिक्त और कौन सा रास्ता हो सकता था ? अरुणाचल प्रदेश तिब्बत की सीमा से लगता अति संवेदनशील राज्य है । सोनिया कांग्रेस को इस राज्य को तो दल के भीतर की दलीय राजनीति के खेल से मुक्त रखना चाहिए था ।

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