अस्मिता

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अप्रिय सदा अभिमान मुझे,पर
प्राणों से भी प्रिय स्वाभिमान।
मुझे मिले सम्मान नहीं,पर
रक्षित रहे आत्मसम्मान ।।
*
मिथ्या-गौरव नहीं चाहिये,
मुझे हो जीने का अधिकार ।
चाहे मुझे मिले न आदर,
क्यों दे कोई तिरस्कार।।
*
चाहे सुयश कभी न पाऊँ,
अपयश रहे सदा ही दूर।
नहीं प्रशंसा की इच्छा,पर
निन्दा मन को करे न चूर।।
*
निज कुटिया ही प्यारी मुझको,
भव्य भवन की चाह नहीं।
मुझको प्रिय स्वदेश ही अपना,
पर विदेश का स्वर्ग नहीं।।
*
सन्तति की ममता ही मुझको
खींच यहाँ ले आई है।
स्वस्थ सुखी ये रहें सदा,
बस यही मुझे सुखदायी है।।
*
मर्यादा में रहें सदा ही,
सादा जीवन उच्च विचार।
मातृभूमि को कभी न भूलें,
चाहें विश्व बने परिवार।।
** ** ** **
– शकुन्तला बहादुर

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शकुन्तला बहादुर
भारत में उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में जन्मी शकुन्तला बहादुर लखनऊ विश्वविद्यालय तथा उसके महिला परास्नातक महाविद्यालय में ३७वर्षों तक संस्कृतप्रवक्ता,विभागाध्यक्षा रहकर प्राचार्या पद से अवकाशप्राप्त । इसी बीच जर्मनी के ट्यूबिंगेन विश्वविद्यालय में जर्मन एकेडेमिक एक्सचेंज सर्विस की फ़ेलोशिप पर जर्मनी में दो वर्षों तक शोधकार्य एवं वहीं हिन्दी,संस्कृत का शिक्षण भी। यूरोप एवं अमेरिका की साहित्यिक गोष्ठियों में प्रतिभागिता । अभी तक दो काव्य कृतियाँ, तीन गद्य की( ललित निबन्ध, संस्मरण)पुस्तकें प्रकाशित। भारत एवं अमेरिका की विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ एवं लेख प्रकाशित । दोनों देशों की प्रमुख हिन्दी एवं संस्कृत की संस्थाओं से सम्बद्ध । सम्प्रति विगत १८ वर्षों से कैलिफ़ोर्निया में निवास ।

6 COMMENTS

  1. बहुत सुन्दर और शार्थक गीत है आदरणीय शकुन्तला जी का! कुछ पंक्तियाँ मन में रह जाने वालीं:
    मिथ्या गौरव नहीं चाहिए, मुझे हो जीने का अधिकार
    नहीं प्रशंसा की इच्छा पर, निंदा मन को करे न चूर
    वाह!

  2. कविता पढ़कर सुखद अनुभूति हुई दीदी स्वदेश ही अपना स्वर्ग है …अप्रतिम अभिव्यक्ति

  3. “मुझे प्रिय स्वदेश ही अपना,
    पर विदेश का स्वर्ग नहीं.”
    कवयित्री सुश्री शकुंतला बहादुर की इन पंक्तियों पर कितने लोग खरे उतरेंगे?

  4. सुन्दर – इसे पढ़ते समय याद आयी – एक भारतीय आत्मा की –
    ‘मुझे तोड़ लेना बनमाली…….. मात भूमि को शीश झुकाने जिस पथ जाते वीर अनेक ………

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