सुनीता मिश्रा
हैदराबाद और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में छात्रों के हंगामेे के बाद देश की राजनीति में, जो उबाल देखने को मिला है, उसकी शायद ही किसी ने उम्मीद भी की होगी। जिस तरह से शिक्षा परिसरों से निकली चिंगारी की लपटें पूरे देश को अपनी जद में ले रही हैं, वह चिंता का विषय है। हैदराबाद, जेनयू का विवाद अब जम्मू—कश्मीर तक पहुंच गया है। श्रीनगर की ऐतिहासिक जामा मस्जिद के पास कई युवकों ने ‘थैंक्यू जेनयू’ मेसेज लिखे पोस्टर लेकर मार्च निकाला। इसके बाद उन्होेंने आजादी के समर्थन में नारे लगाते हुए सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी भी की।
युवकों के हाथ में अफजल गुरु, पाक झंड़े और आईएस समर्थन वाले पोस्टर भी देखे गए थे। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी का जिस तरह से नाजायज फायदा उठाया जा रहा है, वह बेहद शर्मनाक है। सरकार को भी इन आंदोलनकारियों की बातें सुन कर कड़ा रुख इख्तियार करना होगा, नहीं तो इस आग की लपटें धीरे—धीरे पूरे देश में तबाही मचा देंगी। समय रहते इनकी फैलती जड़ों को काट देने में ही भलाई है। दोनों ही यूनिवर्सिटी में हुए आंदोलन मेें एक बात समान रही। आतंकवादियों की फांसी का विरोध। फिर चाहे वह याकूब मेनन की हो या फिर अफजल गुरु की। शिक्षा परिसर में विचारधाराओं का अलग—अलग होना स्वाभाविक है, लेकिन देशहित में पाक और आतंकियों का समर्थन अनुचित है। भिन्न—भिन्न विचारधाराएं लोकतंत्र मेें होना कोई नई बात नहीं है। यह पहले भी होती रही हैं,परंतु इससे पूरे देश को हिला कर रख देना गैरकानूनी ही नहीं, बल्कि बेहद शर्मनाक बात है। जेनयू के छात्रों का इतिहास सदैव से ही आंदोलनकारी रहा है, जो सभी को अखरता रहा है। उनकी भाषा को वामपंथ से जोड़कर देखा जाता है। लोकतंत्र में सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है, लेकिन अपने देश के संविधान पर उंगली उठाना, उसे जलिल करना और न्यायिक प्रक्रिया को चुनौती देना कोई काबिलेतारीफ काम नहीं है। यदि यह सब किसी और देश में होते, तो शायद इसके बुरे परिणाम हो सकते थे और इसके साथ ही इसे कब का सुलझा लिया गया होता। आखिर क्या कारण है कि हम आंदोलनकारियों की बात न सुन कर उनके खिलाफ स्वयं आंदोलनरत हो गए हैं। खैर, अति तो तब हो गई जब पटियाला हाउस कोर्ट में देशद्रोह के आरोप में गिरफतार जेनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की पेशी के दौरान छ़ात्रों—टीचरों के अलावा कई पत्रकारों को पीटने की घटने को अंजाम दिया गया। न्यायिक परिसर में ऐसा कृत्य कितना अशोभनीय है। सत्ता के गलियारों में जिस तरह से तीखे बाणों की बौछार की जा रही और लगातार मामले को तूल देकर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं,वह भी देशद्रोह की श्रेणी के अन्तर्गत ही आना चाहिए। जेनयू परिसर में पाकिस्तान के पक्ष में नारेबाजी की गई, आतंकियों का समर्थन किया गया, उसकी जितनी भत्सर्ना की जाए उतनी कम है, लेकिन एबीवीपी का इस तरह से सड़कों पर उतरना, कोर्ट में स्वयं न्याय के रखवाले वकीलों का हंगामा करना और बीजेपी विधायकों का सबके सामने उपद्रवी चेहरा उजागर करना भी निंदनीय है। जब शिक्षा परिसरों में पढ़ाई से ज्यादा राजनीति को महत्व दिया जाने लगे, तो इससे बुरा और कुछ नहीं हो सकता है। कहीं न कहीं इस हंगामें को उन तथाकथित लागों ने भी बढ़ावा दिया है, जो चाहते हैं कि बजट स़त्र तक यह आग सुलगती रही। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद मारपीट की घटना को अंजाम देना कहीं न कहीं शीर्ष न्यायालय की भी तौहीन है, जिसकी उसने स्वयं निंदा की है। पुलिस कमीश्नर बी एस बस्सी ने इस घटना पर कहा कि मुझे नहीं लगता कि कन्हैया को पीटा गया है। केवल धक्का—मुक्की ही हुई है। हालात बेकाबू नहीं थे। हम भारी बल का प्रयोग करते तो इसका असर उल्टा हो सकता था। इतना सब कुछ होने के बाद भी हम जहां थे, वहीं पर हैं। कुछ नहीं बदला है। कई सवालों के जवाब आज भी नहीं मिले। कन्हैया को जेल में भेज देना, उपद्रव मचाना आंदोलनकारियों के साथ आंदोलनकारी रुख इख्तियार करना क्या इनसे समस्या का हल निकल गय़ा? कन्हैया को इतनी कवरेज आखिर क्यों मिल रही है? कई मीडिया घराने इनके पक्ष में अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। दरअसल, कन्हैया कुमार ने अपनी जान को खतरा बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में जमानत याचिका दाखिल की थी, जहां से उसे कोई भी राहत नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट ने कन्हैया मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि सीधे यहां आकर आप खतरनाक मिसाल पेश कर रहे हैं। यदि यह कोर्ट इस पर विचार करेगा, तो देश मेें सभी आरोपियों के लिए यह एक नजीर बन जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने जमानत अर्जी दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल करने को कहा है, जिस पर अगले हफते सुनवाई हो सकती है। इस मामले पर प्रत्येक पार्टी जोश—खरोश के साथ राजनीति करने में जुट गई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो यहां तक कह दिया कि बीजेपी और आरएसएस का विरोध करना सबसे बड़ा गुनाह है। वह शायद यह भूल गए हैं कि यह पूरे देश का विरोध है। लेकिन कोई कुछ कहना चाहता है, तो उसकी आवाज सुनी जानी चाहिए फिर चाहे वह जेनयू की आवाज हो या फिर किसी और की। देश भी उन्हें सुनना चाहता है। गौरतलब है कि जेनयू में लेफट संगठनों का दबदबा होने की शिकायत राइट विंग के लोग करते रहे हैं। वहां जो हुआ उसका समर्थन तो कोई भी नहीं करेगा। देश विरोधी नारे लगाना बहूत ही गलत है, फिर चाहे वह वहां जेनयू के छात्रों ने लगाए हो या फिर किसी और ने। देशद्रोह के कानून की समीक्षा भी होनी चाहिए।
वामपंथियो तथा अलगाववादियो, अतिवादीयो, आतंकवादीयो के बीच कार्यगत एकता कल भी थी, और आज भी है। फर्क सिर्फ इतना है की कल तक यह कार्यगत एकता पर्दे के पीछे थी, लेकिन आज यह जग जाहिर है। वामपंथी इस देश से साफ़ हो जाएगे।