उच्च शिक्षा में स्वायत्तता एवं एकरूपता 

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m phill अभी हाल ही में तेलंगाना सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर कुलपति की नियुक्ति के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा निर्धारित योग्यताओं में परिवर्तन किया है। विश्वविद्यालय प्रणाली में प्रोफेसर अथवा ख्याति प्राप्त शोध/अकादमिक प्रशासनिक संगठन में समतुल्य पद पर 10 वर्ष केअनुभव के स्थान पर तेलंगाना सरकार ने यह 5 वर्ष कर दिया है। शिक्षा के समवर्ती सूची में होने के कारण केन्द्र के साथ-साथ राज्यों को भी शिक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार है, इसलिये केवल तेलंगाना ही नहीं बल्कि देश के कई अन्य हिस्सों में भी उच्च शिक्षा में इसी तरह की विविधता देखनेको मिल जायेगी। इसी विविधता के कारण ही कुलपति की नियुक्तियों में यूजीसी के नियमों की अनदेखी को लेकर बहुत से प्रकरण न्यायालयों में विचाराधीन हैं। एक जनहित याचिका के जबाव में तमिलनाडु सरकार ने मद्रास उच्च न्यायालय को यह जानकारी दी है कि कुलपति की नियुक्ति में प्रदेश के 22विश्वविद्यालयों में से सिर्फ तीन विश्वविद्यालयों में यूजीसी के नियमों का पालन किया गया है। 22 फरवरी 2016 को मद्रास उच्च न्यायलय में यूजीसी की ओर से एडीशनल सॉलिसिटर जनरल जी. राजगोपालन ने यूजीसी द्वारा कार्रवाही करने की बात कही है।

यूजीसी का प्रमुख कार्य अनुदान के अलावा उच्च शिक्षा में एकसूत्रता, एकरूपता, स्वायत्तता एवं गुणवत्ता बहाल करना है। लेकिन राज्यों द्वारा अपनी सुविधानुसार निर्णय लेने के कारण उच्च शिक्षा में एकरूपता स्थापित नहीं हो पा रही है। यूजीसी द्वारा कुलपतियों को भेजे गये पत्र के अनुसार केवल रेगुलरफैकल्टी ही एम.फिल/पी-एच.डी में मार्गदर्शक बन सकती है, जिसके परिणामस्वरूप मुरैना, मध्यप्रदेश में 65, धौलपुर, राजस्थान में 60 तथा आगरा, उत्तरप्रदेश में 62 वर्ष तक शिक्षक एम.फिल./ पी-एच.डी में मार्गदर्शक बन सकते हैं, क्योंकि शिक्षकों की सेवानिवृत्ति आयु मध्यप्रदेश में 65, राजस्थान में 60तथा उत्तरप्रदेश में 62 वर्ष है। 100 कि.मी. से कम दूरी में उच्च शिक्षा में इस तरह की विषमता शायद ही कहीं ओर देखने को मिले। शिक्षकों की सेवानिवृत्ति आयु की तरह ही कुलपति के कार्यकाल में भी एकरूपता नहीं है। कुलपति का कार्यकाल मध्यप्रदेश में 4, उत्तरप्रदेश एवं राजस्थान में 3 तथा केन्द्रीयविश्वविद्यालयों में 5 वर्ष है।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उच्च शिक्षा को प्राइमरी शिक्षा की तरह संचालित करने के परिणाम कभी भी सकारात्मक नहीं होंगे। लेकिन स्वायत्तता एवं एकरूपता में संतुलन स्थापित करना उच्च शिक्षा के लिये सबसे बड़ी चुनौती है। देश में विश्वविद्यालयों का जो ढाॅचा हैं उसमें केन्द्रीय विश्वविद्यालय, समविश्वविद्यालय (डीम्ड विश्वविद्यालय), निजी विश्वविद्यालय एवं राज्य विश्वविद्यालय कार्य कर रहे हैं। केन्द्रीय, डीम्ड एवं निजी विश्वविद्यालयों का स्वरूप लगभग एक सा ही है। क्योंकि इनके ऊपर राज्य विश्वविद्यालयों की तरह सम्बद्वता का भार नहीं रहता है। इन विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को सिर्फशिक्षण एवं शोध कार्य ही करना होता है। जबकि यूजीसी द्वारा शिक्षकों की नियुक्तियों एवं प्रमोशन के लिये जो अर्हतायें रखी गई हैं वे सभी विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिये एक सी हैं। अर्थात् राज्य विश्ववि़द्यालय के शिक्षकों को भी अनुसंधान एवं प्रकाशन श्रेणी में एसोसिएट प्रोफेसर के लिये 300 ए.पी.आई (अकादमिक कार्य निष्पादन सूचकांक) तथा प्रोफेसर के लिये 400 ए.पी.आई आवश्यक है। देश में ऐसे बहुत से विश्वविद्यालय हैं जिनसे 300 से लेकर 400 एवं कहीं-कहीं इससे भी अधिक महाविद्यालय सम्बद्व हैं। महाराष्ट्र के राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय से 667 महाविद्यालयसम्बद्व हैं। इन राज्य विश्वविद्यालयों को सम्बद्व महाविद्यालयों के निरीक्षण, नियुक्तियां, उड़नदस्ता, परीक्षा एवं परीक्षा परिणाम सहित लगभग सही दायित्वों का निर्वहन करना होता है। सम्बद्वता के इस अतिरिक्त कार्य का सबसे अधिक खामियाजा इन विश्वविद्यालयों के शिक्षण विभागों(अध्ययनशालाओं) को भुगतना पड़ रहा है। क्योंकि सम्बद्वता से संबंधित कार्यों के कारण यह विश्वविद्यालय अपने शिक्षण एवं शोध में वह गुणवत्ता नहीं रख पा रहे हैं, जिनके लिये इनकी स्थापना की गई है।
केन्द्रीय विश्वविद्यालयों एवं केन्द्रीय संस्थानों की तुलना में राज्य विश्वविद्यालयों को बहुत कम अनुदान मिलता है। अनुदान कम मिलने के कारण पैसा कमाने के चक्कर में राज्य विश्वविद्यालय कई तरह के स्ववित्तीय पाठ्यक्रम प्रारंभ करते जा रहे हैं। चूंकि वर्षों से इन स्ववित्तीय पाठ्यक्रमों में स्थायीशिक्षकों की नियुक्तियां नहीं हुई  हैं, इसलिए सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है कि बिना स्थायी शिक्षकों के यह विश्वविद्यालय इन पाठ्यक्रमों में कितनी गुणवत्ता रख पा रहे होंगे। यूजीसी के वाइस चेयरमेन प्रो0 एच0 देवराज के अनुसार 96 प्रतिशत अनुदान केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को मिलता है, तथा 4प्रतिशत राज्य विश्वविद्यालयों को। जबकि 96 प्रतिशत छात्र राज्य विश्वविद्यालयों में एवं 4 प्रतिशत छात्र केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अध्ययन कर रहे हैं। अनुदान के इस अन्तर को किसी भी रूप में जायज एवं न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता है।
शिक्षकों को सिर्फ शिक्षण एवं शोध से संबंधित जिम्मेदारियां देने पर ही उच्च शिक्षा में गुणवत्ता बहाल की जा सकती है। यदि राज्य विश्वविद्यालयों के शोध एवं शिक्षण में गुणवत्ता बहाल करनी है तो इन विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को भी केन्द्रीय, डीम्ड एवं निजी विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की तरह हीवातवरण उपलब्ध कराना होगा। इसके साथ ही शिक्षकों की चयन प्रक्रिया में भी आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। शिक्षकों के चयन में अकादमिक आधार (डिग्री) के साथ-साथ अन्य मानवीय पहलुओं पर भी ध्यान देना आवश्यक है। ऐसे लोगों को शिक्षक नहीं होना चाहिए जिनके लिये शिक्षा एवं ज्ञान सिर्फरोजगार प्राप्त करने का साधन मात्र है। हमें ऐसी व्यवस्था लागू करने का प्रयास करना होगा, जिससे देश में उपलब्ध विशेष योग्यता एवं प्रतिभा-संपन्न युवा शिक्षक बनने को अपनी पहली वरीयता देने लगें।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा ‘नई शिक्षा नीति‘ तैयार करने में ‘उच्च शिक्षा में गुणवत्ता‘ एवं  ‘सम्बद्व करने की प्रणाली में सुधार‘ पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इससे स्पष्ट है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय उच्च शिक्षा एवं राज्य विश्वविद्यालयों की मूल समस्याओं से पूरी तरह वाकिफ है।‘नई शिक्षा नीति‘ तैयार करते समय अभी हाल ही में प्रसारित टी0वी0 कार्यक्रम ‘रामराज्य‘ तथा ‘तारे जमीं पर‘ एवं ‘थ्री इडियट्स‘ जैसी फिल्मों को भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता बहाली के प्रयास तभी सार्थक होंगे जब स्वायत्तता एवं एकरूपता में पर्याप्त संतुलन रखते हुए निर्णय लियेजायें। राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष में दो बार आयोजित होने वाली यूजीसी-नेट की परीक्षा को एम.फिल/पी-एच.डी. में प्रवेश, स्काॅलरशिप एवं छात्रों को मिलने वाली अन्य सुविधाओं के लिये भी आधार बनाया जा सकता है। उच्च शिक्षा में एकरूपता एवं गुणवत्ता की दिशा में यह प्रयास एक क्रांतिकारी कदम साबित होसकता है। सिर्फ कुछ केन्द्रीय विश्वविद्यालय एवं संस्थान देश में उच्च शिक्षा की स्थिति का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। उच्च शिक्षा की रीढ़ कहे जाने वाले राज्य विश्वविद्यालयों की स्थिति के आधार पर ही उच्च शिक्षा की स्थिति का आकलन किया जाना चाहिए।

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  1. पिछले 60 वर्षो से भारत की शिक्षा प्रणाली पर वामपंथियो का कब्जा है। वामपंथियो एवं कांग्रेस के बीच भद्र सहमति के तहत यह हो रहा था। उन्होंने मगरमच्छ की भाँती पुरे शैक्षिक संस्थाओ को जकड़ रखा है। सरकार शिक्षा पर इतना खर्च करती है लेकिन विश्व मापदण्ड और मानक पर हम कही नही ठहरते। क्योंकी वामपंथी शिक्षा मठाधीशो का उद्देश्य अच्छी शिक्षा देना नही बल्कि अराजक और देशविरोधी कैडर तैयार करना है। विकास का विरोध करना एवं भाषिक,धार्मिक, क्षेत्रीय द्वन्द फैलाना भी उनके एजेंडे पर रहता है। अगर यह स्थिति रही तो मानव सूचकांक में हम अपेक्षित प्रगति नही कर पाएंगे, नागरिको में देश प्रेम का भाव भी नही भर पाएंगे। शिक्षा प्रणाली को मगरमच्छ रुपी मठाधीशो से मुक्त कराने के लिए कदम उठाने होंगे। मठाधिस शिक्षक संगठन एवं उनके पोषित छात्र संगठन विरोध करेंगे लेकिन उसकी परवाह नही करनी होगी।

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