घरेलू मांग को बढ़ावा दे बजट

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budgetप्रमोद भार्गव

अर्थव्यवस्था में चहुंओर गति दिखाई दे,इसके लिए घरेलू मांग को बढ़ावा देने की जरूरत हैं। इस मकसदपूर्ति के लिए मध्यम और निम्न आय वर्ग के लोगों की आय बढ़ाने के उपाय करने होंगे। इस हेतु बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी परियोजनाओं और कृषि आधारित विकास को महत्व देना होगा। बजट के जन हितकारी एवं सर्व समावेशी होने की उम्मीद इसलिए भी है,क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक के बेलगाम में शनिवार को आयोजित सभा में गांव  और गरीब के प्रति अपनी सरकार की प्रतिबद्धता जताते हुए कहा है, ‘गांवों और गरीबों का जीवन बदलने की जरूरत है।‘ यह इसलिए भी जरूरी है,क्योंकि जीडीपी दर में सबसे ज्यादा भागीदारी कृषि की है और कृषि ही सबसे अधिक लोगों को रोजगार देने के साथ आजीविका का बढ़ा माध्यम है। इस लिहाज से इस आम बजट में आम आदमी के हित सरंक्षण के लिए एक तो खेती को लाभ का धंधा बनाए जाने के उपायों के संकेत स्पष्ट तौर से दिखाई दें। दूसरे,मनरेगा और खाद्य सुरक्षा गारंटी जैसी योजनाओं में सब्सिडी की कटौती न हो ? अन्यथा ये उपाय एक बढ़े वर्ग की आबादी की आजीविका को संकट में डालने वाले साबित होंगे।

हालांकि इस बजट को पेश करते हुए सरकार को अर्थव्यवस्था में संतुलन बिठाने की दृष्टि से तीन बड़ी चुनौतियों से सामना करना है। इन फौरी चुनौतियों में सैनिकों को दी गई वन रैंक,वन पेन्सन की सुविधा और सातवां वेतन आयोग की सिफ़ारिशों को अमल में लाना है। तीसरी बड़ी चुनौती उन सरकारी बैंकों का ऋण है,जो डूबंत खातें में आ गया हैं। उद्योग जगत को लुटा गई दी इस गैर निष्पादित संपत्ति का आंकड़ा 2.16 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 3.14 लाख करोड़ के ऊपर पहुंच गया है। यह राशि यदि वाकई डूब जाती है तो सरकारी क्षेत्र के बैंक युवा उद्यमियों को कर्ज नहीं दे पाएंगे, नतीजतन प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी योजना स्टार्टअप ठप हो जाएगी। नए रोजगार सृजन पर भी विराम लग जाएगा। इसलिए इस धन-राशि को वसूले जाने के उपाय जरूरी हैं। वैसे भी यह राशि ऐसे उद्योगपतियों के पास है,जिन्होंने सहायक कंपनियां बनाकर राशि को हड़पने का षड्यंत्रकारी काम किया है। बावजूद न तो इनकी प्रतिष्ठा में कमी आई है और न ही ये आर्थिक रूप से लाचार होकर किसानों की तरह आत्महत्या करने को विवश हुए हैं। नाम उजागार हुए उद्योगपतियों में से दो विजय माल्या और एस कुमार आज भी अपनी निजी यात्राएं चार्टर प्लेन से कर रहे हैं। बैंकिंग सेक्टर की मजबूती के लिए ऐसे कर्जदारों पर धन-वसूली के लिए लगाम लगाना जरूरी है।

पिछले दो साल से अतिवृष्टि व अनावृष्टि के चलते खेती लगभग चौपट है। यदि अगले साल भी यही स्थिति बनी रहती है तो देश के सामने रोजगार और आजीविका का बढ़ा संकट पैदा हो सकता है। कृषि क्षेत्र में लगा बैंकों का धन भी एनपीए के दायरे में आ सकता है। यदि ऐसा होता है तो बैंकों को आर्थिक दुर्दशा से उबारना मुश्किल होगा ? इसलिए इस क्षेत्र के विकास पर विषेश ध्यान देने की जरूरत के साथ खेती को स्थानीय देशज परंपरागत खेती से जोड़ने की जरूरत है। यदि खेती फिर से परंपरागत खेती-किसानी में बदलती है तो मशीनीकरण से मुक्त होगी,लागत व्यय कम होगा,नतीजतन खेती स्वाभाविक रूप से लाभ का धंधा बनती चली जाएगी। वैसे भी अच्छी खेती और बंपर पैदाबार के चलते ही,जीडीपी दर के स्थिर रहने या बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है ? खेती गति पकड़ेगी तभी भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था से तालमेल बिठाए रख सकता है। लिहाजा कृषि क्षेत्र में भारी पूंजी निवेश की भी जरूरत है। इस पूंजी का उपाय सिंचाई और बिजली की उपलब्धता तथा शीतालय बनाने में होना चाहिए,न कि जीएम बीजों की तकनीक विकसित करने और किसानों को मोटरगाड़ियों में ईंधन की आपूर्ति के लिए जट्रौफा की फसल पैदा करने के लिए ? किसान को राहत के लिए कृषि उपज मंडियों को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की भी जरूरत है।

अर्थव्यवस्था को पश्चिमी या पूंजिवादी दृष्टि से देखने वाले लोग ऐसा मानते हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य और उपयुक्त व पारदर्शी कर ढांचा अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक बेहतरी के लिए जरूरी उपाय हैं। इस नाते जहां शिक्षा और स्वास्थ्य मदों में ज्यादा धन उपलब्ध कराने पर जोर दिया जाता है,वहीं ऐसे उपायों पर भी बल दिया जाता है,जिससे अधिकतम आबादी कर के दायरे में आ जाए। फिलहाल भारत की 5.4 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष कर के दायरे में है। यह आबादी भी कर-मुक्त बनी रहे इस मकसद के लिए लघु बचत योजनाओं में सवधि धन योजनाओं की सुविधाएं दी गई हैं। यदि ये लोग भवन व वाहन के लिए कर्ज लेते हैं,तब भी कर में रियायत के प्रावधान हैं। इन रिययतों का अंततः लाभ आर्थिक रूप से सक्षम तबके को ही मिलता है,इसलिए जरूरी तो यह है कि आयकर बचाने के इन अप्रत्यक्ष उपायों पर कैंची चले और कर भुगतान की इबारत सीधी सरल रेखा में हो।

यही वह तबका है,जो कर सीमा बढ़ाने की बात करता है। हालांकि वर्तमान में आयकर की जो सीमा ढाई लाख है,उसे बढ़ाकर तीन लाख कर दिया जाता है,तो इससे अर्थव्यवस्था में खपत और वृद्धि को बढ़ावा मिलेगा। प्रत्यक्ष कर के दायरे में भले ही 5.4 फीसदी आबादी हो,लेकिन कर वसूलने के जो अप्रत्यक्ष प्रावधान हैं,उनके चलते एक बहुत बड़ी आबादी कर के दायरे में है। बैंकों में जमा सवधि धनराशि योजनाओं के तहत यदि ब्याज की राशि 5 हजार रुपए से ऊपर मिलती है,तो उस पर 10 प्रतिशत टीडीएस काट लिया जाता है। सरकारी दफ्तरों में साम्रगी के भुगतान और निर्माण कार्यों में भी बाला-बाला टीडीएस काटने का प्रावधान है। इन उपायों के चलते ऐसी बढ़ी आबादी कर के दायरे में है,जिसकी वार्शिक आय सुनिष्चित नहीं है। इसलिए यह अवधारणा सरासर गलत है कि कर के दायरे में सिर्फ देश की 5.4 प्रतिशत ही आबादी है। इस लिहाज से भारत की जीडीपी में कर का जो अनुपात 16.6 प्रतिशत बताया जाता है,उसमें यदि अप्रत्यक्ष कर के रूप में वसूला जाने वाला टीडीएस धन भी जोड़ दिया जाए तो इसका ग्राफ बढ़कर वहीं पहुंच जाएगा जो उभरती व विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों का है। इन देशों में जीडीपी का यह प्रतिशत करीब 34 है।

शिक्षा और स्वास्थ्य में ज्यादा धन लगाने की बजाय अब जरूरी है कि इनमें एक तो छात्रों के अनुपात में षिक्षकों हों और दूसरे शिक्षा में गुणात्मक सुधार हो। सरकारी शिक्षा से जुड़े जितने भी सर्वेक्षण आए हैं,उनमें शिक्षा के दो पहलू खासतौर से सामने आए हैं। एक, शिक्षा का स्तर तो छोड़िए,शिक्षकों का शैक्षिक स्तर भी संतोषजनक नहीं है। दूसरे प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के माध्ययमों तक में लाचारों के लिए शिक्षा रह गई है या मध्यान्ह भोजन और छात्रवृत्तियों के लिए शिक्षा रह गई है। अब बजट प्रावधानों के तहत देखने में यह आ रहा है कि बुनियादी गुणात्मक सुधार की बजाय,केंद्र का ध्यान अकादमियां खड़ी करने में ज्यादा है। पिछले आम बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने राष्ट्रीय खेल अकादमियां खोलने पर ज्यादा बल दिया। ये अकादमियां कई राज्यों के अलावा जम्मू-कश्मीर और मणिपुर में भी खोली जा रही हैं। इनमें खेल प्रतिभाओं को निष्पक्षता से आगे लाने की बजाय,सक्षम और पहुंच वाले लोगों की संतानों को सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ाने का व्यापार किया जा रहा है।

स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भी वास्तविक जरूरतमंद लोगों तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने की बजाय, ऐसे उपाय हो रहे हैं,जिससे सरकारी सेवा के लोगों को निजी अस्पतलों में स्वास्थ्य सेवा का लाभ मिले। इस कारण सरकारी अस्पतलों का ढांचा बैठ रहा है। चिकित्सकों की कमी लगातार बढ़ रही है। साथ ही चिकित्सा, उपचार की बजाय उपकरणों से जांच की प्रक्रिया में सिमटती जा रही है। सरकारी अस्पतलों में उपकरण तो बड़ी संख्या में पहुंचा दिए गए हैं,लेकिन उन्हें संचालित करने वाले आॅपरेटर व तकनीकीशियन हैं और न ही उन विषयों के जानकार चिकित्सक ? ऐसे उपायों पर अंकुश लगाने की जरूरत है। इनके वनस्वित बाल मृत्युदर पर अंकुश लगाने के उपाय बरतने चाहिए। क्योंकि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में यह दर 70 फीसदी तक बनी हुई है। सुरक्षा-क्षेत्र में पिछले बजट में अच्छे उपाय थे,इस बजट में इन्हें और बढ़ावा देने की जरूरत है,क्योंकि दुनिया में और हमारे सीमांत प्रदेशों में जिस तरह के हालात हैं, वे यदि कालांतर में बिगड़ते हैं तो उन पर नियंत्रण के लिए रक्षात्मक और सैनिकों की सुरक्षा के लिए प्रतिरक्षात्मक उपकरणों व हथियारों की अच्छी उपलब्धता होनी चाहिए।

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