और भाषण बाज नहीं चाहिए !

जेएनयू

कीर्ति दीक्षित

क्षत विक्षत है भारत भूमि का  अंग अंग बाणों से । 

 त्राहि त्राहि का नाद निकलता है असंख्य प्राणों से । । 

दिनकर साहब की ये पंक्तियाँ आज के परिदृश्य में कितनी सफल होकर उतरती हैं, आज ये भारत भूमि यदि कोई मानवी रूप धारित किये होती तो कितने ही बार प्राण तज दिए होते । इस भारत भूमि का कलेजा कैसा चीरा होगा जब उसकी छाती पे उछलते हुए उसकी बर्बादी के उसको छिन्न भिन्न करने के नारे बआवाज बुलंद किये गये थे , वो भी ऐसी धरा पर जहाँ भविष्य की कारीगरी की जाती है ।  तब भी इस  वत्सला पुण्य भूमि ने  बालकों की उद्दंडता को चपलता की ओढनी समझ धारण कर लिया होगा,  किन्तु शायद उस दिन ये किसी कोने में फूट फूट कर रोई होगी जिस दिन इस तंत्र के पहरेदार उन द्रोहियों के पहरेदारी करते दिखाई पड़ने लगे ।  भला ये कौन सी अभिव्यक्ति की आजादी है, जो अपनी जन्म भूमि का कलेजा रौंदती रहे, और लोग आजादी आजादी  चिल्लाते रहें ।

अब एक नयी कवायद आरम्भ हुई है, महिमा मंडन की ! अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहने वाले आजकल महिमा मंडन करते दिखाई पड़ रहे हैं, उसका जो देश द्रोह का आरोपी है ।  अरे ! किसका महिमा गान कर रहे हैं आप अपनी गिरेबान तो झांक लीजिये, आज एक द्रोह का आरोपी नेता बना फिर रहा है ।  एक पीढ़ी उसका अनुगमन करने के लिए महीनो कक्षाएं नहीं चलने देती, और ये कथित लोकतंत्र के पहरेदार संसद जाम करके बैठ जाते हैं  ।  क्या इन कथित पहरेदारों की जिम्मेदारी मात्र इन आरोपियों के प्रति है ? उन छात्रों के भविष्य के प्रति आपका कोई दायित्व है या नहीं जो वास्तव में  देश को शिखर तक ले जाने के लिए दिन रात श्रम करते हैं, आँखों में तेल डालकर पढ़ते हैं ।  स्वयं से पूछिये कैसा और कौन आदर्श बनकर उभर रहा है? क्या वास्तव में देश को बर्बाद करने की सौगंध खाकर सत्ता छोड़ी थी ?

हमारा इतिहास और वर्तमान भाषण बाजों  से भरा पड़ा है ।  इस देश को अब और आवश्यकता नहीं भाषण कला में निपुण लोगों की ।  आज आप भूख और गरीबी से आजादी के नारे लगा रहे हैं, यदि आपकी वास्तविकता में नियत साफ़ होती, यदि वास्तविकता में आप इन समस्याओं से आजादी चाहते तो, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम बनकर  आप सुंदर पिचाई बनकर, आप सत्या नाडेला बनकर, आप कल्पना चावला बनकर, आप इंदिरा नुई बनकर देश के प्रतिष्ठित संस्थान से बाहर आते ।   किन्तु आपके  रूप में एक ऐसी नस्ल तैयार हुई है जो देश को गर्त में ले जाने के लिए अकेली ही काफी है ।

फिर भी अभी इस देश का  सामान्य नागरिक यकीन करे,  ये नारे बुलंद करने वाला भी उन्ही में से एक है जो आपकी भावनाओं के नाम पर आपके ऊपर सवार होना चाहता है । गरीब तब तक गरीब रहेगा जब तक ऐसे लोगों को अपनी संवेदनाओं और भावनाओं के साथ खेलने देगा । एक बार खुद को गरीबों दलितों के मसीहा बताने वाले कन्हैया एंड कंपनी से पूछिये की इसके आस पास के गाँव में किस दिन कौन भूखा सोता है और कौन मरता है, शत प्रतिशत नहीं जानते होंगे, अरे जो स्वयं अपनी माँ से तीन महीने बाद संवाद करे वो क्या समाज उत्थान करेगा । राजनीति ही करनी थी तो खुले आम करते विश्वविद्यालय को अखाड़े में तब्दील करने की क्या आवश्यकता थी । इतने ही चिंतित थे गरीबों और भूखों के प्रति तो उन गरीब माँ बाप की संतानों के विषय में सोच लिया होता जो इसी विश्वविद्यालय के छात्र हैं, जिनमे से कई  इस देश के वास्तविक सुधारक बनकर निकलने वाले हैं ।

इस देश से गुजारिश है, अब और भाषणों में मत बहना क्योंकि भाषण देके  लालू  यादव भी मैदान में आये थे, भाषण देके, मुलायम सिंह भी मैदान में आये और तमाम जो दिखाई सुने दे रहे हैं सब आपके नाम के भाषण और नारे देकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचे हैं । क्या किसी ने समाज की गरीबी दूर की ? अरे यहाँ तक की केजरीवाल जी आपके हमारे नारे देकर ही सत्ता तक पहुंचे हैं, आगे तो सभी समझदार हैं । भूखे पेट आकाश की छत तले सोते लोगों की संख्या क्या कम  हुई ? या राजधानी की सड़कों पर भीख माँगते बच्चे दिखना बंद हुए ? अब और नेताओं में अपना भविष्य मत देखिये,  अपना  भविष्य स्वयं में देखिये, क्योंकि वो आप हैं जो समाज बदल सकते हैं, कुछ ऐसा करके जो लोगों को रोटी दे, कदाचित भाषणों से पेट नहीं भरा करते और नाही टपकती छतों को आसरे मिला करते हैं

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