सूखा

डॉ.अमित प्रताप सिंह

 

सुबह अचानक घबराकर आँख खुली, झटके से उठकर बिस्तर पर बैठ गए, माथे पर पसीना छलक रहा था, दिल की धड़कन किसी सुपरफास्ट ट्रेन के इंजन की तरह बहुत जोर की आवाज कर रही थी. तेज़ी से उठकर खिड़की से बाहर झांककर देखा, माली बगीचे में पौधों को पानी दे रहा था, फब्बारे रोज़ की तरह ही चलते हुए सुन्दरता बिखेर रहे थे, आसमान की सुबह की लाली और सुबह की ठंडी हवा रोज की ही तरह मौसम को सुहावना बना रही थी, दौड़कर बाथरूम में गए और नल खोल दिया, नल से पानी रोज की ही तरह सामान्य गति से बहने लगा, जल्दबाजी में उन्होंने फब्बारे की नॉब को भी घुमा दिया था जिससे फब्बारे में से अचानक निकली ठंडे पानी की बौछार ने माथे के पसीने के साथ-साथ सुबह की नींद के आलस को भी बहाकर उन्हें तरोताजा कर दिया.

कुछ मिनिट बाद तौलिये से मुंह पोंछते सोच रहे थे, कैसा भयानक सपना था? भयंकर सूखा . . . नदी, तालाब, कुंए आदि सब सूख चुके थे, लोग पानी के लिए तरस रहे थे, फसलें बर्बाद होने से किसान भूखों मर रहे थे और परिवार सहित आत्महत्या करने को मजबूर थे, पालतू पशु दाना-पानी के अभाव में मर रहे थे, जंगल के जानवर भोजन-पानी की तलाश में शहर में घुसने लगे थे, पूरे क्षेत्र में त्राहि-त्राहि मची थी.

“उफ़ . . . हे ईश्वर . . . कभी – कहीं ऐसी स्थिति न आये . . .” सोचते हुए सिर को एक ओर झटककर फालतू विचारों को परे किया और कमरे में आकर बेमन से सामने पड़े अख़बार को देखने लगे.
कुछ घंटे बाद एक किसान सम्मलेन में उनका उद्बोधन चल रहा था, “मैं भी किसान का बेटा हूँ, मेरी भी नींद सूखे के भयानकता से उड़ जाती है, मैं किसान का दर्द समझता हूँ. हमारे आंकड़े बताते हैं हम खुशनसीब हैं, हमारे प्रदेश में पिछले वर्ष बरिश ‘सामान्य’ रही और फसलों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ, हम कृषि के क्षेत्र में देश में अग्रणी हैं. ईश्वर और हमारे अन्नदाता आप सभी का बहुत आभार और धन्यवाद.”

मंच से दूर सामने अस्सी – नब्बे वीं पंक्तियों में बैठे ‘किसान’ जिसकी खाल पूरी तरह से हड्डियों से चिपकी हुई थी, की गहरे गड्ढे से झांकती सी सूखी आँखों से दो बूँद नीचे ढलक गयीं.

कैसा सूखा? कहाँ है सूखा? इस प्रदेश में तो कभी सूखा पड़ा ही नहीं

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