आर.बी.एल.निगम
मतदान वाले दिन सड़कों पर आम दिनों की अपेक्षा इतनी अधिक भीड़ होती है कि जनता को इधर से उधर जाने में बड़ी कठिनाई होती है। यदि किसी बीमार को हॉस्पिटल लेकर जाना हो तो “हे भगवान एम्बुलेंस वाला तो हॉर्न और ब्रेक लगा-लगा कर दुखी हो लेता है।”
वास्तव में इतनी भीड़ होती नहीं है जितनी दिखती है। भीड़ होती है उम्मीदवारों की लगने वाली मेजों और उनके शुभचिंतकों द्वारा शान से कुर्सियाँ लगाने से। जब मतदान से एक/दो दिन पूर्व मतदाता पर्चियाँ घर-घर वितरित कर दी जाती हैं, इतना ही नहीं, प्रत्येक मतदान के अंदर चुनाव आयोग के कर्मचारी भी पर्ची बनाने के लिए बैठे होते हैं। और अपना मत डालने के लिए मतदाता को अपना कोई भी पहचान-पत्र लेकर जाना पड़ता है, उस स्थिति में मतदान वाले दिन सड़कों पर मेज-कुर्सी डालकर आने-जाने में अवरोध उत्पन्न करने का कोई औचित्य नहीं।पहचान-पत्र की जरुरत केवल चुनाव आयोग द्वारा वितरित पर्ची पर ही जरुरी नहीं होता, फिर क्यों न मतदाता को चुनाव आयोग की पर्ची न होने की स्थिति में अपना पहचान-पत्र दिखाकर मत डालने की अनुमति क्यों नहीं। सड़कों पर किसी भी तरह का अवरोध नहीं होने पाएगा और कम सुरक्षाकर्मियों से मतदान भी शांतिपूर्वक निपट जायेगा। फिर मतदान में कोई अवरोधक उत्पन्न होता है उस पर बड़ी सुगमता से कार्यवाही की जा सकती है। इस उपाय से सरकार एवं उम्मीदवारों के खर्चे में भी बहुत कमी आएगी। ऐसा अनुमान है कि प्रति मंडल प्रति उम्मीदवार टेंटवाला कम से कम पन्द्रह से बीस हज़ार रूपए और टेबल पर बैनर,पोस्टर,हैंडबिल और पर्ची का खर्चा अलग जो लगभग शून्य ही दिखाया जाता है। हर पोलिंग पर हर पार्टी के पन्द्रह-बीस कार्यकर्ता। प्रति कार्यकर्ता 500 रूपए। क्योंकि आम आदमी पार्टी आने से पूर्व जो काम 200/300 रूपए में हो रहा था, अब वही काम 500 रु. में हो रहा है। भोजन,दो समय का नाश्ता और चाय-पानी आदि। चुनाव में शराब और धन वितरण तो जग जाहिर है।यह मात्र एक दिन यानि चुनाव वाले दिन का खर्चा है और दिनों का खर्चा अलग। ईमानदारी से इन सब की गणना से स्पष्ट है मतदान वाले दिन प्रति मण्डल उम्मीदवारों का एवं सरकार द्वारा मतदान प्रबन्ध पर होने खर्चों को एक रूप किया जाने पर जो कुल योग सामने आयेगा, आँखें चौंधियाने वाला ही कुल योग होगा। जिसे चुनाव उपरांत किसी न किसी रूप में जनता से ही वसूला जाता है। और जनता चीखती-चिलाती है “हाय महंगाई, हाय महंगाई” चाहे विजयी उम्मीदवार हो या सरकार उस खर्चे को कहाँ से पूरा करेगी “आखिर तेल तो तिलों में से निकलना है। ” अल्प-समय के लिए होने वाले उप-चुनाव तो और भी महंगे होते हैं।
चुनाव आयोग यदि बिना किसी भेदभाव के इस विषय पर गम्भीरता से विचार कर कोई सकारात्मक निर्णय लेने में सफल होता है तो देश पर आर्थिक बोझ बहुत कम होगा। लेकिन चुनाव आयोग को इस मुद्दे पर लोहे के चने चबाने पड़ेंगे, लेकिन यदि चुनाव सिफारिशों में इन मुद्दों का उल्लेख है, फिर जिस चुनाव आयुक्त ने इस विषय का संज्ञान कर लागू करने पर भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन के बाद उसी मुख्य चुनाव आयुक्त को स्मरण भी किया जायेगा। लेकिन है बहुत गम्भीर मसला।