कृषि का सत्यानाश

agriभारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है| देश के ग्रामीण इलाकों में रहनेवाली आबादी भारी तौर पर कृषि पर ही आधारित है| इस देश का किसान अपनी मेहनत और परिश्रम के बल पर अनाज उगाता है, उसे सींचता है फिर भी उनकी मेहनत का मूल्य उपजाने में लगी लागत से भी कम मिलता है| अब कृषि फायदे का सौदा नहीं रहा| लोग कृषि से दूसरी क्षेत्र की ओर पलायन को मजबूर हो रहे हैं| कृषि पर निर्भर रहनेवाले लोगों की तादाद तेजी से घाट रही है| देश में 45 फीसदी यानी आधे से भी कम लोग कृषि पर निर्भर है| देश का 64% क्षेत्र खेती के लिए मानसून और बारिश की मेहरबानी पर निर्भर है| आबादी बढ़ रही है, खाधान्नों की मांग बढ़ रही है, खपत में इजाफा होने से महंगाई भी बढ़ रही है तो वहीँ सबसे चिंताजनक बात ये है की देश में कृषि योग्य जमीनें काफी तेज़ी से घट रही है| बिना किसी स्पष्ट नीतिओं के देश की कृषि विकास के अन्धानुकरण में फंसकर उसकी चमक फीकी पड़ती जा रही है| क्या कृषि के साथ हो रही नजरंदाजी वैश्वीकरण या औधोगीकरण में सहायक है या फिर हम पश्चिमी भागदौड़ और उनकी सुख-सुविधाओं के पीछे भागते-भागते अपनी कृषि की पुरातन विरासत को यूँ खो देंगे? इस तरह हमें एक भीषण और व्यापक खाधान्न संकट का सामना करना पड़ सकता है|

भारतीय कृषि के साथ 1960 के बाद हरित क्रांति के रूप में किये गए प्रयोग काफी सफल रहे| पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों का खाधान्न उत्पादन न केवन आश्चर्यजनक रूप से बाधा, बल्कि नये-नये रासायनिक प्रयोगों से खेती पहले की तुलना में काफी सरल भी हुई| हाइब्रिड बीजों का प्रयोग शुरू हुआ, रासायनिक उर्वरक को पारम्परिक उर्वरक की जगह बेहताशा इस्तेमाल में लाया गया, सिंचाई की व्यवस्था हुई, नये-नये कृषि यंत्रों का आविष्कार हुआ| इस तरह से हमारी कृषि वैज्ञानिक तरीके से बेहतर हो हुई पर, भविष्य में उसके परिणामों की चिंता न कर सकी| नतीजा यह हुआ की कम जगह में ज्यादा पाने की ललक किसानों पर भरी साबित हुई| इसलिए की अब मिट्टी की उर्वरता, रासायनिक तत्त्वों के बेजा इस्तेमाल से घटने लगी है| मिट्टी को मिलने वाली पोषण कीटनाशकों और खरपतवार नाशी दवाओं के कारण बंद हो गई है| नदी, तालाब व कुओं पर निर्भर पुरानी सिंचाई व्यवस्था की जगह नलकूपों, मोटरपाइपों का बेजा इस्तेमाल होने लगा और इस तरह से सूखे व जलस्तर नीचे चले जाने की समस्या शुरू हो गई|

पुरातन कृषि परम्परा जो पूरी तरह से प्राकृतिक स्त्रोतों पर आधारित थी उसकी जगह मानवजनित यंत्रों द्वारा उन स्त्रोतों का दोहन शुरू कर दिया गया| इस तरह से भारतीय कृषि में सम्मलित पाशुपालन, मत्स्य पालन, कीटपालन और बागवानी जैसे कृषि के स्वरूप कम होते गए या विलुप्त होने के कगार पर हैं| लोगों में विलासित बढ़ रही है, मेहनत करने के बजाए मशीनों का इस्तेमाल बढ़ रहा है| इस तरह से पारिस्थितिकी से छेड़छाड़ करने का परिणाम लोगों को अब दिखने लगा है| अगर कृषि में बढ़ रही बेरोजगारी और पलायन की स्थिति को रोकने के लिए जल्द कोई कारगर कदम न उठाये गये तो ये हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी आबादी के लिए एक भीषण संकट का कारण बन सकती है| अगर ऐसा हुआ तो हमारा भविष्य निश्चित तौर पर कृषि की विरासत से वंचित हो सकता है… इसमें कोई दो राय नहीं…

अश्वनी कुमार

7 COMMENTS

  1. कृषि पर लेख लिखने और उन लेखों पर टिपण्णी करने में लोगों को महारत हासिल है.गरीब की जोरू सबकी भाभी वाली कहावत चरितार्थ होती है,यहाँ.लोग तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि कृषि छोड़ दो,निर्यात पर ध्यान दो.लोग भूल रहे हैं कि नेहरू ने भी बहुत पहले यही कहा था,पर १९६५-६७ में यह सिद्ध भो चूका है कि भारत के लिए कृषि उत्पादन बढ़ाना कितना आवश्यक है. भारत जब अपनी जरूरत पूरी करने के लिए आंशिक रूप से गेंहूं या दाल खरीदने निकलता है,तो विश्व बाजार में उनकी कीमतें आसमान छूने लगती हैं.कल्पना कीजिये कि जब भारत अपनी ज्यादा अनाज की आवश्यकताओं के लिए विश्व बाजार में उतरेगा तब क्या स्थिति होगी?फिर कौन पैदा करेगा,इतने लोगों का पेट भरने के लिए?
    एक अन्य बात भी है.कृषि से लोग हट क्यों नहीं पा रहे हैं?किसीने इस पर ध्यान दिया है?

    • नमस्कार सिंह साहब, पहले (१) मेरा आलेख *आज की स्वदेशी की मर्यादाएँ*–पढकर, उसी का संदर्भ दे कर टिप्पणी कीजिएगा।
      (२) जो आलेख में नहीं, वैसा कपोल कल्पित उद्धरण देना और उसीका संदर्भ लेकर, जैसे वही कहा गया हो, उसीकी चर्चा करना, कोई स्वस्थ बहस का आधार नहीं हो सकता। स्वस्थ बहस से सत्य की विजय होती है। वही चाह होनी चाहिए।
      (३) जिस वाक्य से आप असहमत हो, उसका उद्धरण देकर, अपने विचार व्यक्त कीजिएगा।
      (४) अगले आलेख में आप के प्रश्नों के संदर्भ से उत्तर देने का प्रयास होगा। और आप यदि सही प्रमाणित हुए; तो मुझे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।

      डॉ. मधुसूदन

      • डॉक्टर साहिब, आपकी आज की स्वदेशी की मर्यादाएँ भी पढ़ी और रेखा जी की दो टिप्पणियां भी देखी.भारतीय सन्दर्भ में रेखा जी सत्य के ज्यादा नजदीक हैं.आप अमेरिका में रहते हैं अतः वहां से तुलना करते हैं.भारत में भी आप गुजरात की सतही चमक दमक से प्रभावित नजर आते हैं.भारत के सन्दर्भ में सत्य वह नहीं है,जो आप अपने तर्क द्वारा सिद्ध करना चाह रहे हैं. मेरे आपने विचार से तेजस भारतीय विमान नहीं है.मुझे शक है कि उसकी टेक्नोलॉजी का हमें कोई ज्ञान है.पर इस पर बाद में..आपने मेरी टिपण्णी के अंतिम वाक्य को देखने कि शायद आवश्यकता भी नहीं समझी.खैर जाने दीजिये.आ पने क्या कभी गुजरात के वे स्कूल देखें,जहाँ अधिकतर छात्र पढ़ते हैं यानि सरकारी स्कूल ? क्या वे अस्पताल देखें ,जहाँ अधिकतर रोगी भर्ती होते हैं.यानि सरकारी अस्पताल ?गुजरात हो या भारत के अन्य हिस्से.सब जगह इनकी हालत बहुत ही खराब है.क्या ऐसा कोई शिक्षा सं स्थान या स्वास्थ्य सेवा आपने अमेरिकामें कहीं देखा है?भारत एक बीमार अशिक्षित देश है.सबसे पहले यहाँ जरूरत हैशिक्षा और स्वास्थ्य कि.तभी लोग कृषि में नए प्रयोग करके उत्पादकता बढ़ाएंगे या वहां से बाहर आएंगे.आज की हालात में वे बाहर आकर भी वे शहरों में भूखे मरेंगे या किसी तरह अमानवीय स्थिति में जिंदगी गुजारेंगे.अतः आप अगर इस पर सचमुच कुछ कहना या करना चाहते हैं तो आपको सम्पूर्ण रूप से विचार करना होगा.

          • डॉक्टर साहिब,उत्तर तो मुझे दिखा नहीं.क्या आप सन्दर्भ बताएँगे?

      • मुझे अफ़सोस है कि मैं आपके द्वारा उठाये गए प्रश्नों पर कोई टिपण्णी करने में असमर्थ हूँ,क्योंकि जो टिपपणी मैंने की थी,वह प्रकाश में आई नहीं.आज कल ऐसा अक्सर हो रहा है.मैं अगर कहानी लिखता हूँ और उसका नायक कहीं भी किसी नेता से मिलता जुलता है,वह कहानी प्रकाशित नहीं होती है.खैर कहानी की मूल प्रति बची रहती है.टिप्पणियों के बारे में तो और बुरा हाल है..टिप्पणियों को मैं बहुत बार सेव भी नहीं करता ,इसलिए उसको दुबारा उसी तरह लिख भी नहीं सकता. .अभी फिलहाल तो शायद दूसरी बार ऐसा हो रहा है.अभी एक आलेख आया था, काश स्मृति ईरानी ने नशा पढ़ा होता.उसपर भी मेरी टिपण्णी नहीं प्रकाशित हुई.पहले तो ऐसा बहुत बार हो चूका है..मैं चुप रह जाता हूँ,पर इस मामले में मुझे लिखना पड़ा,क्योंकि आपने उत्तर माँगा था.

  2. आज सकल घरेलु उत्पाद की केवल १५% योगदान देनेवाली, पर ३ गुनी — ४५% कृषक जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है।
    असफल होनेपर, इसी लिए आत्महत्त्याएँ होती हैं।
    शेष ८५ सकल घरेलु उत्पाद बची हुयी ५५% जनसंख्या देती है। भारत आज कृषिप्रधान नहीं है। निर्यात के लिए उद्योगों का विकास आज के समय में उचित लगता है।

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