कट्टरपंथियों के निशाने पर इस्लामिक संस्कृति

0
154

death of Amjad Sabriअरविंद जयतिलक
पाकिस्तान के जाने-माने कव्वाल अमजद साबरी की नृशंस हत्या ने फिर साबित किया है कि पाकिस्तान में कोई भी सुरक्षित नहीं है। आतंकी संगठन जब चाहें तब किसी को कहीं और कभी भी मौत की नींद सुला सकते हैं। अभी तक आतंकी संगठनों के निशाने पर सांस्कृतिक धरोहरे हुआ करती थी लेकिन अब वे गीत-संगीत के जरिए संस्कृति को बढ़ावा देने वाले कलाकारों को भी निशाना बनाना शुरु कर दिया है। रमजान के पाक महीने में हुई इस हत्या ने संगीत की दुनिया को गम से भर दिया है। अभी चंद रोज पहले ही अमजद साबरी अमेरिका और यूरोप के कई देशों में शो करके लौटे थे और उन्होंने अपनी सुरक्षा की मांग की थी। अमजद के परिवार के मुताबिक उन्हें लगातार जान से मारने की धमकी मिल रही थी। लेकिन विडंबना है कि पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें सुरक्षा मुहैया नहीं करायी और कट्टरपंथी अपने मकसद में कामयाब रहे। अमजद शाबरी गायिकी के आधुनिक शैली के राॅक स्टार थे और उनके मुरीद न सिर्फ पाकिस्तान में बल्कि यूरोप और अमेरिका में भी फैले हुए हैं। साबरी ब्रदर्स की यादगार कव्वालियां ‘भर दो झोली’, ‘ताजदार-ए-हरम’ और ‘मेरा कोई नहीं है तेरे सिवा’ आज भी लोगों के जुबान पर है। अमजद शाबरी का परिवार सूफी कला और सूफी कविता के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पूरे उप-महाद्वीप में मशहूर है। गौरतलब है कि सूफी कव्वाली की शुरुआत हाजी गुलाम फरीद साबरी और उनके छोटे भाई हाजी मकबूल अहमद साबरी ने की। इन दोनों भाईयों ने दुनिया भर में कव्वाली को पहचान दिलायी विशेष रुप से पाकिस्तान और उत्तर भारत में। गुलाम फरीद साबरी का जन्म 1930 में अविभाजित भारत के रोहतक में हुआ था और बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। पिछले वर्ष सलमान खान की फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ में जब अदनान सामी की आवाज में ‘भर दो झोली’ कव्वाली को शामिल किया तो अमजद साबरी ने इसका विरोध करते हुए काॅपीराइट का मुद्दा उठाया था। दरअसल यह कव्वाली अमजद साबरी के पिता गुलाम फरीद और उनके चाचा मकबूल ने गायी थी। गौर करें तो अमजद साबरी एक अरसे से कट्टरपंथियों के निशाने पर थे। 2014 में इस्लामाबाद उच्च न्यायालय ने ईश निंदा के आरोपों पर जियो और एआरवाय न्यूज को नोटिस जारी किए थे जब दोनों चैनल्स ने अपने मार्निंग शो में अमजद साबरी की कव्वाली पेश की थी। कट्टरपंथियों ने आरोप लगाया कि कव्वाली में शादी का जिक्र था जिससे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची। कट्टरपंथियों ने न सिर्फ अमजद साबिर की हत्या की है बल्कि सूफी परंपरा पर भी आघात पहुंचाया है। सूफी मत में संगीत को आध्यात्मिक साधना का साधन माना जाता है। मध्यकाल में मुसलमानों में प्रेम व भक्ति के आधार पर सूफीवाद का जन्म हुआ। यह मत इस्लाम धर्म में आयी बुराईयों को दूर करने के लिए आरंभ किया गया। इसका उदय ईरान में हुआ तथा भारत में यह 13 वीं सदी में आया। सूफी शब्द अरबी के सूफ शब्द से निकला है जिसका अर्थ है-ऊन। मुहम्मद साहब के प्श्चता जो लोग ऊन के कपड़े पहनकर घुमते थे वे सूफी कहलाए। कुछ विद्वान सूफी शब्द की उत्पत्ति सफा से मानते हैं जिसका अर्थ होता है पवित्र। सूफी संप्रदाय के मुस्लिम संतों ने अनेक खानकाह यानी आश्रम बनवाए जहां से वे अपने मत का प्रचार करते थे। सुहरावर्दी, कादरी, नक्शबंदी, चिश्ती प्रमुख सूफी संप्रदाय हैं। विश्व के प्रमुख सूफी संतों में शेख मुईनुद्दीन चिश्ती, कुतुबद्दीन बख्तियार काकी, शेख हमीदुद्दीन नागौरी, शेख फरीद्दीन गंज-ए-शंकर, शेख सलीम चिश्ती, शेख निजामुद्दीन औलिया तथा शेख बहाउद्दीन जकारिया का नाम आदर से लिया जाता है। सूफीवाद का उदय 9 वीं सदी में एक आंदोलन के रुप में हुआ। इस समय इसके कुछ सिद्धांतों तथा नियमों का प्रतिपादन भी हुआ। सूफी संतों ने अपने विचारों में मुख्य रुप से आत्मा, परमात्मा तथा सृष्टि इत्यादि का उल्लेख किया है। सूफी संत ईश्वर की एकता में विश्वास रखते थे तथा उसे सर्वव्यापी मानते थे। भारतीय उपमहाद्वीप में सूफीवाद और सूफी परंपरा के अंतर्गत कव्वाली भक्ति संगीत की एक धारा के रुप में उभरकर सामने आयी। इसका इतिहास 700 साल से भी ज्यादा पुराना है। मौजूदा समय में कव्वाली भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत बहुत से देशों में संगीत की एक लोकप्रिय विधा बन चुकी है। अजीज मियां कव्वाल, बहाउद्दीन कुतुबुद्दीन, हबीब पेंइटर, अजीज वारसी, जफर हुसैन खान बदायुॅनी, मोहम्मद सईद चिश्ती, मुंशी रजीउद्दीन और साबरी बंधु पुराने मशहूर कव्वाल रहे हैं। आधुनिक समय में भी बहुतेरे नामचीन कव्वाल इस विधा को आगे बढ़ा रहे हैं। उन्हीं में से एक अमजद साबरी भी थे जिन्हें कट्टरपंथियों ने मौत के घाट उतार दिया। दरअसल कट्टरपंथी ताकतों की मंशा पाकिस्तान में शरीयत लागू करना है इसीलिए वे सभी चीजों को नष्ट कर रहे हैं जो भारतीय उप-महाद्वीप की पहचान है। ईश निंदा की आड़ में उदारवादियों और कलाकरों की हत्या कर साबित करना चाहते हैं गीत-संगीत और धरोहरें इस्लाम का हिस्सा नहीं है। लेकिन सच यह नहीं है। गीत-संगीत न तो कभी सीमाओं की खोल में रहा और न ही किसी धर्म, मजहब और संस्कृति के डोर से बंधा। मुस्लिम शासकों के इतिहास में भी संगीत उतना ही रचा-बसा जितना कि अन्य शासकों के। जब तुर्क भारत आए तो अपने साथ ईरान और मध्य एशिया के समृद्ध अरबी संगीत परंपरा को ले आए। उसे बुलंदियों तक पहुंचाया और कई रुप-रंग व नाम दिए। दिल्ली सल्तनत के शासक बलबन, जलालुद्दीन, अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक के दरबारों में संगीत सभाओं का आयोजन होता था। बलबन का पुत्र बुगरा खां और पौत्र कैकूबाद के समय राजधानी की गलियां और सड़कें गजल गायकों से गुलजार रहती थी। इतिहासकर बरनी ने उस समय के मशहूर संगीतकारों शाहचंगी, नूसरत खातून और मेहर अफरोज का जिक्र किया है जो अपने संगीत से समां बांधते थे। अलाऊद्दीन खिलजी जो इस्लाम के प्रति आस्थावान था, के दरबार में महान कवि एवं संगीतज्ञ अमीर खुसरो को संरक्षण हासिल था। खुसरो ने भारतीय और इस्लामी संगीत शैली को मिलाकर यमन उसाक, मुआफिक, धनय, फरगना और मुंजिर जैसे राग-रागनियों को जन्म दिया। उसने दक्षिण के महान गायक गोपाल नायक को दरबार में आमंत्रित किया। मध्यकालीन संगीत परंपरा के संस्थापक अमीर खुसरों को सितार और तबले के आविष्कार का जनक माना जाता है। उसने ही भारतीय संगीत में कव्वाली गायन को प्रचालित किया। प्रचलित ख्याल गायकी के आविष्कार का श्रेय जौनपुर के सुल्तान हुसैन शाह शर्की को दिया जाता है। रबाब, सारंगी, सितार और तबला इस काल के मशहुर वाद्ययंत्र थे। फिरोज तुगलक के बारे में जानकारी मिलती है कि जब वह गद्दी पर बैठा तो 21 दिनों तक संगीत गोष्ठी का आयोजन किया। ये सभी उदाहरण इस बात के गवाह हैं कि संगीत इस्लाम का एक अभिन्न अंग रहा है। मुगलकालीन शासकों की बात करें तो अकबर के दरबार में तानसेन जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ को संरक्षण हासिल था। अबुल फजल ने तानसेन के बारे में लिखा है कि उसके जैसा गायक हजार वर्षों में कभी नहीं हुआ। मियां की टोड़ी, मियां की मल्हार, मियां की सारंग, दरबारी कान्हड़ी तानसेन की प्रमुख रचनाएं हैं। अकबर के समय में ध्रुपद गायन शैली एवं वीणा का प्रचार हुआ। अबुल ने अकबर के दरबार में 36 गायकों का उल्लेख किया है। तानसेन का पुत्र विलास खां जहांगीर के दरबार का प्रमुख संगीतज्ञ था। शाहजहां अपने दीवने खास में प्रतिदिन गीत-संगीत सुना करता था।सच तो यह है कि गीत-संगीत इस्लाम की शानदार परंपरा का हिस्सा रहा है। सूफी संतों ने संगीत से रुहानी ताकत हासिल की। शेख मुईनुद्दीन चिश्ती संगीत को आत्मा का पौष्टिक आहार कहा है। अबुल फजल ने आईने अकबरी में 14 सूफी सिलसिले का उल्लेख किया है। सुहरावर्दिया शाखा में शेख मूसा एक महत्वपूर्ण सूफी संत हुए जो सदैव स्त्री के वेष में रहते हुए नृत्य और संगीत में अपना समय व्यतीत करते थे। सूफी संत ईश्वर को प्रियतमा एवं स्वयं को प्रियतम मानते थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर की प्राप्ति गीत-संगीत से ही की जा सकती है। फिर कट्टरपंथी ताकतें किस बिना पर संगीत को इस्लाम का हिस्सा मानने को तैयार नहीं हैं? बेहतर होगा कि वे गीत-संगीत पर पहरा लगाने और कलाकारों की हत्या करने से पहले इस्लाम के दर्शन को समझें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here