उत्तर प्रदेश में कौन खेलेगा असली दांव ?

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cm-sheila-dixitसंदर्भः- उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का चेहरा बनी शीला दीक्षित

प्रमोद भार्गव
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की कठिन डगर पर कांग्रेस ने आखिरकार गंभीर सूझबूझ के बाद शीला दीक्षित को पार्टी के चेहरे के रूप में उतार दिया। अब उन्हीं पर कांग्रेस की डूबती नैया को किनारे लगाने की जिम्मेबारी है। कांग्रेस ने एक पखवाड़े के भीतर उप्र चुनाव के परिप्रेक्ष्य में जिस तरह से तबाड़तोड़ फैसले लिए हैं, उनसे इतना जरूर तय है कि कांग्रेस ने प्रदेश की सियासी जमीन पर हलचल मचाते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। ब्राह्मण चेहरा होने के कारण उप्र की राजनीति में जो ब्राह्मण अब तक दुविधा में थे, उन्हें खुली राह तो दिखाई दी है, लेकिन प्रदेश में जिस तरह से पिछड़ी, दलित और मुसलमान जातियां पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, उसके चलते फिलहाल यह कहना मुश्किल ही है कि प्रदेश में असली चुनावी दांव खेलकर सत्ता पर काबिज कौन होता है ? लोकसभा की 67 सीटें जीतकर केंद्रीय सत्ता हासिल करने वाली भाजपा भी अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जादू का कोई नया करिश्मा दिखाने का बड़ा दांव खेल सकती है ? ऐसे में भाजपा, सपा और कांग्रेस तो उभरती दिखाई देंगी, लेकिन बसपा का सिमटना तय है। शीला को प्रदेश का चेहरा बनाने में कांग्रेस के राणनीतिकार प्रशांत किशोर की सलह ने भी अहम् भूमिका निभाई है।
ब्राह्मण कांग्रेस का परंपरागत मजबूत वोट बैंक रहा है। लेकिन बाबरी ढांचे के विध्वंस और मंदिर-मंडल की राजनीति से जुड़े मुद्दों में उछाल के चलते कांग्रेस से यह वोट बैंक खिसक गया। इस दौरान इसने भाजपा, सपा और बसपा सबको आजमाया और उप्र की सत्ता तक इन दलों को पहुंचाने में मददगार भी बना। बावजूद ब्राह्मणों को उप्र के सियासी पटल पर कोई खास महत्व नहीं मिला। इस दुविधा से वे आज भी ग्रस्त हैं। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 10 प्रतिशत बताई जाती है। इनमें यदि निचले दर्जे के ब्राह्मण जोगी, पंडे, ओझा, जांगिड़ और भूमिहारों को भी जोड़ दें तो यह संख्या बढ़कर 14 प्रतिशत हो जाती है। बावजूद ब्राह्मण 14 फीसदी तक ही सिमटे नहीं रह जाते। ये अपने प्रभाव से अन्य समाजों के मतदाताओं को भी अपने पक्ष में ले लेते हैं। स्थानीय मीडिया और नुक्कड़ चैपालों पर बढ़ चढ़ कर राजनीति की बातें करने वाले वर्ग में ब्राह्मण ‘हवा‘ बनाने में निपुण हैं। इसीलिए इनके वास्तविक प्रभाव को कहीं ज्यादा आंका जाता है। 2007 के विधानसभा चुनाव में उप्र में महज 19 फीसदी ब्राह्मण मतदाताओं ने मायावाती को वोट दिए थे, इनमें भी सर्वाधिक वोट उन विधानसभा क्षेत्रों में मिले थे, जहां ब्राह्मण उम्मीदवार थे। बावजूद बसपा स्पष्ट बहुमत से सत्ता पर काबिज हो गई थी। 2012 में ब्राह्मणों को रिझाने का मायावती का यही नुस्खा मुलायम सिंह यादव ने अपनाया और बेटे अखिलेश यादव को देश के सबसे राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया।
शीला को कांग्रेसी चेहरे के रूप में पेश करने में राणनीतिकार प्रशांत किशोर का दखल तो है ही, लोकनीति के एक सर्वे ने भी कदमताल मिलाने का काम किया है। इस सर्वे से पता चला कि बाबरी विध्ंवस के बाद ब्राह्मणों का जो वोट बैंक कांग्रेस से अलग होकर भाजपा के पाले में चला गया था, वह भाजपा से उप्र के विधानसभा चुनावों में टूटा है। 2002 में भाजपा को ब्राह्मणों के 50 प्रतिशत वोट मिलं थे, जो 2007 में घटकर 44 प्रतिशत रह गए थे। मसलन एक साथ 6 फीसदी वोटों की कमी आई। यही स्थिति बसपा को सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने में मददगार साबित हुई थी। क्योंकि उसे ब्राह्मणों के 19 फीसदी वोट मिले थे। ब्राह्मणों के इतने ही वोट 2012 में सपा को मिले। इन आंकड़ों का प्रशांत ने गंभीरता से आकलन किया और कांग्रेस को सलाह दी कि शीला दीक्षित को राज्य में चुनाव से संबंधित बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जांए। 27 साल से उप्र में पराजित हो रही कांग्रेस को इस आकलन से संजीवनी मिली और शीला को चुनावी चेहरा घोषित कर दिया। इससे कांग्रेस को फिलहाल एक साथ दो फायदे हुए हैं, एक तो प्रदेश में सोई कांग्रेस में आशा की नई लहर अंगड़ाई लेने लगी है, दूसरे मतदाताओं के लिहाज से बहुत बड़ी संख्या व प्रभावी भूमिका निभाने वाले वर्ग के खोए समर्थन के पक्ष में आने की उम्मीद बढ़ गई है। फिलहाल ये उम्मीदें इसलिए बढ़ी लग रही हैं, क्योंकि अब तक भाजपा, सपा और बसपा ने प्रदेश में चुनावी राणनीति की दृष्टि से जो भी निर्णय लिए हैं, उनमें ब्राह्मणों की ज्यादा परवाह दिखाई नहीं दी है।
पंजाब के कपूरथला में पैदा होने से शीला पंजाब की बेटी है। उनकी शादी उप्र के प्रमुख नेता उमाषंकर दीक्षित के आईएस बेटे विनोद से हुई। दीक्षित उन्नाव के रहने वाले थे। आगरा में जब विनोद पदस्थ थे, तभी से शीला ने समाज सेवा के बहाने राजनीति की शुरूआत कर दी थी। बाद में प्रत्यक्ष राजनीति में आ गईं और 1984 में कन्नौज से सांसद भी चुनी गईं। हालांकि इसके बाद वे तीन मर्तबा चुनाव हारीं भी। इसके बाद शीला 1998 से लेकर 2013 तक लगातार तीन मर्तबा दिल्ली की मुख्यमंत्री रहने का कीर्तिमान बनाया। लेकिन 2013 के विधानसभा चुनाव में पार्टी तो चुनाव हारी ही अरविंद केजरीवाल से शीला खुद भी बड़े अंतर से हार गईं। इससे यह अंदाजा लगता है कि शीला कोई ऐसे करिश्माई नेतृत्व की धनी नहीं हैं जिनके हाथ हमेशा जीत की बाजी लगे। यह तब और मुश्किल है, जब उनके पिछले कार्यकाल के काले कारनामों से मुख्यमंत्री केजरीवाल पर्दाफाश करने में लगे हों। वैसे भी शीला अपने 15 वर्षों के कार्यकाल में विवादों से घिरी रही हैं। राष्ट्रमंडल खेलों के लिए हुए निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। मंडल के तात्कालीन अध्यक्ष सुरेष कलमाड़ी को तो जेल तक जाना पड़ा। इन्हीं खेलो के लिए दिल्ली में लगाई गई स्ट्रीट लाइट घोटाले में सीएलजी ने सीधे शीला को दोषी ठहराया है। दिल्ली में खासतौर से महिलाओं से जुड़े बढ़ते अपराधों के लिए बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों को दोषी ठहराते हुए शीला ने एक बयान दिया था, जिस पर शीला समेत कांग्रेस की छीछालेदार हुई थी। हत्या के आरोप में सजायाफ्ता मनु शर्मा को पैरोल देने की अनुमति पर भी शीला पर गंभीर सवाल उठे थे। अब केजरीवाल ने शीला के कार्यकाल से जुड़े टैंकर घोटाले को उजागार किया है। इस बाबत दिल्ली की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा ने शीला को नोटिस दिया है। इस पर सुनवई 26 अगस्त को होगी। मसलन विवाद हैं कि शीला का पीछा नहीं छोड़ते। साफ है, इन मुद्दों को चुनाव में कांग्रेस विरोधी सभी दल भुनाएंगे। नरेंद्र मोदी इन मुद्दों से कोई ऐसा सूत्र खोज सकते हैं, जिसके बूते वे अपना जादू चलाने में शायद कामयाब हो जाएं।
शीला को चुनावी चेहरा बनाने के बावजूद कांग्रेस शायद ही आष्वस्त हो। यदि ऐसा होता तो वह प्रियंका या राहुल को भी चेहरा बना सकती थी ? वे भी ब्राह्मण चेहरा ही हैं। दरअसल यह एक प्रयोग है, जिससे आजमाते हुए वह नए ढंग से राजनीतिक सारोकार साधना चाहती है। एक तो पार्टी ने श्री प्रकाश जायसवाल, राज बब्बर, सलमान खुर्षीद, जितिन प्रसाद, प्रमोद तिवारी, इमरान मसूद, रीता बहुगुणा, जफर अली नकबी और अब्दुल्ल मन्नान को चुनावी मुहिम से जोड़कर उप्र में उपलब्ध अपने सब संसाधनों को शीला के साथ खड़ा करके लगभग गुटबाजी को विराम दे दिया है। हालांकि टिकट बंटबारे के समय यह गुटबाजी उभर भी सकती है। दूसरे, नारायण दत्त तिवारी के बाद उप्र में कांग्रेस का जो अध्याय खत्म हो गया था, उसका अगला अध्याय लिखने की जवाबदेही शीला को सौंप दी है। शीला को आगे लाकर सोनिया गांधी ने पारिवारिक स्तर पर अपने बेटे-बेटी का बचाव भी किया है। राहुल की आगुआई में पिछले आमचुनाव के अनुभवों को परख लिया है ? लिहाजा बेटी प्रियंका अब उनके पास राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने की उम्मीद की अंतिम किरण हैं। यह प्रयोग इसलिए भी किया गया है जिससे कांग्रेस यदि उत्तर प्रदेश का मैदान नहीं जीत पाती है, तब भी उनके पास 2019 के आमचुनाव की बड़ी चुनौती पेश आनी हैं। तब शायद विश्वव्यापी हुए मोदी की चुनौती के लिए सीधे प्रियंका को उतारा जाए ? इस चुनाव में चेहरा भले ही शीला दीक्षित है, लेकिन यह तय है कि पर्दे के पीछे बागडोर सोनिया, राहुल और प्रियंका ही थामे रहेंगे। इस सब के बावजूद नरेंद्र मोदी ने अमित शाह के साथ मिलकर केंद्रीय मंत्रिमण्डल में फेरबदल करके जो चुनावी बिसात बिछाई है, उसे भेदना मुश्किल ही है। क्योंकि इनमें हर उस नेता को प्रधानता दी है, जिसकी अपनी जाति पर पकड़ पुख्ता है। भाजपा के इस जातीय आधार पर हुए फेरबदल का सामना सपा और बसपा को भी करना मुश्किल होगा। कांग्रेस के साथ अभी भी दिक्कत यह है कि उसके पास कोई दो बड़े जातीय समूह नहीं हैं। लिहाजा ब्राह्मणों के साथ जब तक दलित या मुस्लिमों का तालमेल नहीं बैठता, तब तक कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में जीत बीरबल की खिचड़ी ही साबित होती रहेगी। हालांकि कांग्रेस ने मतदाताओं को अपने पाले में लाने का बड़ा दांव चल दिया है। लेकिन सब जानते है कि लोकतंत्र में असली दांव तो जाति से बेरंग मतदाता ही खेलता है।

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