गोरी हुकूमत को खुली चुनौती थी काकोरी कांड

kakori-kandक़ाकोरी कांड विशेष -9 अगस्त

स्वतंत्रता आंदोलन का बहुचर्चित काकोरी कांड जिसने ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला कर रख दी थी। वह काकोरी कांड 9 अगस्त 1947 को काकोरी स्टेशन पर हुआ था किन्तु यदि हमारे क्रांति पुरोधाओं को पहुँचने में देरी न हुई होती तो इस कांड को 8 अगस्त 1947 को ही अंजाम दे दिया गया होता और तब शायद जगह भी काकोरी न होकर लखनऊ रही होती ,किन्तु किसी कारण वश क्रांतिकारी दल को स्टेशन पहुँचने में 10 मिनट की देरी हो गयी ,जिसकी वजह से इस कांड को भी इतिहास के पन्नों में एक दिन देरी से जगह भी मिली ।
कांड भले ही एक दिन देरी से हुआ हो किन्तु इस कांड ने हिंदुस्तान में क्रांति की एक ऐसी ज्वाला फूंक दी जिसकी लपटें लंदन तक पहुँची थी । जलियांबाला बाग़ हत्याकांड के विरोध में गाँधी द्वारा चलाये गए असहयोग आंदोलन को अचानक से वापस ले लिया गया । क्रांतिकारी नौजवानों को यह नागवांरा गुजरा और देश में फिर से क्रांतिकारी आंदोलन चल निकला । उत्तर भारत में शचीन्द्रनाथ सान्याल और योगेश चटर्जी द्वारा हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन की 1924 में कानपुर में गठन किया । इसका लक्ष्य रखा गया – “संगठित क्रांति द्वारा भारत में गणतांत्रिक संघ की स्थापना रुसी क्रांति का प्रभाव संगठन की कल्पना पर था ।” पार्टी में क्रांतिकारियों की भर्ती की जाने लगी और पार्टी की तरफ से जगह -जगह जनता को जगाने के लिए सभाएं व पर्चे बाटें जाने लगें । लेकिन पार्टी को अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिये धन की आवश्यकता होती थी । संगठन फैलाना और उसे प्रभावकारी बनाना दोनों के लिए ज्यादा पैसों की जरूरत थी। संघ के पास न तो अपना कोई कोष था और न खुले आम चंदा इकठ्ठा करने की उनकी स्थिति थी । पं ० रामप्रसाद बिस्मिल ने तब की दशा का वर्णन करते हुए लिखा है- “समिति की बड़ी दुर्दशा थी । चने मिलना भी कठिन था । कुछ समझ नहीं आता था । कोमलहृदय नवयुवक मेरे चारों ओर बैठकर कहा करते थे-पंडित जी ,अब क्या करें? मैं रो पड़ता था । एक कुर्ता-धोती साबुत नहीं थी । लंगोट बांध कर रह रहे थे लोग।” तब क्रांतिकारियों ने डकैती का कार्यक्रम शुरू किया । पार्टी के सदस्यों को सख्त हिदायत थी कि वे केवल सरकारी संपत्ति या बैंक पर ही डकैती डालेंगे।
बस यही से काकोरी कांड का बीजा रोपण हुआ और तमाम बहस-मुबाहसे के बाद यह तय हुआ कि ट्रेन के खजाने को लूटा जाये । लेकिन अशफाक उल्ला खां ने इस बात का कड़ा विरोध करते हुए तर्क इससे हम ब्रिटिश हुकूमत को खुली चुनौतीतो दे देगें और इससे हमारी पार्टी जल्द ही कमजोर पड़ के खत्म हो जायेगी । उन्होंने साफ़ -साफ़ कह दिया कि अभी पार्टी बहुत कमजोर है और इसको अभी अंदर ही अंदर अपना निर्माण करना चाहिये । चूकिं पंडित जी पार्टी के इस मत के पूरी तरह पक्ष में थे ,इसलिये अशफाक की चेतावनी अरण्यरोदय साबित हुई । उसके बाद कई योजनायें बनी और यह भी कहा गया कि गाड़ी को किसी छोटे स्टेशन पर रोक के खजाना लूट लिया जाये और गार्ड व स्टेशन मास्टर को पकड़ लिया जाये और यदि वह गोर हुए तो उनको वहीं पर मार दिया जाये किन्तु पंडित जी इस बात का विरोध किया और कहा कि डकैती के दौरान किसी यात्री व कर्मचारी को नुकसान नहीं पहुँचाया जायेगा । अंत में यह स्पष्ट हुआ कि किया प्रतिदिन आठ नंबर डाउन गाड़ी सहारनपुर पेसेंजर जो स्टेशनों का खजाना लेके जाती है उसको लूटा जायेगा और फिर डकैती का दिन व समय निश्चित हुआ । इस घटना के लिये पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के नेतत्व में अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा तथा बनवारी लाल, राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ बख्शी तथा केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), चन्द्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवं मुकुन्दी लाल समेत दस लोगों का दल नियुक्त किया गया ।
इस घटना को अंजाम देने के लिए 10 क्रांतिकारियों का जत्था अलग -अलग स्थानों से लखनऊ में इकठ्ठा हुआ । अगले दिन 8 अगस्त 1925 को तय समय पर सब लोग लखनऊ स्टेशन पहुँचे और वहां से घटना को अन्जाम देने के पैदल स्टेशन से पश्चिम को चल पड़े लेकिन अभी वह सब स्टेशन से सिग्नल तक ही पहुँच पाए थे कि उनको गाड़ी आते हुए दिखाई दी सब एक दम भौचक्के रह गए और वह गाड़ी उनको सामने से निकल गई जिसमे वे डकैती डालने वाले थे । पूछताछ करने से पता लगा कि उनको दस मिनट देर हो गई जिसकी वजह से वह उस दिन इस घटना को अंजाम नहीं दे सके और वापस लौटने के आलावा उनके पास और कोई चारा न था ।
फिर अगले दिन 9 अगस्त 1925 को सब लोग दोपहर में पश्चिम को जाने वाली गाड़ी में सवार हुए और काकोरी स्टेशन पर उतर कर ट्रेन का इंतजार करने लगे शाम को 6 बजे क़ाकोरी स्टेशन पर आठ नंबर डाउन गाड़ी सहारनपुर पेसेंजर ट्रेन आई जिसमे अंग्रेजी खजाना दिल्ली से लखनऊ ले जाया जा रहा था । तीन लोग अशफाक उल्ला खाँ , राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ सामान्य डिब्बे का टिकट लेकर गाडी में सवार हो लिए और बाकी सात लोग रामप्रसाद बिस्मिल , मुरारी शर्मा तथा बनवारी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), चन्द्रशेखर आजाद मन्मथनाथ गुप्त एवं मुकुन्दी लाल सारी ट्रेन में अलग -अलग बंटकर बैठ गए । जैसे ही ट्रेन आगे बढी़, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींची, अशफ़ाक़ ने ड्राइवर की कनपटी पर माउजर रखकर उसे अपने कब्जे में लिया और राम प्रसाद बिस्मिल ने गार्ड को जमीन पर औंधे मुँह लिटाते हुए खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। उस खजाने को लूटने के लिए क्रांतिकारिओ ने काकोरी रेलवे स्टेशन पर गाडी को रोक लिया और अँधाधुंध फायरिंग करने लगे। इनका उददेश्य सिर्फ खजाना ही लूटना था । किसी भी यात्री को नुकसान पहुँचना नहीं था ,संदूक को उतार लिया गया । पहरे पर खड़े क्रांतिकारी गोलियां चलते रहे ताकि यात्रियों पर काबू रहे और बाकी साथी संदूक तोड़ने में जुट गए । संदूक तोडना आसान न था । दस मिनट की कड़ी मशकत के बाद संदूक में इतना छेद हो सका कि उससे थैलियां बाहर निकली जा सकी । सबकी एक गठरी बनायी गई । बिस्मिल ने लखनऊ पहुंचकर सारा धन कहीं छिपा दिया और सभी लोग बिखर गए । सुबह का अखबार इसी खबर से भरा था। बिस्मिल जानते थे कि समय कम है । अतः उन्होंने पहले दल के कर्जे चुकाये ,फिर प्रांतीय समितियों को धन भेजा ,फिर नये कार्यक्रम बने । एक बार उत्साह की लहर दौड़ गई । लेकिन स्थितियां हाथ से निकलती गई । दल में आपसी मतभेद हो गये और सरकारी फंदा कसता गया । सबसे पहले राम प्रसाद बिस्मिल को गिरफ्तार हुये फिर एक -एक कर सबको गिरफ्तार कर लिया गया । 19 महीने तक इस केस का मुकदमा चला ।
19 महीने चले मुकदमे के बाद जो होना था वही हुआ ;भारत माँ के वीर सपूतों अशफाक उल्ला खां ,पं०राम प्रसाद बिस्मिल ,ठाकुर रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी को 6 अप्रैल 1927 को फांसी की सजा सुनाई गई | फिर 19 दिसम्बर 1927 को वह दिन आ गया,जब भारत माता के ये लाल हँसते –हँसते फांसी पर झूल गये | इस डकैती का अंजाम भले ही क्रांतिकारियों का दमन रहा हो लेकिन इस कांड ने पूरे देश आजादी की वह ज्वाला फूंकीं थी जिसके परिणाम स्वरुप 22 साल बाद गोरी हुकूमत भारत छोड़ने को मजबूर हो गई ।

पुष्पेन्द्र दीक्षित

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