वैचारिक खेमेबाजी और मोर्चे पर संघ परिवार

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modiउमेश चतुर्वेदी

कामकाज और गुणदोष के आधार पर सरकारों की आलोचना से कोई भी लोकतांत्रिक समाज इनकार नहीं कर सकता । स्वस्थ आलोचना सरकारों की नीयत को नियंत्रित करने का लोकतांत्रिक तरीका होती हैं। लेकिन केंद्र में शपथ लेने के बाद से ही जिस तरह नरेंद्र मोदी सरकार आलोचकों के तीखे निशाने पर है, क्या उसे स्वस्थ आलोचना कहा जा सकता है। यह सवाल सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक परिवार वाले संगठनों में उठ रहा है, बल्कि तटस्थ लोगों का एक तबका भी इन आलोचनाओं को संदेह की नजर से देखने लगा है। संदेह के इस घेरे को बढ़ाने में अगर भारतीय जनता पार्टी और उससे जुड़े संगठन कोशिश कर रहे हैं तो इसके लिए उन्हें भी दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। हालांकि सोशल मीडिया के दैत्याकार मंचों पर इसे भी गैरवाजिब ठहराया जा रहा है। सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर जिस तरह आरोपों और प्रत्यारोपों की तलवारें निकल रही हैं, उनका मकसद विरोधी विचारधारा का प्रतिकार नहीं, संहार है। ऐसा नहीं कि यह युद्ध एक तरफा है। मोर्चे पर पक्ष भी है तो विपक्ष भी और उनके वैचारिक तलवारें तेज धार ही नहीं, वैचारिक कलुष के विष से भी भरी हुई हैं। अव्वल तो दुश्मनी की हद तक फैली वैचारिक लड़ाई को लेकर भी सवाल उठने चाहिए।

बेशक भारतीय जनता पार्टी अपने दम पर केंद्र की सरकार चला रही है। लेकिन इसके पहले भी वह देश की राजनीतिक धड़कन रही है। राज्यों में भी उसकी सरकारें रहीं हैं। 1962  के आम चुनावों में हार के बाद डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने जिस गैर कांग्रेसवाद का सिद्धांत गढ़ा, उसका एक बड़ा हिस्सा भारतीय जनता पार्टी का पूर्ववर्ती संगठन जनसंघ रहा है। इस नाते देखें तो समाजवादी खेमा पहले से ही भारतीय जनता पार्टी का सहयोगी रहा है। 1989 में इसी गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत के वैचारिक आधार पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई वाले जनता दल की केंद्र सरकार को दाहिने से भारतीय जनता पार्टी तो बाएं से वामपंथी दलों ने साथ दिया था। यह बहुत पुराना इतिहास नहीं है। जब राजनीति में एक-दूसरे के साथ इतना सहयोगी रिश्ता रहा हो तो वामपंथी और राष्ट्रवादी खेमे के बीच विषबुझी वैचारिक तलवारें चलने का कोई तुक ही नहीं होना चाहिए। लेकिन मौजूदा दौर में वैचारिकता पूरी तरह दो खांचे में बंटी नजर आ रही है। आलोचनाओं के खेल में भारतीय परंपरा और संस्कृति की बात भी दकियानूसी माने जाने लगी है। इसे लेकर भी भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार निशाने पर है। यहां पर डॉक्टर राममनोहर लोहिया के वैचारिक शिष्य और आधुनिक भारतीय समाजवाद के गहरे विचार किशन पटनायक की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं। अयोध्या और उससे आगे नामक अपने निबंध में उन्होंने लिखा है- “यूरोप के बुद्धिजीवी.. खासकर विश्वविद्यालयों से संबंधित बुद्धिजीवी का हमेशा यह रूख रहा है कि गैर यूरोपीय जनसमूहों के लोग अपना कोई स्वतंत्र ज्ञान विकसित ना करें। विभिन्न क्षेत्रों में चल रही अपनी पारंपरिक प्रणालियों को संजीवित न करें, संवर्धित न करें। आश्चर्य की बात यह है कि कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों का भी यह रूख रहा, बल्कि अधिक रहा।” तो क्या यह मान लें कि मौजूदा विरोध भी इसी विचारधारा से प्रेरित है। यहां यह बता देना प्रासंगिक है कि इन दिनों नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े विरोधी के तौर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उभरे हैं और वे शुरूआती दौर में इन्हीं किशन पटनायक के शिष्य रहे हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक परिवार पर बौद्धिक हमला करने का कोई मौका विरोधी खेमा नहीं चूकता। तब विरोधी खेमे संघ के वैचारिक परिवार के पास अपना बौद्धिक ना होने को लेकर उपहास भी उड़ाते रहे हैं। राष्ट्रवादी खेमा और भारतीय जनता पार्टी अव्वल तो पहले इस आरोपों को तवज्जो ही नहीं देते रहे हैं। उन्हें अपनी ही सोच और वैचारिक धारा पर ठोस भरोसा रहा है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आरोप लगाने और उपहास उड़ाने वाला खेमा भी अतिवादी सोच से प्रभावित रहा है तो उसे महत्व ना देने वाले लोग भी सही नहीं रहे। संघ के वैचारिक परिवार पर आरोप रहा है कि वह परंपरावादी है और धर्म, संस्कृति आदि पुरातन रूढ़ियों को अहमियत देता है। आधुनिकता की अवधारणा इन चीजों को ना सिर्फ दकियानूसी मानती है, बल्कि उसे प्रगति और विकास में बाधक मानती रही है। एक हद तक ऐसा हो भी सकता है। क्योंकि पांच हजार साल पुराने विचार जरूरी नहीं कि मौजूदा हालात में भी प्रासंगिक हों। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि उन्हें सिरे से खारिज कर दिया जाय, बल्कि उनका परिष्कार भी होना चाहिए। लेकिन एक समाजवादी धारा के विचारक की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए। “धर्म, संस्कृति, भाषा, राष्ट्र और गांव – ये अलग-अलग उद्देश्यों के लिए अलग-अलग भावनात्मक इकाइयां हैं। इन मिथकों की आवश्यकता सामान्य जन और बुद्धिजीवी दोनों के लिए समान मात्रा में है। ऐसा नहीं कि बुद्धिजीवी के लिए इनकी जरूरत नहीं है। अगर इन मिथकों का नियंत्रण बुद्धिजीवी पर नहीं रहेगा, तो वह मानव समाज के लिए विध्वंसक हो जाएगा, राष्ट्र के विश्वासघातक हो जाएगा। वह अपनी बुद्धि को भाड़े पर लगा देगा। तीसरी दुनिया के देशों में जहां राष्ट्रीय भावना की कमी हो रही है, ऐसा ही हो रहा है। बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि भाड़े पर लगा रहा है।”

करीब बीस साल पहले लिखी गईं इन पंक्तियों पर ध्यान दें। क्या आज भारतीय संदर्भों में ऐसा होता नजर नहीं आ रहा। ये पंक्तियां भी किसी संघ स्वयंसेवक, विचारक या भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता की लिखी नहीं है। ये पंक्तियां भी किशन पटनायक की ही लिखी हैं।

भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती संगठन जनसंघ के महासचिव दीनदयाल उपाध्याय भी कम बड़े चिंतक नहीं रहे। अगर वे मौलिक चिंतक नहीं होते तो साठ के दशक के विद्रोही लोहिया उनकी वैचारिकता के आग्रही नहीं होते और फिर 1967 में भारतीय राजनीति का इतिहास नहीं बदलता। जब नौ राज्यों में कांग्रेस की हार हो गई और उसे आजाद भारत के इतिहास में पहली बार इन राज्यों में खुद को विपक्षी दर्जे से संतुष्ट करना पड़ा था। हमें याद रखना चाहिए कि इस संयोग के पीछे कहीं न कहीं भारतीय संसद से होती हुई सड़कों पर चर्चित हो चुकी चार आना बनाम पच्चीस हजार की बहस भी थी। तब आम भारतीय बमुश्किल चार आने भी नहीं रोजाना खर्च कर पाता था, क्योंकि तब उसकी इतनी भी हैसियत नहीं थी। जबकि प्रधानमंत्री का रोजाना का खर्च पच्चीस हजार रूपए थे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वैचारिक परिवार वाले संगठनों पर बड़ा आरोप यह रहा है कि उसके पास बौद्धिक लोग नहीं हैं। नरेंद्र मोदी के उभार, केंद्र की सत्ता में उनकी मजबूत पकड़ और कई मोर्चों पर लीक से हटकर शासन चलाने की उनकी कोशिशों के बाद संघ का पूरा वैचारिक परिवार ही निशाने पर है। लेकिन उसकी तरफ से जो वैचारिक और बौद्धिक जवाब मिलना चाहिए, वैसा नहीं हो पा रहा है। असहिष्णुता और गोरक्षा को लेकर जिस तरह हमले हुए, उसका संघ का वैचारिक परिवार तार्किक जवाब नहीं दे पाया। हां, सम्मान वापसी के पीछे के छद्म को एक हद तक तार्किक तरीके से जरूर उभारा गया। बहरहाल संघ का वैचारिक परिवार भी मानने लगा है कि उसके पास वैचारिकों और बौद्धिकों का ऐसा हरावल दस्ता जरूर होना चाहिए, जो पारंपरिक भारतीय मूल्यों से लैस हो, जिसकी सोच प्रगतिकामी और विकासशील हो। इसलिए वह जगह-जगह बौद्धिकों को जोड़ने और उन्हें समझाने का प्रयास भी कर रहा है। अव्वल तो बौद्धिकता समाज सापेक्ष होनी चाहिए। उसके केंद्र में आम आदमी का हित होना चाहिए। लेकिन जिस तरह खांचे में पूरा भारतीय बौद्धिक समाज बंटा हुआ है, उसमें ये मूल्य पीछे चले गए हैं। ऐसे में वैचारिक और बौद्धिक हरावल दस्तों से मानवीय मूल्य की उम्मीद पालना भी फिलहाल बेमानी ही है। लेकिन यह भी सच है कि वैचारिक क्रियाओं की तार्किक प्रतिक्रिया होगी, तो तय मानिए बदलाव जरूर आएगा। शायद यही सोचकर संघ के वैचारिक परिवार के संगठन भी अपनी बौद्धिक तलवार की तार्किक धार तेज कर रहे हैं।

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