ऋषि दयानन्द ने वेदों का उद्धार और प्रचार कर देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा सहित विश्व का कल्याण किया

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dayanandमनमोहन कुमार आर्य
महर्षि दयानन्द ने एक पौराणिक सनातनी परिवार में जन्म लेकर महामानव अर्थात् ऋषि व महर्षि बनने का एक महान जीवन यज्ञ रचाया और सफलता प्राप्त कर अपने विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा की प्रेरणा से अनार्ष ज्ञान व परम्पराओं का खण्डन करने के साथ मानव मात्र के लिए हितकारी, कल्याणकारी व लाभकारी वैदिक सर्वजनहितकारी परम्पराओं को प्रचलित किया। स्वामी दयानन्द जी का वेदों सहित वेदानुकुल सभी शास्त्रों का ज्ञान ऐसा है जिस का पालन कर संसार के अधिक से अधिक लोग सुखी व सन्तोषजनक जीवन व्यतीत कर सकते हैं व दुःखों पर विजय पाकर मनुष्य जीवन के दो प्रमुख लक्ष्यों इहलौकिक व पारलौकिक उन्नति को प्राप्त कर सकते हैं। उनकी एक बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने केवल मौखिक उपदेश ही नहीं दिए अपितु अपने वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं के प्रकाशक सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि एवं आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों की पूर्ण निष्पक्ष भाव से रचना कर वह इस ईश्वरीय सृष्टि के सभी मनुष्यों को दे गये हैं जो आज भी लाखों व करोड़ो मनुष्यों का पथ प्रदर्शित कर रहे हैं। उनका ज्ञान व विद्या तो संसार के सभी मनुष्यों के लिए उपलब्ध है परन्तु बहुत से अज्ञानी लोग अपने वास्तविक हित को न जान कर स्वार्थ व लोभ आदि में फंसे हुए इसका लाभ नहीं ले सके या ले रहे हैं। इसका प्रमुख कारण है कि उन्हें मत-मतान्तरों के चालाक स्वार्थी लोगों ने बहला-फुसला रखा है जिस कारण वह वैदिक अमृत का पान करने से वंचित हैं।

संसार में सबसे उत्तम व महत्वपूर्ण वस्तु जो मनुष्यों के लिए सर्वाधिक हितकारी व लाभकारी है, वह सद्ज्ञान से इतर अन्य कोई नहीं है। महर्षि दयानन्द ने इसी सर्वोत्तम वस्तु ‘‘सत्य आध्यात्मिक व सांसारिक ज्ञान” की खोज कर विश्व को प्रदान की है। भारत के कुछ विज्ञ व निःस्वार्थ प्रकृति के लोगों ने इसका लाभ उठाया और वह इससे पूर्ण सन्तुष्ट व अनुग्रहित हैं। वेद एवं वैदिक साहित्य मनुष्य जीवन को सृष्टिकर्ता ईश्वर की आज्ञा व इच्छानुसार व्यतीत कर इहलौकिक व पारलौकिक उन्नति अर्थात् अभ्युदय व निःश्रेयस प्राप्त कराने का एकमा़त्र सरल व सफलता प्रदान करने वाला साधन है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी इन दोनों उन्नतियों को प्राप्त करना ही है। एंकागी सांसारिक व भौतिक उन्नति, उन्नति नहीं अपितु यह एक प्रकार से मनुष्य के लिए अभिशाप है। इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक उन्नति की उपेक्षा की कीमत सभी मनुष्यों को जन्म जन्मान्तरों में ईश्वर की आदर्श कर्म-फल व्यवस्था के अनुसार चुकानी पड़ती है। वह लोग धन्य हैं जो भौतिक उन्नति को अपना सर्वस्व व सर्वोपरि न मानकर आध्यात्मिक उन्नति को अधिक महत्व देते हैं। अध्ययन से प्राप्त ज्ञान से हमें यह स्पष्ट लगता है कि आवश्यकतानुसार धन व भौतिक साधनों से युक्त सन्तुलित आध्यात्मिक व वैदिक मूल्य प्रधान जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है जिसका प्रचार महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश आदि अपने अनेक ग्रन्थों में किया है। हमारे सम्मुख अनेक महापुरुष हैं जिन्होंने महर्षि दयानन्द की विचारधारा व सिद्धान्तों को अपनाया और त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत कर समाज में एक अनुकरणीय प्रेरणादायक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसे लोगों में हम स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम आर्यमुसाफिर, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, पं. गणपति शर्मा, महात्मा कालूराम जी, महात्मा नारायण स्वामी, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि को सम्मिलित कर सकते हैं जिनकी कीर्ति आज अनेकों वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी बनी हुई है। ऐसे बहुत से लोग हुए हैं जिन्होंने करोड़ो-अरबों रुपये व इससे कहीं अधिक धन कमाया, उद्योग व अन्य प्रकार के व्यवसायों के द्वारा प्रभूत भौतिक उन्नति की परन्तु आज दिवंगत व जीवित होने पर भी विद्वानों में उन्हें कोई स्मरण कर उनके प्रति नतमस्तक नहीं होता। इसी से अनुमान लगता है कि महर्षि दयानन्द और उनके अनुयायी विद्वान महात्माओं का जीवन दर्शन ही अनुकरणीय एवं आचरणीय है जो मनुष्यों को अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त कराता है।

जीवन पद्धति में यौगिक जीवन प्रणाली का विशेष महत्व है जिसमें योगासनों, प्राणायाम और ध्यान आदि क्रियाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। महर्षि दयानन्द ने वेद और वेदानुकूल शास्त्रों एवं मान्यताओं का प्रचार किया था। महर्षि पतंजलि के योदर्शन को वेदों का उपांग होने का सौभाग्य प्राप्त है। महर्षि दयानन्द जी का अपना जीवन योगदर्शन का ही साक्षात रूप था। योग के आठ अंगों का वह पूरा पूरा पालन करते थे और इसी से उन्हें वेदों के गुप्त रहस्यों को जानने की क्षमता व योग्यता प्राप्त हुई थी। उनको जो ऋषित्व अर्थात् सद-असद-विवेक प्राप्त हुआ, उसका आधार उनका शास्त्रीय अध्ययन सहित योगाभ्यास व योगमय जीवन ही है। महर्षि दयानन्द समाधि सिद्ध योगी थे। जीवन के अन्तिम समय में उनको विष दिया गया जिसके कारण उनका सारा शरीर असाध्य रोग से प्रसित हुआ। विष के प्रभाव व उससे उत्पन्न अनेक रोगों की असह्य पीड़ा को उन्होंने अपने योगबल और ईश्वरसिद्धि वा ईश्वर-साक्षात्कार से प्राप्त शक्तिययों के द्वारा सहन किया और संसार के सामने एक आदर्श उपस्थित किया। उनकी मृत्यु अर्थात् देह त्याग की घटना एक आदर्श घटना बनी गई जिसकी उपमा में हमारे सम्मुख किसी पूर्व व पश्चात के महापुरुष का उदाहरण नहीं है। उन्होंने जो जीवन व्यतीत किया, वह उन्हें जन्म व मरण से मुक्त कराकर मोक्ष प्रदान कराने वाला था जिसकी चर्चा वह यदा कदा करते रहते थे और मोक्ष प्राप्ति में बाधक कोई कार्य कभी नहीं करते थे। इस कारण उनका दीपावली सन् 1883 को मृत्यु व बलिदान के बाद मोक्ष प्राप्त करना प्रायः निश्चित है। उनके सभी प्रमुख अनुयायियों ने भी उनके जीवन का ही अनुकरण कर अपने अपने जीवन को मोक्षगामी बनाया व अनुमानतः कुछ अनुयायी मोक्ष को प्राप्त हुए भी होंगे, ऐसा सम्भव है। अतः सभी मनुष्यों के लिए ऋषि दयानन्द जी का जीवन ही आदर्श व अनुकरणीय है। इसी का संकल्प हमें उनके बलिदान दिवस पर लेना समीचीन है।

महर्षि दयानन्द जी के जीवन का अध्ययन कर अध्येता को वेदाध्ययन करने व वेदानुकूल जीवन व्यतीत करने की ही प्रेरणा मिलती है। उनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य को प्रातः 4:00 बजे शय्या का त्याग कर देना चाहिये। शौच, वायुसेवन व आसन-प्राणायाम आदि से निवृत होकर सन्ध्या व अग्निहोत्र करना चाहिये। प्रातः व सायं सुविधानुसार ऋषि रचित ग्रन्थों सहित वेदों का अध्ययन वा स्वाध्याय करना चाहिये। जीवन में हर समय वैदिक मान्यताओं का पालन करते हुए सत्याचार व कर्तव्यों का पालन करना चाहिये। धनोपार्जनार्थ व्यवसायिक कार्यों से निवृत होकर सायंकाल सन्ध्या, हवन व स्वाध्याय सहित अन्य दैनन्दिन कार्यों को सम्पन्न करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य की शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक व आत्मिक उन्नति होती है जो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त करने में सहायक होती है। वेदानुकूल जीवन से उत्तरोत्तर उन्नति होती है और ज्ञान व अनुभवों में वृद्धि होती है। ऐसा जीवन ही श्रेष्ठ व वरणीय है।

एक प्रश्न यह है कि क्या आप ऋषि के अनुयायी वा आर्यसमाजी हैं? यदि हैं तो आप अवश्य संन्ध्या व हवन करते होंगे और नित्य स्वाध्याय भी करते होंगे। हमें लगता है कि योगदर्शन में भी यम व नियमों के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य, तप, ईश्वर प्रणिधान व ध्यान में सन्ध्या व हवन भी निहित है। वेदाध्ययन करने से सन्ध्या व यज्ञ मनुष्य के कर्तव्य निर्धारित होते हैं जो स्वाध्याय के अन्तर्गत है। स्वाध्याय का तो पांच नियमों में स्पष्ट विधान है ही। अतः हमें लगता है कि सभी मनुष्यों को चाहे वह आर्यसमाजी न भी हो तो भी सन्ध्या, हवन व स्वाध्याय तो अवश्य ही करना चाहिये। जीवन में सत्यार्थप्रकाश जितना शीघ्र हो सके, आद्योपान्त पढ़ना चाहिये। यदि पढ़ लिया हो तो दूसरी व तीसरी बार पढ़ना चाहिये, इससे अवश्य लाभ होगा। अन्य ग्रन्थों का भी अध्ययन व अवलोकन करना लाभदायक है। ऐसा करने से भी ज्ञान वृद्धि होकर जीवन शुद्ध व पवित्र बनता है। सत्यार्थप्रकाश और ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थ मनुष्यों को वेदों का ज्ञान कराते हैं जो अन्यथा सम्भव नहीं है। इस अध्ययन व जीवनचर्या से मनुष्य मिथ्या पूजा-पाठ व कर्मकाण्डों से बच जाते हैं। समय व धन की बचत होने के साथ आध्यात्मिक उन्नति निश्चय ही होती है। अतः वेदों की शरण में आने के लिए वेदाध्ययन हेतु ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन अवश्य करें, यही ऋजु व ईश्वर तक पहुंचने का सुगम व सरल मार्ग है।

महर्षि दयानन्द जी का आत्मोसर्ग वा बलिदान दीपावली के दिन हुआ था। उनका मूल्यांकन करते हुए इस प्रश्न पर भी विचार करना चाहिये कि यदि वह न आये होते और जो कार्य उन्होंने किया है, वह न किया होता तो देश और समाज की क्या स्थिति होती? पहला उत्तर तो यह है कि उन्होंने वेदों का उद्धार किया, वह कदापि न होता। वेदों का उद्धार न होता तो देश अन्धविश्वास, अविद्या, रूढ़िवाद और पाखण्डों से बाहर न निकलता और अंग्रेजों व अन्यों की गुलामी भी समाप्त न हुई होती। अविद्या का नाश ऋषि दयानन्द का उद्देश्य व लक्ष्य था और विद्या की उन्नति उन्हें अभीष्ट थी। यह लक्ष्य पूरा भले ही न हुआ हो, इसमें प्रगति तो हुई ही है। इसका श्रेय भी महर्षि दयानन्द जी को है। उनके आने से पूर्व हिन्दुओं का अपनी अज्ञानता व ईसाई व मुस्लिमों द्वारा प्रलोभन व भय आदि से धर्मान्तरण किया जाता था। सदियों से यह क्रम चल रहा था जिससे हिन्दुओं की संख्या घट रही थी और विधर्मियों की संख्या बढ़ रही थी। ऋषि दयानन्द जी द्वारा सभी मतों की अविद्या, अन्धविश्वासों व पाखण्डों का खण्डन करने और वेदों व सत्य वैदिक मान्यताओं का प्रचार करने से धर्मान्तरण पर रोक लगी। हिन्दुओं का धर्मान्तरण समाप्त तो न हो सका परन्तु कम बहुत हुआ। ऋषि दयानन्द द्वारा सप्रमाण स्त्री व शूद्रों को शिक्षा सहित वेदाध्ययन का अधिकार भी दिया गया। प्राचीन भारतीय वैदिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा का गुरुकुलों व दयानन्द ऐंग्लो-वैदिक स्कूल व कालेजों की स्थापना होने से प्रायः देश भर में प्रचार हुआ। सामाजिक असमानता दूर व कम हुई। अस्पर्शयता व छुआछूत समाप्त होकर समाज में एकरूपता व समरसता का संचार हुआ। वर्तमान के अन्तर्जातीय विवाहों को वैचारिक और शास्त्रीय आधार मिला जिससे आज का समाज कई दृष्टियों से आधुनिक बना। हिन्दु समाज में प्रचलित मिथ्या परम्पराओं व रूढ़िवाद की अप्रासंगिकता से भी सभी विज्ञ लोग परिचित हुए। बेमेल विवाह बन्द हुए और विधवाओं के विवाह को भी तार्किक आधार व बल मिला।

महर्षि दयानन्द ने जो कार्य किया उसका प्रभाव हिन्दू पौराणिक सनातनी विचारधारा के अनुयायियों पर सर्वाधिक पड़ा, वहीं उनके ज्ञान व प्रचार से विश्व स्तर पर अन्य धर्मों व मतों के लोग भी लाभान्वित हुए। उनकी आलोचनाओं के परिप्रेक्ष्य में सभी ने अपने धर्म ग्रन्थों का पर्यावलोचन कर उसे तर्क की तुला पर स्थिर करने के प्रयत्न किये। यह बात अलग है कि वह इसमें पूर्णतः सफल नहीं हो सके। आज भी उनमें सुधार की आवश्यकता है। बहुत से अन्य मतों व धर्मों के विद्वान व विज्ञ लोगों ने स्वेच्छा से वैदिक धर्म को स्वीकार कर उसकी सार्वभौमिकता को भी सिद्ध किया। स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रयासों से बहुत से धर्मान्तरित लोगों ने पुनः वेदों की शरण ग्रहण की। आज वेद समस्त विश्व में ज्ञान की प्रथम पुस्तक व धर्म ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वेदों की भाषा संस्कृत को विश्व की श्रेष्ठतम, प्राचीनतम व सबसे अधिक वैज्ञानिक होने का दर्जा प्राप्त है। यह सब भी महर्षि दयानन्द जी की देने हैं। अतः महर्षि दयानन्द का योगदान महाभारत के बाद हुए सभी महापुरुषों में सर्वाधिक है। उन्हें सश्रद्ध नमन कर लेख को विराम देते हैं।

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