लार्ड मैकाले का तर्पण

डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
maucaulay
इंडिया के कलेंडर में सितम्बर के महीने का अति पवित्र स्थान है। इस महीने में हम दो ऐसे पुण्य स्मरण इतने अधिक कर लेते हैं कि फिर उनकी याद करने की ज़रूरत साल भर नहीं पड़ती – टीचर्स डे और हिंदी डे। रस्मी तौर पर परम्पराओं को याद करना और फिर भूल जाना दोनों काम एक साथ हो जाते हैं वैसे ही जैसे शराबी कहता है,
” रात को खूब पी मय औ ‘ सुबह को तौबा कर ली ;
रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई । “
हमें भी दोनों लाभ एक साथ मिल जाते हैं। इस बार हमने पहले टीचर्स डे मनाया और टीचर्स को उनकी ड्यूटीज याद दिलाईं (जैसे, जनगणना करना, पशुगणना करना, सुबह पांच बजे उन स्थानों पर जाकर खड़े हो जाना जहाँ लोग खुले में शौच करने जाते हैं, और जब वे वहां शौच करें तो उनके फोटो खींचना आदि) । फिर हमने हिंदी डे मनाया । हिंदी वालों को बताया कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, साल में कम से कम एक बार उसे भी याद कर लिया कीजिए । गाँधी जी को तो यह इतनी प्यारी थी कि जब आजादी मिलना तय हो गया तब उन्होंने सन्देश दिया कि दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया । यह सुनकर नेहरू जी को बहुत चिन्ता हुई कि कहीं देशवासी भी अंग्रेजी ना भूल जाएँ । इसलिए उन्होंने दो काम किए : पहला, स्वतंत्रता के स्वागत में भाषण Tryst with Destiny अंग्रेजी में दिया, और दूसरा, संविधान में एक तरफ लिखा – हिंदी हमारी राजभाषा होगी (ताकि देशवासी हिंदी डे मना सकें), और दूसरी तरफ ऐसी व्यवस्था कर दी जिससे अनन्त काल तक अंग्रेजी को कोई छू ना सके ।

अगर आपके मन में यह प्रश्न उठे कि यह अंग्रेजी कहाँ से आई तो आपको याद दिला दें कि यों तो इसकी शुरुआत राजा राममोहन रॉय से होती है जिन्होंने संस्कृत पढ़ाने का विरोध करके अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी शिक्षा की मांग की, स्वयं भी उसके लिए स्कूल / कालेज खोले । इसीलिए उन्हें हम आधुनिक भारत का निर्माता कहते हैं । बाद में मैकाले नामक एक ऐसा महापुरुष इस देश में आया जिसने संस्कृत एवं सभी भारतीय भाषाओँ की जड़ों में मट्ठा डाल दिया और अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी शिक्षा का महल बनाने के लिए गहरी ज़मीन खोदकर उसकी नींव मज़बूत बना दी। अब यह महल इतना पायदार और इतना आकर्षक हो गया है कि कुछ लोगों ने प्रेरित होकर (बनकागाँव, जिला लखीमपुर खीरी में) “ अंग्रेजी देवी “ का मंदिर भी बना दिया है । देवी – देवताओं के दर्शन करने से जो पुण्य मिलता है, आप उससे परिचित ही हैं । अतः वहां जाइए और अपना जीवन सफल कीजिए ।
टीचर्स डे और हिंदी डे मनाते – मनाते आधा सितम्बर बीत गया, और अब पितृपक्ष शुरू हो गया जिसमें मृत पितरों का तर्पण किया जाता है । अब इस विवाद की याद मत दिलाइये कि तर्पण जीवित पितरों का करना चाहिए या मरे हुओं का ; लोग हमें इज्ज़त के साथ जिसकी “ मानसी संतान “( Macaulay’s Children ) कहकर संबोधित करते हैं उसका तर्पण हम क्यों न करें ? हम तो अंतर्मन से यह मानते हैं कि,
” मैकाले के उपकार जो हैं, नहीं गिने – गिनाए जाते हैं ; उनकी शिक्षा से ही तो हम अब रोज़ी – रोटी पाते हैं ।
मैकाले ने शादी नहीं की थी, अतः उनकी कोई अपनी ” बायोलोजिकल वैध संतान ” तो है ही नहीं जो उनका तर्पण करे , पर इससे कोई फरक नहीं पड़ता क्योंकि हमारी ही नहीं, पूरे विश्व की परंपरा में देख लीजिए, ” बायोलोजिकली वैध संतान ” से अधिक महत्व ” मानसी संतान ” को दिया गया है । महावीर स्वामी हों या गौतम बुद्ध, ईसा मसीह हों या मुहम्मद साहब, कबीर हों या नानक, आधुनिक युग के स्वामी दयानंद हों या स्वामी विवेकानंद – सभी अगर आज जीवित हैं तो अपनी मानसी संतान के कारण । बायोलोजिकल संतान को तो उत्तराधिकार में केवल रुपया – पैसा मिलता है, पर मानसी संतान को तो वह सब मिलता है जिसके कारण उस व्यक्ति का जीवन केवल घर के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए उपयोगी बना । देखा जाए तो मानसी – संतान से ही महापुरुषों का वास्तविक वंश चलता है । यह व्यवस्था हमारे ऋषि दे ही गए हैं कि संतानहीन गुरु का तर्पण उसके शिष्य करते हैं । फिर मैकाले की परम्परा वाले हमारे न जाने कितने गुरुओं की पीढ़ियाँ बीत गईं । इसलिए मैकाले तो हमारे लिए गुरुओं के गुरु यानी ” महागुरु ” हैं । वे जब यहाँ आए थे, तब तक अंग्रेजों ने भले ही उन्हें “ लॉर्ड “ न बनाया हो, पर हमारे लिए तो वे सदा ही लॉर्ड रहे । उनका तर्पण करने का हमें अधिकार भी है और यह हमारा कर्तव्य भी है । अतः मैं अपने मानस पिता का, उनके गुणों का और उनके उपकारों का श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहा हूँ । इस पुण्य – स्मरण में आप सहभागी बनकर बहती गंगा में हाथ धोना चाहें तो आपका स्वागत है ।
लार्ड मैकाले हमारे दो सौ साल पुराने ” पितर ” हैं। तब से अब तक कई पीढ़ियाँ हो गईं । इतने लम्बे समय बाद हम लोग बहुत सी बातें भूल गए होंगे, इसलिए सबसे पहले उनके जन्म आदि की बात कर ली जाए। अब से लगभग सात दशक पहले जब अपने इस मानस -पिता से मेरा पहला परिचय हुआ तो न जाने क्यों, मेरे उस समय के पितरों ने पूरा नाम बताने के बजाय ‘ टी. बी. मैकाले ‘ बताकर डरा-सा दिया । आप जानते ही हैं कि तब टी. बी. ‘ असाध्य रोग ‘ माना जाता था । अब आज की बात अलग है क्योंकि अब न वह रोग लाइलाज रहा, न उसका डर ; और अब तो जब अपने मानस – पिता का पूरा नाम ‘ Thomas Babington Macaulay ‘ मालूम हुआ, तो रहा-सहा डर भी जाता रहा । उनके पिता जाकरी मैकाले (Zachary Macaulay) मूलतः स्काट्लेंड के थे । सरकारी क्षेत्र में उनकी ऊंची पहुँच थी और वे वेस्ट इंडीज़, सिएरा लियन में विदेश सेवा में भी रहे । हमारे मानस पिता का जन्म अपने माता – पिता की सबसे बड़ी संतान के रूप में 25 अक्तूबर 1800 को (और देहांत 28 दिसंबर 1859 को) हुआ । उनकी दो बहनें थीं – हन्नाह (Hannah ) और मार्गरेट (Margaret ) जो उनसे 10 और 12 साल छोटी थीं । दोनों के संपन्न परिवारों में विवाह हुए ।
वे अपनी बहनों से और उनके परिवारों से बहुत प्यार करते थे। आज अपने इस पिता के बारे में हमारे पास जो अंतरंग जानकारी है, उसका बहुत कुछ भाग उन पत्रों में छिपा है जो उन्होंने अपनी बहनों को लिखे और बाद में जिनका संकलन उनके भांजे सर जार्ज ट्रेवेलियन (Sir George Otto Trevelyan) ने 1876 में The Life & Letters of Lord Macaulay नामक पुस्तक में किया । पढाई में हमारे पिता शुरू से ही तेज़ साबित हुए । उच्च शिक्षा के लिए ट्रिनिटी कालेज, कैम्ब्रिज गए । वहां पढ़ाई तो कानून की भी की, पर वकालत करने के बजाय उन्हें राजनीति अधिक भाई । मारिया नाम की एक लडकी से उन्होंने प्यार भी किया, पर बात शादी तक पहुँच नहीं पाई । तो फिर उन्होंने जीवन भर शादी की ही नहीं । वे टाई नहीं बांधते थे, संभव है इसीलिए उनकी शादी ना हुई हो ; पर बिना टाई बांधे ही वे 1830 में एडिनबरा से पहली बार मेंबर ऑफ़ पार्लियामेंट बन गए । पार्लियामेंट में आने पर उन्हें उस ” बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल “ का सचिव भी बनाया गया जो ईस्ट इंडिया कम्पनी के डाइरेक्टरों पर नियंत्रण रखने के लिए था ।
वे इस बोर्ड में 18 महीने रहे और इसी दौरान उन्होंने इंडिया के बारे में वह जानकारी प्राप्त कर ली जो आगे चलकर उनके बहुत काम आई । जैसे, यहाँ की जाति प्रथा, विभिन्न परम्पराएं, मान्यताएं, यहाँ के धर्म, तत्कालीन समाज में प्रचलित यहाँ के अंध – विश्वास ( इन्हें वे विशेष महत्व देते थे ; कहा ही गया है, ” दूसरे की आंख का तिनका भी शहतीर नज़र आता है ” ) आदि । साथ ही इंडिया को इन बुराइयों से मुक्त करने के लिए अर्थात ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए ईसाई मिशनरियों ने जो काम किए थे, उनकी भी ऐसी जानकारी प्राप्त कर ली जिसके आधार पर उनके मन में इंडिया से संबंधित हर चीज़ के प्रति — फिर चाहे वह कला हो, धर्म हो, विज्ञान हो, या साहित्य हो, एक स्थायी ” नकारात्मक दृष्टिकोण ” बन गया । इस दृष्टिकोण का ही यह सुफल था कि इंडिया आने पर उनका अमूल्य समय ढेर सारी बेकार की बातों में बरबाद होने से बच गया ।
हमारे मानस पिता के जीवन का यह समय थोड़ी कठिनाई का था । राजनीति में अधिक घुसपैठ हो नहीं पा रही थी और वे आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे । अपनी इस स्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी बहन को पत्र में लिखा कि मुझे राजनीतिक जीवन अंधकारमय दिखाई दे रहा है । पार्टी में मतभेद बहुत बढ़ गए हैं और पार्टी विखंडित हो रही है ( वे व्हिग पार्टी में थे जो बाद में लिबरल पार्टी बनी ) । आने वाले समय में इंग्लैंड में मुझे अपना जीवन गरीबी से भरा दिखाई दे रहा है । मैं अभी दो सौ पौंड से अधिक नहीं कमा पा रहा हूँ जबकि जिस तरह का जीवन मैं जीना चाहता हूँ उसके लिए कम से कम पांच सौ पौंड तो चाहिए ही ( In England I see nothing before me, for some time to come, but poverty, unpopularity, and the breaking of old connections ) ।
तभी एक ऐसी घटना घटी जिससे सारा परिदृश्य बदल गया । ब्रिटिश पार्लियामेंट ने जो नया इंडिया बिल बनाया , उसमें सुप्रीम काउन्सिल ऑफ़ इंडिया में ” Law Member ” का एक नया पद बनाया गया जिस पर ऐसे ही व्यक्ति की नियुक्ति की जानी थी जो न तो ईस्ट इंडिया कंपनी का कर्मचारी हो और न कंपनी की गतिविधियों से जुड़ा हुआ हो। उस ज़माने में इंग्लैंड के सरकारी क्षेत्र में ऐसे लोगों का मिलना कठिन था जो ईस्ट इंडिया कंपनी से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए न हों ( दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि जो लूट – मार में शामिल न हों ) । पर हमारे मानस – पिता ऐसे ही व्यक्ति थे । अतः इस पद का प्रस्ताव उन्हें दिया गया । इस पद के लाभ बताते हुए उन्होंने अपनी बहन को फिर लिखा कि इससे मुझे इज्ज़त तो मिलेगी ही, उससे भी अधिक पैसा मिलेगा – पूरे दस हज़ार पौंड प्रति वर्ष । मैंने सारी बात पता कर ली है । कलकत्ता में पांच हज़ार पौंड में बड़ी शान से रहा जा सकता है, इसलिए बाकी सारा पैसा बचेगा । उस पर ब्याज मिलेगा । मैं जब 39 वर्ष की जवान उम्र में ही वापस आऊँगा तब मेरे पास तीस हज़ार पौंड होंगे । मैं सारी ज़िंदगी ऐसी शान से रहूँगा जैसे कोई राजकुमार रहता है ; और मजेदार बात यह कि इंडिया में मुझे कोई मेहनत का काम भी नहीं करना है । आराम से बैठे – बैठे शाही काम करने हैं । ऊपर से उस देश में जितनी भी सुविधाएं मिल सकती हैं, वे सब भी मुझे मिलेंगी । इसे हम अपना सौभाग्य मानते हैं कि इन आकर्षणों ने हमारे मानस-पिता को यह पद स्वीकार करने और उस इंडिया में आने के लिए प्रेरित किया जो अन्यथा उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था ।
उन दिनों इंग्लैंड से इंडिया आने के लिए समुद्र यात्रा करनी पड़ती थी । जहाज़ पर सुविधाओं के सारे सामान के बावजूद चारों तरफ पानी ही पानी । पता नहीं किसने कह दिया कि ‘ जलं जीवनं ‘ । चौबीसों घंटे जल में रहना पड़े तो पता चले कि जीवन क्या है । अरे, जीवन का आनंद तो पृथ्वी पर है । हमारे मानस पिता को जब तीन महीने की लम्बी समुद्री यात्रा के बाद इंडिया की धरती दिखाई दी, तो जान में जान आई । मन – मयूर ख़ुशी से नाचने लगा. और यह खुशी कई गुनी तब और बढ़ गई जब वे मद्रास तट पर 10 जून 1834 को उतरे जहाँ उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया, और दी गई 15 तोपों की सलामी ।
पर यह क्या ? वे जिधर देखते, काले-काले लोग, सिर पर झक सफ़ेद पगड़ी, ढीले – ढाले झूलते हुए से कपड़े ; पेड़ों पर निगाह गई तो अपने यहाँ का एक भी पेड़ नहीं मिला । और गर्मी के कारण सारा वातावारण ऐसा जैसे किसी भट्टी में आ गए हों । बेतुकी बिल्डिंगें और न जाने कैसे – कैसे पेड़-पौधे ! उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगा । तोपों की सलामी की सारी ख़ुशी काफूर हो गई । इंडिया के बारे में कोई अच्छी राय तो उनकी पहले भी नहीं थी, पर अब तो ……. उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया कि मैं ही क्या, मेरे देश का कोई भी व्यक्ति इस देश में केवल, और केवल शासक एवं योद्धा के रूप में ही रह पाएगा ( he was in a region where his countrymen could exist only on the condition of their being warriors and rulers ) । वैसे भी वे तो इसी काम के लिए आए थे । अब वे इसकी योजनाओं पर विचार करने लगे ।
मद्रास में एक हफ्ते आराम करने के बाद हमारा यह पिता बैगलोर – मैसूर होते हुए नीलगिरी (उटकमंड) के लिए रवाना हो गया क्योंकि गवर्नर जनरल विलियम बेंटिंक गर्मी के कारण वहां आराम फरमा रहे थे । चार सौ मील की यह यात्रा वह पहली चीज़ थी जो उन्हें इंडिया में इसलिए पसंद आई क्योंकि उनकी पालकी कहारों ने अपने ” कन्धों ” पर ढोई । शायद अब उन्हें यह विश्वास हो गया होगा कि ये काले रंग वाले , ढीले – ढाले हवा में झूलते कपड़ों वाले इंडिया के लोग उन्हें हमेशा अपने कन्धों पर ही ढोएंगे और हमेशा अपने सिर पर बिठाकर रखेंगे ।
अंधविश्वासों में जकड़े इस जंगली असभ्य देश को विश्व के भले आदमियों के बीच उठने- बैठने लायक सभ्य देश बनाने के लिए हमारे मानस – पिता ने जो उपकार किए, उनकी गिनती नहीं की जा सकती । फिर भी कुछ बातों की चर्चा इस अवसर पर करनी बहुत आवश्यक है । वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हमें ‘आज़ादी ’ का सही अर्थ समझाया । उन्हें इंडिया में आकर सबसे पहले इसी समस्या से जूझना पड़ा था क्योंकि जिस स्वतंत्र ‘ प्रेस ‘ की शुरुआत उनके ” स्वर्ग ” जैसे देश में हुई थी, लोग उसी की नक़ल करने का दुस्साहस ” नरक ” जैसे इंडिया में करने लगे थे । इंडिया वालों की जुर्रत तो देखिए कि ” गुलाम ” लोग अपने को विशेषाधिकार प्राप्त ” आजाद ” लोगों के बराबर समझने लगे थे ! हमारे पिता तो विद्वान व्यक्ति थे । वे स्वर्ग – नरक का अंतर अच्छी तरह जानते थे । उन्हें पता था कि जनता के प्रतिनिधियों की सरकार केवल स्वर्ग में बन सकती है , नरक में नहीं । इसीलिए उन्होंने इंडिया आने से पहले इंग्लैंड के हॉउस ऑफ़ कामंस में 10 जुलाई 1833 को कहा था’ ” If the question were , what is the best mode of securing good government in Europe ? The merest smatterer in politics would answer, representative institutions . In India you cannot have representative institutions.” हमारे मानस पिता ने साफ़ शब्दों में बताया ,” We know that India cannot have a free Government. But she may have the next best thing – a firm and impartial despotism.”
उन्होंने हमें अच्छी तरह समझा दिया कि आज़ादी और तानाशाही एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं । तब तो हम अज्ञानी थे, पर अब उनके प्रताप से हम समझ गए हैं कि स्वर्ग में जिसे आज़ादी कहते हैं , उसी को नरक में तानाशाही कहते है । कानून सबके लिए बराबर होता है – स्वर्ग वालों के लिए स्वर्ग का कानून, और नरक वालों के लिए नरक का कानून । उनकी इस शिक्षा को हमने अपने मन में उतार लिया है और अब हम आज़ादी और तानाशाही को एक दूसरे का पर्याय ही मानते हैं ।
उनके गुणों का बखान कितना भी करें , कम ही रहेगा । अब जैसे उनकी ईमानदारी देखिए कि बिलकुल साफ़ – साफ़ कहा कि मुझे संस्कृत या अरबी की कोई जानकारी नहीं है ( I have no knowledge of either Sanscrit or Arabic ) ;. दूसरी तरफ विद्वत्ता देखिए कि साहित्य तो दूर, भाषाओं तक की जानकारी न होने के बावजूद पता लगा लिया कि इंडिया और अरब का सारा साहित्य एक तरफ रख दीजिए, और यूरोप की किसी भी अच्छी लाइब्रेरी के एक खाने का साहित्य दूसरी तरफ रख लीजिए, फिर भी बराबरी नहीं हो पाएगी (a single shelf of a good European library was worth the whole native literature of India and Arabia ) । यह साहित्य ” Native ” है, ” आदिवासियों ” का है, ” कूपमंडूक ” लोगों का है, उन लोगों का है जो अपने ही छोटे- से इलाके में रहते रहे, जिन्होंने दुनिया देखी ही नहीं, इसलिए जिन्हें कभी कोई समझ आई ही नहीं, जो कभी सभ्य बने ही नहीं । तो फिर ऐसे लोगों की भाषा और साहित्य की बराबरी सुसभ्य, सुसंस्कृत, ज्ञानी, अंधविश्वासों से मुक्त लोगों की भाषा और साहित्य से कैसे की जा सकती है ? इतना ही नहीं, अगर ऐतिहासिक जानकारी की बात की जाए तो संस्कृत में लिखे सारे ग्रंथों से उतनी भी जानकारी नहीं मिल सकती जितनी जानकारी इंग्लैंड के नर्सरी स्कूलों के बच्चों की छोटी से छोटी पुस्तक से मिल सकती है । यही हाल दोनों देशों के लोगों की नैतिकता में है ( It is, I believe, no exaggeration to say that all the historical information which has been collected from all the books written in the Sanscrit language is less valuable than what may be found in the most paltry abridgments used at preparatory schools in England. In every branch of physical or moral philosophy, the relative position of the two nations is nearly the same ) ।
इसलिए उन्होंने ” अंग्रेजी देवी ” से हमारा परिचय कराया और हमारी तकदीर ही बदल डाली । भगवान ने हमारे साथ जो अन्याय किया था, उसे हमारे मानस – पिता ने ठीक कर दिया । अब जाकर हमें पता चला कि जब से दुनिया बनी तब से हम लोग इतने पिछड़े हुए क्यों हैं । अब हमने उनकी सारी बातों को सहेज कर रख लिया है । उसे अपने जीवन में उतार लिया है । जब पता चल गया कि हमारे पिछड़ेपन का कारण यह संस्कृत भाषा और उसका साहित्य है तो हमने सबसे पहले तो इस बेकार की भाषा को अपनी शिक्षा में से निकाल कर बाहर किया ; और फिर अपने जीवन से इतनी दूर कर दिया कि अब तो हम उसके छोटे-मोटे शब्दों तक से परहेज़ करते हैं । जो भाषा और साहित्य इंग्लैंड के नर्सरी स्कूलों के बच्चों तक के बराबर का ज्ञान न दे सके, उसके पीछे भागने से क्या फायदा ? हमारी जहालत हजारों सालों की है इसलिए उसे दूर करने में समय लग रहा है । इतना तो हमने कर ही लिया है कि We have discarded our old ‘ rustic ‘ ‘ native ‘ forms of salutations like ‘ Namaste ‘ , ‘Pranaam ‘ etc. and have adopted salutations of civilised society such as Hello, Hi, Bye, Good Morning, Good Evening , Good Night etc. हम कोशिश कर रहे हैं कि जहाँ तक हो सके, अंग्रेजी के ही words use करें । हिंगलिश तक तो हम आ गए हैं, पूरी कोशिश कर रहे हैं कि जल्दी से जल्दी पूरी English अपना लें । इसीलिए हमने अपने स्कूलों में, फिर चाहे वे पब्लिक स्कूल हों या सरकारी स्कूल, सब स्कूलों में पहली क्लास से ही अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया है ; और घरों में हम कोशिश कर रहे है कि जैसे ही बच्चा थोड़ी सी भी भाषा समझने लायक हो जाए, तो उसे Eyes , Nose , Ear , Hand , Finger आदि सिखाएं । कोशिश तो हम यह कर रहे हैं कि आगे से बच्चे माँ के पेट से ही अंग्रेजी सीख कर आएं ।
इस तरह हम अपने मानस – पिता के अधूरे रह गए काम को पूरा कर रहे हैं । हमें पूरी उम्मीद है कि इससे उनकी आत्मा को परम शांति मिलेगी ।
वैसे तो अभी तक हम लोग अपने हर अच्छे काम के अंत में शांति-पाठ करते थे, ” ओ३म् द्यौ शांतिः अन्तरिक्षं शांतिः पृथ्वी शांतिः ……… ” वेद का पूरा मन्त्र पढ़ते थे, या कम से कम ” ओ३म् शांतिः, शांतिः , शांतिः ” तो कहते ही थे ; पर अब जाहिलों की भाषा संस्कृत से मुक्ति पाने के बाद हम अपने मानस – पिता की धर्मपुस्तक से लेकर ” Amen ” ( आमेन ) को अपना रहे हैं .Because this is the most civilised word used at the end of Prayers .

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डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
जन्म लखनऊ में, पर बचपन - किशोरावस्था जबलपुर में जहाँ पिताजी टी बी सेनिटोरियम में चीफ मेडिकल आफिसर थे ; उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में स्नातक / स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन करने के पश्चात् भारतीय स्टेट बैंक , केन्द्रीय कार्यालय, मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ; सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी बैंक में सलाहकार ; राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में प्रोफ़ेसर - सलाहकार ; एस बी आई ओ ए प्रबंध संस्थान , चेन्नई में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर ; अनेक विश्वविद्यालयों एवं बैंकिंग उद्योग की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध ; हिंदी - अंग्रेजी - संस्कृत में 500 से अधिक लेख - समीक्षाएं, 10 शोध - लेख एवं 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक - अनुवादक ; कई पुस्तकों पर अखिल भारतीय पुरस्कार ; राष्ट्रपति से सम्मानित ; विद्या वाचस्पति , साहित्य शिरोमणि जैसी मानद उपाधियाँ / पुरस्कार/ सम्मान ; राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर का प्रतिष्ठित लेखक सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ का मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, एन सी ई आर टी की शोध परियोजना निदेशक एवं सर्वोत्तम शोध पुरस्कार , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अनुसन्धान अनुदान , अंतर -राष्ट्रीय कला एवं साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय एकता सम्मान.

2 COMMENTS

  1. इतिहास इस बात का साक्षी है कि विदेशी आक्रमणकारी और धूर्त ठग प्रायः भारतीय उप महाद्वीप के मूलनिवासियों में बुद्धिजीवियों को अपने संरक्षण में ले उनके सहयोग से शासन करते चिरकाल तक सत्ता में बने रहते थे। बहादुरशाह ज़फर के अंतिम जीवन में कही उनकी पंक्तियाँ, “दो गज ज़मीन भी न मिली कूए यार में” भारतीयों के दिलों में भले ही राष्ट्रप्रेम न जगाएं, उन्हें रोमांचित अवश्य कर देती हैं। कैसी विडंबना है कि भारतीय संपदा और संस्कृति लूट घर लौट गए उन धूर्त ठगों के प्रतिनिधि कार्यवाहक व उनकी सेवा में लगे बुद्धिजीवी आज भी कालांतर में मूलनिवासियों में पूर्णतया विलीन उन आक्रमणकारियों के वसंज और मातृभूमि पर अन्य सहचर नागरिकों को शोषित किये हुए हैं।

    मैकॉले को अपनी वेबसाईट पर बड़े गर्व से याद करते आज भी अजमेर स्थित मेयो कालेज वहां अपने उत्तम विद्या संबंधी कार्यकलाप की प्रसंशा करता है। और मैकॉले को सदैव दोष देते निष्क्रिय मन स्वयं हम अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपनी भाषाओं को नष्ट किये जा रहे हैं। क्यों न राष्ट्रप्रेम में रमें बुद्धिजीवी देश भर में ऎसी संस्थाएं स्थापित करें जहां समाज की समस्याओं पर विचार करते उनका समाधान ढूंढा जाए। भारत में एक अरब पच्चीस करोड़ जनसमूह को एक डोर में संगठित करती एक सामान्य भाषा की महत्वता और आवश्यकता पर कोई दो विचार नहीं हो सकते और इस लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हमें प्रस्तावित राष्ट्रभाषा को रुचिकर व उपयोगी बनाने हेतु उसमे जीवन के प्रत्येक विषय को परिभाषित करते विभिन्न शब्दकोशों की रचना करनी होगी। अभी तो सर्वसम्मति से राष्ट्रभाषा का चयन किया जाना चाहिए।

  2. अग्निहोत्रिजी को एक यथार्थवादी ज्ञानवर्धक लेख के लिए अनेक धन्यवाद् . हमारे स्वतंत्र देश के प्रत्येक क्षेत्र मे मैकाले के मानसपुत्रों का आधिपत्य चला आ रहा है.यदि हिन्दीप्रेमी राष्ट्रप्रेमी जन कुछ साहस करें तो शायद कुछ सफलता मिले .

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