कुनबे की कलह से ढहेगा समाजवादी साम्राज्य

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 अखिलेश यादव के पार्टी से निष्कासन पर विशेष

 

‘वंशवाद’शब्द नेहरू-गांधी परिवार की निंदा के लिए विद्वत्ता का मुखौटा लगाने का अवसर देता है। किन्तु जब परिवारवाद की गिरफ़्त में रहकर राजनीतिक अवधारणा का नवसिंचन होता है तो पौध भी अल्पविकसित होने का राग ही आलापती है|

राजनीति में वंशवाद को लेकर हमारे जनमानस में अरसे से कई सारी चर्चा, परिचर्चां और विमर्श होती रही हैं जिनमे देश के विभिन्न राजनीतिक दलों और राजनेताओं पर वंशवादी होने का चस्पा लगता है। दूसरी तरफ वंशवाद का पोषण करने वाले इन दलों और इनके राजनेता इस चर्चा का अपने इस बड़े ही चिरपरिचित कथन से बचाव करते हैं कि समाज के हर पेशेवर डाक्टर, इंजीनियर, खिलाड़ी, अभिनेताओं की संतानें भी आम तौर वही पेशा अपनाती हैं तो ऐसे में राजनेताओं के बेटे-बेटियों के राजनीति में प्रवेश पर हो हल्ला क्यों?
गौर करने लायक बात ये है कि ऐसे तर्क ना केवल कई राजनेता बल्कि कई राजनीतिक विश्लेषक भी उनके समर्थन में पेश करते रहते हैं। देखा जाए तो इस कथन का आशय आनुवांशिकी व तकनीकी तौर पर बड़ा सहज लगता है जिसे वंशवाद की वैध चासनी चढ़ाकर बड़ी होशियारी से पेश कर दिया गया हो। परंतु गहराई से गौर करें तो राजनीति में खानदानवाद या वंशवाद के समर्थन में दिया जाने वाला यह तर्क एक ऐसा खतरनाक तर्क है जो हमारे लोकतांत्रिक सिद्धांतों और उससे गढ़ी गयी राजनीतिक विचारधारा का अपनी सुविधा से इस्तेमाल कर उसे बेहद चालाकी से स्वार्थगत व अवसरवादी चिंतन का मुलम्मा चढ़ा देने की तरह है। ये लोग भूल जाते हैं या जानते हुए इस बात की अनदेखी करते हैं कि जिस प्राचीन व मध्युगीन राजव्यवस्थाओं और सत्ता केन्द्रों के रूप में चलायमान राजशाही, सामंतशाही, बुर्जआशाही, कुलीनशाही के तंत्र को शनै: शनै: ध्वस्त कर समूची दुनिया में लोकतांत्रिक राजव्यवस्थाओं की स्थापना की गई।  सैकड़ों सालों के अनवरत सुधारों, प्रयोगों, संघर्षों के बाद जिन आदर्शों और नैतिकताओं के आभूषणों से सुसज्जित कर इस लोकतांत्रिक राजव्यवस्था को दुनिया के भारत सहित तमाम देशों में सतत रूप से पहले से बेहतर बनाकर स्थापित किया गया, क्या आज उसी व्यवस्था में वंशवाद के रूप में कुलीन व सामंती स्वार्थो की नयी दीवारें नहीं खड़ी की जा रही हैं?

बरगद के पेड़ की भाँति गहरे समाजवादी साम्राज्य की विकसित पौध उस तने को काट गई जिससे पेड़ की हर शाखा जुड़ी हुई थी | आज वही परिवारवाद का तुनक चेहरा एक मुख्यमंत्री के सिंहासन को गर्जना के रूप में दृष्टि में आ गया | मुख्यमंत्री रहते हुए किसी व्यक्ति को पार्टी ने निष्कासित किया | मतलब देश में पहली बार इस तरह का फ़ैसला हुआ | अखिलेश की समाजवादी पार्टी से ६ साल के लिए विदाई हो गई | परिवारवाद की पोषक समाजवादी पार्टी को यही परिवारवाद ले डूबा,  ये सरयू के पानी की तासीर है क़ि वो हर बार राजनीति की नई लय तय करती है | आज भी वही हुआ, इतिहास के पन्नों में फिर नई सरहद… एक तरह से हर उद्दंदता का परिणाम मुख्यमंत्री तक को भुगतना पड़ सकता है यह सिद्ध कर दिया |

उत्तरप्रदेश में जातिवाद के बाद यदि कोई बड़ा फैक्टर है तो वह है परिवारवाद | बीते दिनों जिस तरह से मुलायमसिंह कुनबे में कलह दिख रही थी वो सपा के राजनीतिक हथकंडों की लुटिया डुबोने की साजिश ही है| अखिलेश और शिवपाल के कारण नेताजी से तनातनी और इसी बीच अमरसिंह की खामोशी एक साथ सभी रंग दिखा रही है| सत्य भी है, जिस परिवार में पटवारी से लेकर मुख्यमंत्री तक सब के सब मौजूद हों वहां आत्मसम्मान की लड़ाई होना लाजमी है | अखिलेश की मेट्रो परियोजना पर नेताजी का परिवार प्रेम भारी है|

मथुरा के जवाहरबाग कांड के दौरान भी ये सार्वजनिक हुए और माफिया सरगना मुख्तार अंसारी की सपा में इंट्री रोकने को लेकर भी| वैसे पूरे सत्ताकाल में प्रशासनिक सुस्ती को छोड़ दें, तो उनके खिलाफ घपले-घोटाले का कोई आरोप नहीं है और उनकी व्यक्तिगत छवि बेदाग है, लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से ही बिखरा पार्टी का समीकरण दुरुस्त नहीं हो रहा| इससे चिंतित मुलायम, अमर सिंह व बेनी वर्मा जैसे नेताओं को घर वापस लाए हैं, जबकि पहले कहते थे कि नेताओं के नहीं, जनता के जमावड़े में यकीन करते हैं |पार्टियों में स्थिर होता वंशवाद राजनीति की मटीयामेल करने के लिए काफ़ी है| पैट्रिक फ्रेंच के अनुसार वर्तमान में राजनीतिक दलों में वंशवाद कुछ इस प्रकार है-

एनसीपी − 77.8 प्रतिसत 9 में से 7

बीजेडी − 42.9 प्रतिशत 14 में से 6

कांग्रेस − 37.5 प्रतिशत 208 में से 78

सपा − 27.3 प्रतिशत 22 में से 6

बीजेपी − 19 प्रतिशत 116 में से 22

वाह नेताजी…. खैर ये जनता के साथ भावनात्मक रिश्ता बनाने की रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है…. समाजवादी सोच को अपना संपूर्ण जीवन अर्पण करने वाले अनुभवी मुलायम सिंह की आगामी चुनावों को लेकर बनाई रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ये ‘कुनबे का कलह’…

परिणाम समय के गर्भ में है, किन्तु इतिहास स्वयं को दोहराता है | राममनोहर लोहिया के समाजवाद के जिस तरह से टुकड़े हुए वही हाल इस कुनबे का भी हो ही गया …

अखिलेश के पास अब विभीषण बनने का ही विकल्प है …. जैसा की सन 1987 में वी. पी. सिंह ने किया था | वी. पी. सिंह ने 1987 में कांग्रेस द्वारा निष्कासित किए जाने पर विभीषण की भूमिका निभाने का मन बना लिया था। लेकिन यह विभीषण रावण की नहीं बल्कि राम की पराजय चाहता था।बोफोर्स कांड के ठीक बाद का परिपेक्ष राजनीति का वो रंगीन ठीकरा था जिसके फूटने की खुशी विपक्ष से ज़्यादा वी. पी. सिंह को थी….

वंशवाद के प्रेरक कारकों में सुसंस्कृत और अशिक्षित दोनों तरह के मतदाताओं की संकीर्ण कूढ़मगजता भी है। सामंतवादी तत्वों के चुनावों में मतदाताओं का लोकतंत्रीय आचरण कोर्निश करने लगता है। इस मिथक को टूटने में पचास वर्षों से ज्यादा समय लगा। सामंतवादी ठसक पूरी दुनिया में फिर भी कायम है। राष्ट्रमंडल की मुखिया इंग्लैंड की महारानी हैं। नोबेल पुरस्कार स्वीडन के महाराजा के हाथों दिया जाता है। भारतीय संविधान से राजप्रमुख शब्द हटाया नहीं गया है, भले ही कोई राजप्रमुख नहीं बचा। देश के बीमारू (बिहार और उत्तर प्रदेश आदि) इलाकों और अन्य प्रदेशों में भी जातीय और वर्णाश्रमी वंशवादिता सामान्य जनता के जेहन में ठुंसी पड़ी है। हजारों ऐसे गांव हैं जहां ब्राह्मण-श्रेष्ठता का परचम लहराता है। कुलीन दिखते लेकिन निष्ठुर क्षत्रियों की हुकूमत का जहर जनता की जीहुजूरी में बहता रहता है। उच्चकुलीन तबकों में वैश्यों की आर्थिक इजारेदारी भी ऑक्टोपस की तरह अकिंचनों की अर्थव्यवस्था को जकड़े हुए है।

सवर्ण उम्मीदवार उपेक्षित इलाकों से भी पिछड़ों और दलितों के मुकाबले जीतते रहते हैं। तथाकथित सामाजिक अभियांत्रिकी का अब भी मैदानी अनुतोष मिलता नहीं है। ऐसे में ठर्र राजनीति में प्रतिद्वंद्विता और लोकप्रियता की दुधारी तलवार पर चलते हुए लोकतंत्रीय राजवंशियों के उत्तराधिकारी मुकाबला करते हैं तो उसे वंशवाद की ठठरी की तरह नहीं जकड़ा जा सकता।

मुलायम तो अपने परिवार मोह से बाहर ही नहीं आ रहे हैं और सियासतदानों में त्रहिमाम-त्रहिमाम का राग चरम पर है| आज जब   मुलायम ने सपा की सर्जरी के तौर पर नौनिहाल अखिलेश को पुन: साधा नहीं तो निश्चित तौर पर आगामी विधानसभा में ‘खराब दिन’आने से कोई रोक नहीं सकता |  सपा के आज के हाल के लिए ज़िम्मेदार अमरसिंह को माना जा रहा है, इसी हाल पर कवि जगदीश सोलंकी की चार पंक्तियाँ सटीक बैठती है-

” बीज जैसे दोगले जो सोख ले ज़मीन सारी…

घर के आस-पास की ज़मीन में न रखना..

और साँप गर डसना भी छोड़ दे तो प्यारे…

भूल कर भी इसे आस्तीन में रखना …..”

 

अर्पण जैन ‘अविचल’

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