महर्षि दयानन्द और आचार्य सायण के वेद भाष्य

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मनमोहन कुमार आर्य

आर्य विद्वान श्री कृष्णकान्त वैदिक शास्त्री जी ने एक लिखा है जिसका शीर्षक है ‘‘क्या आचार्य सायण वेदों के विशुद्ध भाष्यकार थे?’’ लेखक ने अपने लेख में स्वीकार किया है कि आचार्य सायण का भाष्य पूर्ण विशुद्ध भाष्य नहीं है। श्री वैदिक जी के लेख पर एक टिप्पणीकार के अनुसार ‘‘सायण महोदय के भाष्य पर प्रश्न चिन्ह लगाना उचित नहीं है।” इस संबंध में हमें यह कहना है कि महाभारत काल के बाद महर्षि दयानन्द वेद के मर्मज्ञ विद्वान हुए हैं। उन्होंने अपने समय के उपलब्ध सभी वैदिक साहित्य का मनोयोग से पारायण किया था। वह एक सिद्ध योगी भी थे और 18 घंटे तक की समाधि लगाने की सामर्थ्य उनको प्राप्त थी। उनका एकमात्र कार्य ईश्वरोपासना अथवा वेदों का प्रचार व प्रसार ही था। वह किसी राजा के सेनापति, मंत्री व ऐसे समय साध्य वाले कार्यों में व्यस्त नहीं थे। स्वामी दयानन्द जी ने पाणिनी व्याकरण, निरुक्त व निघण्टु आदि ग्रन्थों का भी गहन अध्ययन व मनन किया था। उनके गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती तो वैदिक आर्ष व्याकरण एवं ज्ञान के सूर्य थे। उन्होंने आचार्य सायण के भाष्य में अनेक विसंगतियां पाई थीं जिनका उन्होंने अपने साहित्य में यत्र तत्र वर्णन किया है।

 

स्वामी दयानन्द ने अपनी प्रतिभा व योग्यता के आधार पर प्राचीन ऋषि परम्परा के अनुसार वेदों के प्रचार प्रसार हेतु सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के प्रणयन सहित वेदों का अपूर्व भाष्य कर वेदों की रक्षा व प्रचार का अभूतपूर्व कार्य किया है। उनके कार्य को उनके अनेक शिष्यों ने जारी रखा और आज आर्य जाति का यह गौरव व सौभाग्य है कि उसके पास अनेक आर्य विद्वानों के वेदों के प्राचीन ऋषि परम्परा के पोषक वेद भाष्य सुलभ है। आज स्थिति यह है कि वेदों के भाष्यों का अध्ययन आर्य परिवारों में ही होता है। अपवाद स्वरूप ही कुछ सीमित पौराणिक व सनातनी परिवार वेदों व उनके भाष्यों का अवलोकन व अध्ययन करते होंगे। पौराणिकों के धार्मिक ग्रन्थों की प्रकाशिका संस्था गीता प्रेस गोरखपुर गीता, रामायण, रामचरित मानस, भागवत पुराण व अन्य पुराणों के प्रकाशन तक ही सीमित है। उसने सम्भवतः कभी वेदों के भाष्य का प्रकाशन नहीं किया। इसका कारण यही हो सकता है कि वह वेद से अधिक गीता, रामचरित मानस व पुराणों को महत्व देते हैं। उनके लिए वेदों का महत्व गौण हैं।

 

स्वामी दयानन्द जी के सायण वेद भाष्य पर विचारों को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं “(स्वामी दयानन्दकृत वेदभाष्य) प्राचीन आचार्यों के भाष्यों के अनुकूल बनाया जाता है। परन्तु जो रावण, उवट, सायण और महीधर आदि ने भाष्य बनाये हैं, वे सब मूलमन्त्र और ऋषिकृत व्याख्यानों से विरुद्ध हैं। मैं वैसा भाष्य नहीं बनाता। क्योंकि उन्होंने वेदों की सत्यार्थता और अपूर्वता कुछ भी नहीं जानी। और जो यह मेरा (स्वामी दयानन्द जी का वेद) भाष्य बनता है, सो तो वेद, वेदांग, ऐतरेय, शतपथ ब्राहमणादि ग्रन्थों के अनुसार होता है। क्योंकि जो-जो वेदों के सनातन व्याख्यान हैं, उनके प्रमाणों से युक्त बनाया जाता है, यही इसमें अपूर्वता है। क्योंकि जो-जो प्रामाण्याप्रामाण्यविषय में वेदों से भिन्न शास्त्र (ऋषि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ) में गिन आये हैं, वे सब वेदों के ही व्याख्यान हैं। वैसे ही ग्यारह सौ सत्ताईस (1127) वेदों की शाखा भी उनके व्याख्यान ही हैं। उन सब ग्रन्थों के प्रमाणयुक्त (उनके द्वारा) यह भाष्य बनाया जाता है। और दूसरा इसके अपूर्व होने का कारण यह भी है कि इसमें कोई बात अप्रमाण वा अपनी रीति से नहीं लिखी जाती। और जो-जो भाष्य उवट, सायण, महीधरादि ने बनाये हैं, वे सब मूलार्थ और सनातन वेदव्याख्यानों से विरुद्ध हैं। तथा जो-जो इन नवीन भाष्यों के अनुसार अंग्रेजी, जर्मनी, दक्षिणी और बंगाली आदि भाषाओं में वेदव्याख्यान बने हैं, वे भी अशुद्ध हैं। जैसे देखों–सायणाचार्य ने वेदों के श्रेष्ठ अर्थों को नही जान कर कहा है कि ‘सब वेद क्रियाकाण्ड का ही प्रतिपादन करते हैं।’ यह उनकी (आचार्य सायण की) बात मिथ्या है। इसके उत्तर में जैसा कुछ इसी (ऋग्वेदादिभाष्य) भूमिका के पूर्व प्रकरणों में संक्षेप से लिख चुके हैं, सो (पुस्तक में ही) देख लेना।” स्वामी दयानन्द जी ने सायणाचार्य जी द्वारा जिन मन्त्रों के मिथ्यार्थ किये हैं उनके अर्थ भी दिखायें हैं। विस्तार भय से उन्हें नहीं दे रहे हैं। इच्छुक पाठक पूरा प्रकरण ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में देख सकते हैं।

 

यह सुविदित तथ्य है कि आचार्य सायण विजयनगर राज्य के सेनापति व अमात्य थे। जितना साहित्य आचार्य सायण के नाम से मिलता है, उससे यह सहज अनुमान होता है कि उनके लेखन का अधिकांश कार्य उन्होंने स्वयं न करके अपने शिष्यों से कराया है। कोई भी लेखक उतना व वैसा ही कार्य कर पाता है जैसी व जितनी उसकी विद्या होती है। सायण आचार्य जी के काल में वेद विलुप्त हो चुके थे। उनसे पूर्व आचार्य शंकर भी आ चुके थे। उन्होंने गीता, उपनिषद व वेदान्त दर्शन पर ही भाष्य किया। वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं, यह तथ्य तब भी प्रचलित था परन्तु उन्होंने वेदों पर किन्हीं कारणों से भाष्य नहीं किया। अतः उनके बाद आचार्य सायण ने वेदभाष्य करके जहां एक प्रशंसनीय कार्य किया वहीं उनकी व उनके शिष्यों के विद्या व ज्ञान के कारण वह जैसा कर सके वैसा ही किया। स्वामी दयानन्द ने उन पर जो टिप्पणियां की हैं वह अधिकारिक टिप्पणियां है जो प्रमाणों से भी पुष्ट हैं। ऋषि दयानन्द जी के ऋग्वेदभाष्य में भी उनकी वेदभाष्य की न्यूनताओं को देखा जा सकता है। लेखनी को विराम देने से पूर्व हमारा यही निवेदन है कि सम्प्रति ऋषि दयानन्द और उनकी शिष्य परम्परा द्वारा किया गया वेदभाष्य ही वेदों का सत्यार्थ व यथार्थ वेदभाष्य है। उनका वही भाष्य पठन पाठन में प्रचलित भी है और प्रचारित हो रहा है। विदेशी विद्वान मैक्समूलर ने भी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व उनके वेदभाष्य की प्रशंसा करके उनके भाष्य को पुष्ट व प्रमाणित किया है। उनके ही भाष्य को सभी को अपनाना चाहिये और ऋषि दयानन्द के सत्य मन्तव्यों को स्वीकार करना चाहिये। हमारा निजी मन्तव्य है कि यदि आज आचार्य सायण व पूर्ववर्ती अन्य विद्वान होते तो निष्पक्ष भाव से वह भी महर्षि दयानन्द जी के वेदभाष्य को ही अपनाते। इति ओ३म् शम्।

 

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