गज़ल: रफ़्ता रफ़्ता खुशियाँ –सतेन्द्रगुप्ता

रफ़्ता रफ़्ता खुशियाँ जुदा हो गई

खुद-बुलंदी की राख़ जमा हो गई।

लौटकर न आये वे लम्हे फिर कभी

और ज़िन्दगी बड़ी ही तन्हा हो गई।

ज़िस्म का शहर तो वही रहा मगर

खुदमुख्तारी शहर की हवा हो गई।

कैसे गुज़री शबे-फ़िराक़, ये न पूछ

मेरे लिए तो मुहब्बत तुहफ़ा हो गई।

इस क़दर बढ़ी दीवानगी -ए -शौक़

मिलने की आस भी, दुआ हो गई।

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